नई दिल्ली। आज जैसे ही खबर आई कि विनेश फोगाट और बजरंग पुनिया ने दिल्ली आकर राहुल गांधी से मुलाक़ात की है, हरियाणा का सियासी पारा अचानक काफी गर्म हो गया है। इस मुलाक़ात की फोटो भी अब मीडिया में खूब चर्चा में है। कयास लगाये जा रहे हैं कि विनेश फोगाट जुलाना या चरखी-दादरी और बादली विधानसभा सीट से बजरंग पुनिया चुनाव लड़ सकते हैं।
इससे पहले राहुल गांधी की पहलकदमी पर आम आदमी पार्टी (आप) के साथ चुनावी गठबंधन को लेकर भी सहमति बनती दिख रही है। पहले से ही माना जा रहा था कि इस बार राज्य में कांग्रेस अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल कर सकती है, लेकिन इन दोनों कदम को देखते हुए कहा जा सकता है कि कांग्रेस गठबंधन के लिए क्लीन स्वीप की स्थिति बन सकती है।
बताया जा रहा है कि 90 सीटों में से कांग्रेस पार्टी में 66 सीटों पर सहमति हो चुकी है, लेकिन 24 सीटों पर अभी भी पेंच फंसा हुआ है। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन को लेकर कई राउंड की बैठक हो चुकी है। सूत्रों के मुताबिक, आप पार्टी 10 सीटों पर दावा कर रही है, लेकिन कांग्रेस 7 सीटें आप पार्टी को देने को इच्छुक है।
एक सब कमेटी- मधुसुदन मिस्त्री, अजय माकन, दीपक बावरिया और टीएस सिंहदेव इस कमेटी के सदस्य होंगे जो हरियाणा के तीनों दिग्गजों भूपेंद्र सिंह हुड्डा, कुमारी शैलजा और रणदीप सुरजेवाला के साथ अलग-अलग बातचीत कर बाकी की सीटों पर उम्मीदवारों के नामों को अंतिम स्वरूप देंगे।
हरियाणा प्रदेश कांग्रेस के नेताओं में पूर्व मुख्यमंत्री, भूपेंद्र सिंह हुड्डा का गुट सबसे प्रभावी स्थिति में है। ऐसा माना जा रहा है कि लोकसभा चुनावों की तरह विधानसभा चुनावों में भी उसी की चलने वाली है, जिससे केंद्रीय नेतृत्व चिंतित है।
हरियाणा में जाट बिरादरी का प्रभुत्व हमेशा से रहा है, और भूपेंद्र हुड्डा के नेतृत्व में जाट समुदाय का बड़ा आधार कांग्रेस के पीछे गोलबंद है। पिछले कुछ दशक से संघ/भाजपा ने विभिन्न राज्यों में अलग-अलग प्रभुत्वशाली जाति/समुदाय के खिलाफ अन्य जातियों की गोलबंदी कर एक नई सोशल इंजीनियरिंग को सफलतापूर्वक अंजाम दिया था, जिसमें हरियाणा भी शामिल है।
इन दस वर्षों में इस सोशल इंजीनियरिंग का प्रभाव तेजी से कम हुआ है। इसके अलावा हरियाणा में दलित आबादी भी 21% है, जिसमें कांग्रेस, भाजपा और बसपा का असर रहा है। कांग्रेस के भीतर हुड्डा बनाम कुमारी शैलजा की प्रतिद्वंदिता में इन दोनों जातियों का प्रतिनिधित्व होता है।
लगातार दो बार से हरियाणा की कमान संभाल रही भाजपा सरकार के लिए इस बार का चुनाव बहुत भारी पड़ने वाला है। याद रहे कि 2019 में लोकसभा चुनाव में 10 में से 10 सीट अपने नाम करने वाली भाजपा को कुछ माह बाद ही विधानसभा चुनाव में 90 में से मात्र 41 सीटों पर ही जीत हासिल हुई थी।
सरकार बनाने के लिए भाजपा को जजपा (10 सीट) के साथ गठबंधन करना पड़ा था और दुष्यंत चौधरी को उप-मुख्यमंत्री पद देना पड़ा था। पिछले विधान सभा चुनाव में हालत यह थी कि कांग्रेस ने 10-12 सीटों से ज्यादा की उम्मीद ही नहीं की थी। तमाम चुनावी सर्वेक्षणों में दावे किये जा रहे थे कि भाजपा को 90 में से 80 या उससे ज्यादा सीटें प्राप्त हो रही हैं।
कांग्रेस के भीतर हुड्डा, शैलजा और सुरजेवाला गुट की अंतर्कलह को निपटाने वाला भी कोई नहीं था। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस अध्यक्ष पद से राहुल गांधी ने इस्तीफ़ा दे रखा था, और कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही थी।
लेकिन इस सबके बावजूद जब कांग्रेस को उम्मीद के विपरीत 30 सीटों पर जीत हासिल हुई, तब कांग्रेसियों को अंदाजा हुआ कि उन्होंने यदि एकजुट होकर राज्य विधानसभा का चुनाव लड़ा होता तो परिणाम उनके पक्ष में आ सकता था। हालांकि इस चुनाव में भी राज्य कांग्रेस की आंतरिक स्थिति में कोई खास सुधार नहीं आया है।
लेकिन केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस की कमान अब वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे के हाथों में है, जो अनिर्णय की स्थिति को पसंद नहीं करते। पिछले दो वर्षों से राहुल गांधी के नेतृत्व को कांग्रेस से बाहर आम लोगों के बीच में स्वीकार्यता मिली है। आज देश के वंचितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के लिए वे उम्मीद की किरण बनकर उभरे हैं।
