हमारे दौर के लिए एक विलाप

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जिस तरह से एम्बुलेंस के साइरन ट्रैफिक के बीच से रास्ता बनाने के लिए चीख रहे हैं, हमें भी अब उन बहुत से नुकसानों और अपने सामूहिक दुख पर विलाप करने की जरूरत है जो घातक कोविड महामारी से लड़ते हुए अपनी संस्थाओं की गहरी नाकामी के चलते हमें उठाने पड़े हैं।

हमारे नौजवान, हमारे परिवारों के कमाने वाले सदस्य मर रहे हैं। आइये, उनके लिए विलाप करें। कोविड की पहली लहर गुजर जाने का जश्न मनाते समय प्रशासन की कामयाबी की डींगे हांकी गयीं। शासक यह भूल गये कि एक अरब से ज्यादा आबादी के इलाज की कोई भी योजना बनाने के लिए महामारी विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र के विद्वानों की दरकार होगी। इसके बजाय, सलाहकारों के भेष में चंद लोगों की एक मंडली हरकत करती नजर आयी जो दरवाजे के पीछे से झांकते विषाणु को भी नहीं देख सकी।

आइये, इस लड़ाई में शहीद हुए सैकड़ों डाक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए विलाप करें। अपनी क्षमता से ज्यादा तान दी गयी स्वास्थ्य व्यवस्था ने उन्हीं को शिकार बना लिया जिन्हें ‘‘जीवन रक्षक’’ बनना था। वह स्वास्थ्य व्यवस्था, जिसे लोगों की सेवक की तरह नहीं बल्कि धन और वैभव कमाने के एकमात्र क्षेत्र, एक नये किस्म के उद्योग के रूप में देखा जा रहा था, लड़ाई का नया मैदान बन गयी।

आइये हम विलाप करें कि हमारे हजारों बच्चे कोविड के चलते अनाथ हो गये हैं। समाज के सबसे नाजुक तबके पर सरकार की बेपरवाही की सबसे ज्यादा मार पड़ी है। संस्थागत ढांचे और प्रक्रियायें उनके भविष्य को रौंदने के लिए बेचैन हैं। उनकी जिंदगी को मिटाकर एक ऐसे वर्तमान के लिए रास्ता बनाया जा रहा है जो लोगों से कटा हुआ और अगम्य है।

इसके लिए रो लें कि हजारों शिक्षक इलेक्शन ड्यूटी के कारण कोविड से मर गये। अपनी संभावित चुनावी जीत के मद में चूर शासकों ने शिक्षकों को अग्रिम पंक्ति का योद्धा मानने से इंकार कर दिया है। अब उस मुआवजे के लिए उनकी जिंदगियों को सिक्कों से नापा और तौला जा रहा है जो उनके परिवारों को दिया जा सकता है और उनके परिवार अपने सामाजिक और भावनात्मक नुकसान और संभावित आर्थिक लाभ के बीच सौदेबाजी के लिए बाध्य हैं।

आइये, उन पंचायतों की फजीहत को रोयें जो विकेन्द्रीकृत लोकतंत्र की बुनियादी संस्थायें हैं पर जिनके खजाने खाली हैं और उन करोड़ों लोगों को कोई राहत या बुनियादी मदद दे पाने में असमर्थ हैं, जिनकी जीविका छिन गयी या जो बीमार हैं। लेकिन दूसरी ओर एक मन्दिर, जिसके लिए इतिहास को मेटकर अतीत की नयी इबारत लिखी जा रही है, और एक नये महल, जो आने वाली पीढ़ियों को परिभाषित करने का दंभ भरता है- के निर्माण के लिए निजी और सामाजिक खजानों को लुटाया जा रहा है।

आइये, उन किसानों के लिए शोक मनायें, जिनकी सूनी आंखें अपनी कड़ी मेहनत से उपजाई गयी सब्जी, फलों और अनाजों के बिना बिके ढेरों को एकटक देख रही हैं। दिल्ली की चहारदीवारी के प्रवेशद्वारों पर किसान अपनी सुरक्षा और स्वास्थ्य की परवाह न करके सिद्धांतों और संकल्प को तरजीह दे रहे हैं, और दूसरी ओर उन्हें बाजार के बंधनों से मुक्त करने का दावा करने वाली सरकार उनकी जिजीविषा और दृढ़ता को तोड़ने के लिए लगातार उनके खिलाफ बाधाएं खड़ी करने और उनकी बाड़ेबंदी करने में लगी है।

आइये, कोविड दवाओं के काले-बाजार को रो लें। जरूरी दवाएं गायब हो चुकी हैं और मरने वालों की बढ़ती संख्या के काले साये परिवारों को आतंकित कर रहे हैं। दंड से बेखौफ एक समांतर अर्थव्यवस्था ने नये लाभकारी बाजार को जन्म दिया है। इस नये काले स्वास्थ्य-बाजार का कोई बाल बांका नहीं कर सकता- न तो मानवता, न ही ईमानदारी।

आइये, रोयें कि दुधमुंहे बच्चों के मुंह से उनकी कोविड-पीड़ित माओं का दूध छीन लिया गया है- डर और गलत सूचनाओं ने उनके दिमागों पर गहरा आघात किया है। कोविड से प्रभावित इन परिवारों के भीड़ भरे घरों में इन भूखे बच्चों की कर्णभेदी आवाजें गूंज रही हैं।

