Friday, April 19, 2024

कोर्ट में अनर्गल आलोचनाओं को भी बर्दाश्त करने की क्षमता होनी चाहिए: प्रशांत भूषण

सवाल: आपने कहा कि आलोचना और कड़ी आलोचना कोर्ट की रक्षा करती है कोर्ट ने कहा कि आलोचना साफ सुथरी होनी चाहिए। उसे लक्ष्मण रेखा पार नहीं करनी चाहिए। तो क्या कोर्ट आलोचकों से आत्म अनुशासित होने की बात कह रही है? या फिर कोर्ट सार्वजनिक तौर पर बोलने पर उनसे बेहतर जजमेंट की अपील कर रही है? 

प्रशांत भूषण: वो दोनों काम कर रहे हैं। जब हम यह कह रहे हैं कि कोर्ट को अनर्गल आलोचनाओं को बर्दास्त करना चाहिए। तो मेरा यह मतलब नहीं है कि लोगों को अनर्गल आलोचनाएं करनी चाहिए। मैंने जो कहा वह यह कि अगर अनर्गल या गैर जरूरी आलोचना भी होती है और वह अपमानजनक और गाली देने की सीमा तक होती है तो उसे इस तरह से समझा जाना चाहिए कि इसके जरिये लोग क्या कहना चाहते हैं। लोग इस बात को चिन्हित कर सकते हैं कि आलोचना अपमानजनक और गलत है। कोर्ट की प्रतिष्ठा उसके फैसलों, कार्यवाहियों पर निर्भर करती है। यह इस पर निर्भर नहीं करती कि लोग क्या कहते हैं?

लोगों के कुछ कहने और बोलने पर कोर्ट की प्रतिष्ठा तभी प्रभावित होती है जब ऐसा लगता है कि इसमें साफ सुथरे और प्रामाणिकता का कोई चक्र है। क्योंकि कोई चीज केवल अनर्गल है या फिर पूरी तरह से गलत है अवमानना के जरिये उसे दबाने के लिए निंदा और अथारिटी को कम करके देखने के कानून के इस्तेमाल की कोशिश, बिल्कुल उल्टा नतीजा दे सकती है। और खासकर खतरनाक हो सकती है। क्योंकि यह ईमानदार विचार का गला घोंट देती है।

पिछले कुछ सालों में कोर्ट की भूमिका को लेकर यह मेरा प्रामाणिक मत रहा है। कुछ लोग इससे सहमत हो सकते हैं या नहीं भी हो सकते हैं। लेकिन इससे यह अवमानना के दायरे में नहीं आ जाता। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अवमानना का पूरा कानून खत्म हो जाना चाहिए लेकिन कोर्ट की निंदा का मामला खत्म होना चाहिए। 

सवाल: माफी न मांगने के पीछे कोर्ट आप की जिद और अहंकार को जिम्मेदार ठहराता है। यहां तक कि संवैधानिक अथारिटी के तौर पर एटॉर्नी जनरल ने आप से कोर्ट से माफी मांगने के लिए कहा। क्या आप यह सोचते हैं कि एक संस्था जिसका आप सबसे ज्यादा सम्मान करते हैं माफी न मांगने के जरिये उसको नीचा दिखाने का एक आधार दे देते हैं?

प्रशांत भूषण:एक शख्स को हमेशा कुछ स्वधर्म का अहंकार होना चाहिए। उस अर्थ में नहीं कि जब जजों के पास आप से माफ मंगवाने का जायज कारण हो और तब आप माफी मांगने से इंकार कर दें। स्वधर्म अहंकार का मतलब है कि कोई भी आप से जबरन माफी का दबाव नहीं डाल सकता है अगर उसके पास उसका कोई तार्किक कारण नहीं है।

अगर आपने कोई बात गलत नहीं कही है और आपने जो कहा है उसमें आपका पूरा विश्वास है तब आपका अहंकार इस तरह का होना चाहिए। आपका स्वधर्म ऐसा होना चाहिए कि आप केवल इसलिए बच कर नहीं निकल सकते क्योंकि वो आपके निकलने के लिए एक आसान रास्ते का प्रस्ताव दे रहे हैं। अपने को बचाने के लिए कुछ ऐसा नहीं कह सकते जो आपके विवेक और विश्वास के खिलाफ हो। किसी भी स्वाभिमानी, सत्य से प्यार करने वाले शख्स के लिए स्वधर्म अहंकार बहुत ज़रूरी है।

 सवाल: कोर्ट का फैसला कहता है कि हमला होने पर जज अशक्त हो जाते हैं। जज के प्रति व्यक्तिगत मंशा को पेश करना ही अवमानना है। लेकिन क्या यह संस्था और पद के सम्मान के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है कि अगर जजों को खुद की रक्षा के लिए अनुमति दी जाए और इस तरह से हमलों पर प्रतिक्रिया दें? 

प्रशांत भूषण:मेरी नजर में उन्हें (जजों) अपने खिलाफ हुई आलोचनाओं का जवाब देने में खुद ही सक्षम होना चाहिए। दूसरे भी इन टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया दे सकते हैं। और, वे ऐसा करते भी हैं। जहां तक मंशा का सवाल है, तो कई बार ऐसी मंशाएं होती हैं जिन्हें सभी लोग देख रहे होते हैं। उदाहरण के लिए, कई सारे ऐसे केस हैं जहां जजों की उपस्थिति उनके हितों से टकरा रही होती है फिर भी वे इन केसों को तय कर रहे होते हैं। 

सवालः क्या कोर्ट को बदनाम करने के मामले में अवमानना का केस शुरू करने के पहले व्यापक सलाह लेना जरूरी है? 

