विद्या वाणी का विलास है और शिक्षण संस्थाएं वैज्ञानिक अनुष्ठान के शाश्वत केंद्र, जहां से ज्ञान की किरणें विकीर्ण होकर मानवता के उज्ज्वल पक्ष को उद्भाषित करती हैं। शिक्षण संस्थानों के प्रयोगशाला में वैज्ञानिक दर्शन, समाज और राष्ट्र निर्माण के सूत्र खोजे जाते हैं। इनका विकास राष्ट्र के विकास और मानववादी दर्शन के विकास में सहायक होता है, शिक्षण संस्थानों के वातावरण से उस सामाजिक व्यवस्था के समस्त पहलुओं को आसानी से समझा जा सकता है। मगर अफ़सोस देश की शिक्षण संस्थाएं अब सरकार की राजनैतिक दलान बन चुकी हैं। स्कूल-कॉलेजों में सरकारी नीतियों और कार्यों को शिक्षा,शिक्षार्थी और शिक्षक को ध्यान में रखकर नहीं बनाया जाता है बल्कि सरकार के राजनैतिक लाभ के लिए नीतियों का निर्धारण और निष्पादन होता है। चुनावी लाभ को पाने के लिए सरकार स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों में नीतियों और नियमों को लागू करते हैं भले ही उससे शिक्षा को गहरी क्षति क्यों नहीं पहुंचे। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी हमारे देश की शिक्षण संस्थाएं विश्व की श्रेष्ठ शिक्षण संस्थाओं में शुमार नहीं होतीं। इसका मूल कारण यही है।
शिक्षा के तीन स्तम्भ हैं- शिक्षक, शिक्षार्थी और शिक्षण संस्थान। आज शिक्षक दिवस के अवसर पर मैं एक महत्वपूर्ण स्तम्भ ‘शिक्षक’ की परिचर्चा वर्तमान परिदृश्य में सरकार के नीतियों के आईने में करना चाहता हूं।
आज के वर्तमान परिदृश्य में राष्ट्रनिर्माता शिक्षकों के लिए राष्ट्र के सियासी शूरमाओं के पास “शब्दों की श्रद्धाजंलि” के आलावा कुछ भी नहीं है। देश के भविष्य निर्माताओं का भविष्य अंधेरे में दम तोड़ रहा है लेकिन राष्ट्र के भविष्य में आभा बिखेरती चकाचौंध चमक की चाह है कि बढ़ती ही जा रही है। “आत्मा का इंजीनियर” कहलाने वाले शिक्षक आज अपने आत्मसम्मान के सहारे किसी तरह अपने अस्तित्व को बनाये रखने का अथक प्रयास तो कर रहे हैं लेकिन सिवाय असफलता के कुछ हाथ लगता नहीं है।
आज जहां एक ओर विश्व के विकसित देशों में शिक्षकों को सबसे ज्यादा मान-सम्मान और सुविधाएं मिल रही हैं, कई देशों में वीवीआईपी व्यक्ति के रूप में शिक्षकों को रखा गया है, वहीं हमारे देश में सरकार के नीतियों के कारण शिक्षक सबसे निरीह प्राणी के रूप में स्थापित हो चुका है। आज यहां के शिक्षक जनगणना कर्मी, मतदान कर्मी, पशुगणना कर्मी, मध्याह्न भोजन प्रबन्धनकर्ता, पोलियो उन्मूलन कर्मी, विद्यालय सफाईकर्मी के रूप में जाने जाते हैं। आज भले ही शिक्षक दिवस के नाम पर कुछेक हजार रुपये के टिकट बांट कर कुछ धन इकठ्ठा कर लिया जाए या दिल्ली दरबार में सरकार द्वारा शिक्षकों को बुलाकर कुछेक ताम्रपत्र और प्रशस्ति पत्र बांट कर शिक्षकों को सम्मनित करने का ढोंग कर लिया जाये लेक़िन इससे वस्तुस्थिति पर पर्दा नहीं पड़ जाता है।