हरियाणा भी इसका अपवाद नहीं है। यही कारण है कि हरियाणा कांग्रेस के भीतर दशकों से चलने वाली प्रतिस्पर्धा और अंतर्कलह भी अब उतनी मुखर नहीं दिखती है।
इससे भी बढ़कर, राज्य में किसानों, जवानों, बेरोजगारों और पहलवानों का भाजपा सरकार से मोहभंग और नाराजगी अपने आप कांग्रेस के ग्राफ को ऊपर ले जाने का काम कर रही है। मोदी सरकार के द्वारा 3 विवादास्पद कृषि कानूनों का मुखर विरोध करने में पंजाब के बाद हरियाणा के किसानों का स्थान रहा है।
पिछले 3 वर्षों से इन दोनों राज्यों के किसान आंदोलनरत हैं, लेकिन पंजाब के किसानों को जहां राज्य में पहले कांग्रेस और अब आप पार्टी की सरकार होने के कारण भारी दमन का सामना नहीं करना पड़ा, हरियाणा के किसानों को कदम-कदम पर प्रशासन और सरकारी दमन का सामना करना पड़ा है।
राज्य की खट्टर सरकार के खिलाफ किसानों के गुस्से को देखते हुए कुछ माह पूर्व ही नेतृत्व परिवर्तन कर भाजपा ने स्मार्ट मूव लिया, लेकिन इसका कोई खास असर नहीं दिखता है।
नए मुख्यमंत्री, नायब सिंह सैनी को बिठाकर भाजपा ने ओबीसी समुदाय को लुभाने की कोशिश की है, लेकिन पुराने दिग्गज भाजपाई नेताओं के स्थान पर कम अनुभवी सैनी को मुख्यमंत्री बनाने से भी भाजपा के पुराने नेता नाराज हैं। ऊपर से केंद्रीय नेतृत्व के दिशानिर्देश पर चलकर राज्य भाजपा नेतृत्व ने अपना स्वतंत्र वजूद कभी बनाया ही नहीं था।
इस चुनाव में भी राज्य के नेताओं के पास आम लोगों के लिए कोई विजन नहीं है। खुद को पीएम नरेंद्र मोदी के चेहरे पर आश्रित कर देने से आम चुनाव के बाद अचानक पार्टी के लिए चुनाव में स्पष्ट नारे के साथ जाने की दिशा नहीं मिल पा रही है।
गृह मंत्री, अमित शाह सीधे तौर पर हरियाणा विधानसभा चुनाव की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं, लेकिन अभी तक पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह चुनावी रैली नहीं कर पाए हैं, जो बताता है कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व का अंतर्द्वंद्व राज्य नेतृत्व को किस हद तक लाचार बना सकता है, क्योंकि अब भाजपा की रैंक और फाइल स्वयं पहलकदमी लेना ही भूल चुका है।
किसानों के मुद्दों, बेरोजगारी, महंगाई, महिला पहलवानों के सम्मान के साथ 65% ग्रामीण हरियाणा और खाप राजनीति के आगे भाजपा के स्थानीय नेतृत्व के पास कहने को कुछ खास नहीं है। लोकसभा चुनावों में भी भाजपा को 44 विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल हो सकी थी, जबकि कांग्रेस 42 और सहयोगी पार्टी आप को 4 विधानसभा सीटों में बढ़त हासिल थी।
राज्य विधानसभा चुनावों में यह अंतर गुणात्मक होने की संभावना है। ले-देकर, हिंदू-मुस्लिम विभाजनकारी राजनीति का ही सहारा बचता है, जिसे हरियाणा के युवा वर्ग के एक हिस्से में अच्छा खासा समर्थन मिलता रहा है। लेकिन जमीन पर मुस्लिम समुदाय की आबादी मात्र 7% होने, और उसमें भी बड़ा हिस्सा नूह और आसपास के जिलों में होने के कारण बहुत फायदा नहीं होने जा रहा है।
गौवंश की रक्षा के मुद्दे पर जरुर हरियाणा में आर्यसमाज आंदोलन का असर काम करता है, लेकिन हाल ही में दो-दो घटनाओं में गौ रक्षकों ने जिस प्रकार से नृशंस हत्या को अंजाम दिया है, उसने हरियाणा को दागदार करने का ही काम किया है।
इन गौरक्षकों की कथित भूमिका और राज्य सरकार की ओर से मिले संरक्षण के बारे में सवाल उठ रहे हैं, जो सैनी सरकार के लिए चुनावी फसल के बजाय बदनामी का सबब बनता जा रहा है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जब किसी का बुरा वक्त आता है तो जिस दांव से अभी तक जीत हासिल हो रही थी, वही शिकस्त का कारण बनने लगते हैं।
राष्ट्रीय समाचारपत्रों और सोशल मीडिया पर गौरक्षकों की आतंकी गतिविधियों का ताजा शिकार बने आर्यन मिश्रा की तस्वीरें संघ/भाजपा की फैलाई नफरत की कहानी को बयां कर रही हैं। जिसे ऐन चुनाव से पहले देखना हिन्दुत्वादी विचारधारा के लिए बड़ा झटका है।
सोशल मीडिया पर अब आम लोग भी कहते देखे जा सकते हैं कि, “उसके कत्ल पर मैं भी चुप था, मेरा नंबर अब आया। मेरे कत्ल पर आप भी चुप हैं, अगला नंबर आपका है।”
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)