प्रशांत भूषण:सु मोटो या स्वत: संज्ञान में अवमानना का केस लेने से पहले फुल कोर्ट की मीटिंग ज़रूर होनी चाहिए। दूसरा, यह भी कि इस निर्णय के खिलाफ अपील की विकल्प होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 21 की हुई व्याख्या के मुताबिक एक अपील…..एक अपराध की अपील किसी का भी मौलिक अधिकार है। लेकिन इसके खिलाफ कोई अपील नहीं है। इसका पुनरीक्षण उसी बेंच के चैंबर को जाता है। 

सवालः एक ट्वीट तेजी के साथ शेयर किया जाता है। यह सैकड़ों या कहें हजारों टिप्पणियों को आमंत्रित करता है जिसमें मजाक से लेकर गालियों तक की विविधता रहती है। क्या अवमानना व्यवहारिक है? 

प्रशांत भूषण: सिद्धांतत: ऐसा (अवमानना) किया जा सकता है लेकिन ऐसा कर देना जनता के हित में नहीं होगा। क्योंकि जनता प्रामाणिक और साफ सुथरी टिप्पणी भी करना बंद कर देगी।

सवालः क्या सोशल मीडिया पर आने वाली टिप्पणियां जनमत और एक संस्था में विश्वास को परिलक्षित करती हैं?

प्रशांत भूषण:कुल मिलाकर ऐसा ही है। वहां कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो अपने निहित स्वार्थों के लिए कोर्ट की आलोचना या उस पर हमला करते हों। लेकिन समग्रता में ये सब जनता के दृष्टिकोण को ही दिखाता है। 

सवालः एक वरिष्ठ वकील और कोर्ट के एक अफसर के तौर क्या आपको अपने ट्वीट में अधिक नियंत्रित रहना चाहिए था?

प्रशांत भूषण: नहीं, मेरी मोटरसाइकिल वाली ट्वीट जो है …वह सिर्फ इस बात को रेखांकित करने के लिए था कि कोर्ट क्यों लाॅक डाउन में लाया गया है। इसके चलते मुकदमा दर्ज करने वालों को सचमुच में परेशानी हो रही है…..आप आम तौर पर कोर्ट द्वारा सुने जाने वाले केसों की संख्या देखिये। साथ ही वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये लाॅकडाउन में सुने जाने वाले केसों को देखिये। …यह मुश्किल से 10 प्रतिशत है और यह सुनवाई भी संतोषजनक नहीं है। 

सवालः क्या आपराधिक अवमानना केस की सुनवाई में बचाव पक्ष तकपूर्ण तरीके से बात रखने का पर्याप्त अवसर ले पाता है, खास कर जब व्यक्ति की आज़ादी पर खतरा मंडरा रहा हो? 

प्रशांत भूषण:यह सिर्फ व्यक्ति की आज़ादी का मसला नहीं, बल्कि उचित और साफ-सुथरी सुनवाई की भी बात है। हम ई-कांफ्रेंसिंग के जरिये समुचित सुनवाई नहीं कर सकते। 

सवालः यह जो अवमानना कार्रवाई है वह दो ट्वीट तक सीमित थी। जबकि आपके जवाब कोर्ट से जुड़े विभिन्न अतीत के मसलों को भी समेटे हुए थे। कोर्ट उन आरोपों को ‘जंगली’ और ‘लापरवाही भरा’ करार दिया। आपके जवाब को अवमानना को भड़काने वाला बताया गया। आपने ऐसा जवाब क्यों दिया? आप कोर्ट को क्या बताना चाह रहे थे? 

प्रशांत भूषण: मैं अपनी निष्कपटता दिखा रहा था। वही दिखता है। मैंने जो कहा उसमें मैं पूरा विश्वास करता हूं। एक ट्वीट में मैंने तीन बातें कही थीं। पहली, पिछले छह सालों में लोकतंत्र पूरी तरह से बर्बाद कर दिया गया। दूसरा, पिछले छह सालों में लोकतंत्र को नष्ट करने में कोर्ट ने सहयोग किया है या फिर कहिए उसकी इजाजत दी है। अंतिम, उस विध्वंस में आखिरी चार मुख्य न्यायधीशों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

मैंने अपने जवाब में इनमें से हर एक को यह दिखाने के लिए रखा है कि क्यों मुझे लगता है कि लोकतंत्र को पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया है। बोलने की आज़ादी पर हो रहे हमले को ही देखिये, नियामक संस्थाओं की बर्बादी को देखिये, मीडिया पर हमले को देखिए…और तब उसके बाद मैंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की भूमिका लोकतंत्र की रक्षा करना है, मानवाधिकारों की रक्षा करना है। 

सवालः आप दंडित किए जाने की इच्छा जाहिर कर रहे थे यह कहते हुए कि सत्य ही आप का रक्षक है। जबकि दूसरी तरफ श्री राजीव धवन (प्रशांत भूषण के वकील) ने कोर्ट से आपको दंडित नहीं करने का आग्रह कर रहे थे और कह रहे थे कि आपको शहीद न बनाया जाए। क्या आप और आपके वकील के बीच चिंतन में किसी तरह की असमानता थी? 

प्रशांत भूषण:नहीं। उन्हें लग रहा था कि यदि वे मुझे जेल भेज देते हैं तो इससे कोर्ट का और भी नुकसान होगा। यह उनका विचार था।

सवालः क्या आपने एक रुपये का जुर्माना भर दिया है?

प्रशांत भूषण:अभी तक नहीं। 

(प्रशांत भूषण का यह साक्षात्कार ‘द हिंदू’ में प्रकाशित हुआ था। इसका हिंदी अनुवाद सामाजिक कार्यकर्ता अंजनी कुमार ने किया है।)

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