आज औसत सरकारी शिक्षक निर्धन, अभावग्रस्त एवं उपेक्षित है ये बात किसी से छिपी हुई नहीं है, ऐसे में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करना बेमानी और हास्यास्पद ही है। मैं मानता हूं कि वर्तमान बदलते शैक्षणिक माहौल में शिक्षकों में व्याप्त खामियां भी काफी दुखद है लेक़िन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर इसका निष्पक्ष होकर आकलन किया जाए तो इसके लिए भी सबसे अधिक जिम्मेदार सरकार की नीतियां, बदलते सामाजिक परिदृश्य की मानसिकता और अन्य कई कारण पहले दिखेगा और शिक्षक बाद में। आज आलम ये है कि शिक्षा के क्षेत्र में भी सरकार की नीतियां शिक्षा और बच्चों को ध्यान रखकर नहीं बनायी जाती बल्कि शैक्षणिक नीतियां भी वोट बैंक को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाती हैं।
आज शिक्षकों को अपने हक़ औऱ अपने सम्मानजनक जीवन के लिए हड़ताल, तालाबंदी,कार्य बहिष्कार, धरना-प्रदर्शन जैसे कार्यों को करना पड़ता है, व्यवस्था की बरसती लाठियों के सामने अपनी पीठ आगे करनी पड़ती है। इन सब के बाद भी सत्ता के सिंहासन पर विराजमान सम्राट शिक्षकों को धमकाते हैं।
आज बिहार की राजधानी पटना में शिक्षकों का आंदोलन ‘वेदना प्रदर्शन’ के रूप में हो रहा है और राज्य के मुखिया इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दमन के लिए दोयम दर्जे के हथकंडे अपना रहे हैं। जिस सभा स्थल का परमिशन शिक्षकों को प्राप्त था,वहां उन्हें पहुंचने से रोकने का असंवैधानिक कार्य किया जा रहा है। इसके बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय नीतीश कुमार जी शिक्षकों को धमकाते हुए उन्हें दया का पात्र साबित करने पर तुले हैं। माननीय मुख्यमंत्री जी आपको समझना चाहिए कि शिक्षक एक सभ्य समाज का सबसे स्वाभिमानी व्यक्ति होता है। आत्मसम्मान की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी होती है। शिक्षकों के प्रति झूठी सहानभूति का प्रदर्शन करने के बजाय उनके संवैधानिक अधिकारों को समझने का साहस जुटाइए। शिक्षकों को शोषण मुक्त होना सुनिश्चित कीजिए तभी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का वास्तविक दर्शन सम्भव है।
“समान काम, समान वेतन” के नाम पर सरकार के पास पैसे नहीं हैं और झोला भर-भर कर नीरव मोदी, माल्या जैसे लुटेरों को देश से बाहर भेजा जा रहा है। अपनी नीतियों और अक्षमताओं को छिपाने के लिए शिक्षा के निजीकरण की दुहाई दी जा रही है। जो पूंजीवाद को बढ़ावा देने और आने वाली नस्लों को निरक्षर व निकम्मा बनाने की नवीन योजना से इतर कुछ दिखती नहीं है। शिक्षकों को सड़कों पर पीटकर “भारत को विश्वगुरु” बनाने की मुहिम सरकार द्वारा बड़े ज़ोर शोर से किर्यान्वित की जा रही है।
आप भले ही शिक्षकों की जितनी आलोचना कर लें लेक़िन मेरे एक प्रश्न का उत्तर ज़रूर दें – “आज की श्रेष्ठ प्रतिभाएं इंजीनियर, डॉक्टर…वगैरह-वगैरह यहां तक कि चपरासी बनाना चाहते हैं लेक़िन शिक्षक बनना नहीं, आखिर क्यों?” अगर धोखे से या अति उत्साह में शिक्षक बन भी जाते हैं तो उसके जीवन में सीखने-सिखाने की लौ को ये व्यवस्था जल्द ही बुझा देती है और वह घिसी-पिटी प्रणाली का निरर्थक अंश मात्र बनकर रह जाता है।
(लेखक दयानंद स्वतंत्र टिप्पणीकार और शिक्षाविद हैं।)
सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कार्यशैली किसी से छिपी नहीं है।
फिर भी एक सिक्के के दो पहलू होते हैं