आइये, उन परित्यक्त, कमजोर और लाचार बुजुर्गों के लिए छाती पीट-पीटकर रोयें जिन्हें बेयारोमददगार सड़कों पर छोड़ दिया गया है। सड़कों के किनारों पर और पुलों के नीचे, फुटपाथों पर और अपने खंडहर नुमा आशियानों में बूढ़ी औरतें और मर्द अपने उन्हीं हाथों को उठाकर रहम की भीख मांग रहे हैं जिन पर कभी उन्हें गर्व था। लेकिन इसके बावजूद उन्हें अपने उन हताश बच्चों से कोई शिकायत नहीं, जिन्होंने उन्हें त्याग दिया है। एक ऐसे वक्त में जहां ‘‘लोक कल्याण’’ और ‘‘जनता की खुशहाली’’ नव-उदारवादी शब्दकोश के गंदे शब्द बन चुके हैं- बुजुर्गों को ही सबसे पहले फालतू करार दिया गया है।

आइये लॉकडाउन के तथाकथित नियमों का मातम करें जिनके तहत शराब को ‘‘आवश्यक वस्तु’’ घोषित करके ठेकों को खोलने की इजाजत दी गयी। इस नियम ने गरीब-अमीर, पढ़े-लिखे और अनपढ़ सभी को एक लाइन में ला खड़ा किया है- शायद किसी और तरीके से न तो सरकार और न ही समाज इस काम को कर सकता था।

आइये स्वास्थ्य-व्यवस्था की नाकाम योजनाओं का मातम करें जिसकी अभिव्यक्ति भीड़-भरे अस्पतालों और काम में लगे चिकित्साकर्मियों के रूप में देखी जा सकती है। रोगी की गम्भीर स्थिति आज भर्ती के लिए मूलमंत्र और पासवर्ड बन चुकी है- अस्पतालों के कॉरिडोर, आईसीयू या आपरेशन थियेटर में घुसने के लिए गंभीरता के आधार पर रोगियों की छंटनी की जा रही है और बाहर चिंतित परिवार और दोस्त इंतजार करती भीड़ का हिस्सा हैं जिनके लिए यह अलगाव उतना ही दर्दनाक है जितना कि यह बीमारी जो अब हर किसी को चपेट में लेने पर आमादा है।

आइये गांव के उन स्वास्थ्यकर्मियों के लिए शोक मनायें जो लोगों के आक्रोश और हताशा के शिकार बन रहे हैं- जिनके अधिकांश को टीका नहीं लगा है, तनख्वाहें मामूली हैं और जो एक बेहद खराब तरीके से डिजाइन की गयी स्वास्थ्य-व्यवस्था के पैदल सिपाही हैं।

आइये, इस बात का मातम करें कि निजी अस्पतालों के बही-खातों में मौजूदा कमाई का स्तर कैसीनो (जुआघरों) के स्तर तक जा पहुंचा है, जहां विपदा के मारे हताश लोगों- स्वास्थ्य बीमा वाले और उसके बिना भी- की भीड़ लुटने के लिए तैयार खड़ी है। अपने प्यारों को बचाने के लिए लोग जीवन भर की कमाई फूंक रहे हैं और रोग-प्रतिरोधी क्षमता के अभाव में बार-बार होने वाली बीमारियों पर फलने-फूलने वाली खूनी अर्थव्यवस्था प्रशासनिक नियामकों और अंतरात्मा की आवाज जैसे नैतिक दबावों से पूरी तरह आजाद है।

आइये इसका शोक मनायें कि गली-मुहल्लों के झोलाछापों की भी चांदी हो गयी है। उनके गलत और तीर-तुक्का इलाज से हो सकता है कि तात्कालिक तौर पर कुछ राहत हो जाये लेकिन वे बीमारी का कोई वास्तविक इलाज नहीं कर सकते। अंततः हालात बिगड़ जाते हैं और बहुत से मरीजों को आपात-स्थिति में अस्पताल ले जाना पड़ता है।

आइये छाती पीट-पीटकर इसका मातम करें कि हमारे मुर्दों का बिना अंतिम विदाई और अंतिम संस्कार के निपटारा किया जा रहा है। इस तरह पेड़ से छांटकर अलग कर दी गयी शाख परिवार वालों की आत्मा पर अथाह गहरे भावनात्मक दाग छोड़ रही है। उनकी हताशा और गहरी है जो मुर्दों को लावारिस छोड़ रहे हैं। सामूहिक क्रिया-कर्म, लावारिस पड़ी लाशों और पानी पर तैरते लोथड़ों की छवियां मीडिया में बहती हुई निजी शयनकक्षों में घुस रही हैं और अंतरराष्ट्रीय बैठकों तक जा पहुंची हैं। 21 वीं सदी की एक महामारी ने मध्यकालीन दहशत का पुनर्सृजन कर दिया है।

आइये मातम करें, रोएं और चीखें क्योंकि काल्पनिक सांस्कृतिक श्रेष्ठताबोध और धार्मिक उन्माद पर निर्मित हमारे घर अब ढह रहे हैं। रास्ता बनाने के लिए चीखती एंबुलेंस की तरह हमें भी चीखना होगा और चीखते रहना होगा ताकि नये रास्ते खुल सकें।

(ए.आर.वासवी का यह लेख इंडियन एक्सप्रेस में 22.05.21 को प्रकाशित हुआ था। इसका हिंदी अनुवाद ज्ञानेंद्र सिंह ने किया है।)

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