नई दिल्ली। देश की राजनीति में आरक्षण का मुद्दा हमेशा सुर्खियों में रहता है। लेकिन चुनाव के समय यह मुद्दा और जोर-शोर से उठता है। विधानसभा चुनाव से पहले कर्नाटक में भी आरक्षण को लेकर माहौल गर्मा गया है। चर्चा का कारण मुस्लिम आरक्षण को खत्म करना और दलित आरक्षण को उप-वर्ग में बांटना है। राज्य में दलित और मुस्लिम सड़कों पर हैं और विपक्षी दल बोम्बई सरकार की लानत-मलानत करने में लगे हैं।
चुनाव के पहले राजनीतिक दल अलग-अलग समुदायों को अपने पक्ष में करने की चालें चलते हैं। इसी कड़ी में कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने मुस्लिमों को मिलने वाले 4 प्रतिशत आरक्षण को खत्म कर उन्हें 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस कोटा के तहत रखने का फैसला किया है। सरकार ने मुस्लिमों को ओबीसी सूची से बाहर कर दिया है। सीएम बोम्बई ने कहा कि इसे वोक्कालिगा और लिंगायत के बीच समान रूप से वितरित किया जाएगा। सरकार के इस फैसले का राज्य में व्यापक विरोध हो रहा है। कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई की इस घोषणा पर निशाना साधते हुए कहा कि पार्टी सत्ता में आने पर भाजपा सरकार के आरक्षण के फैसलों को रद्द कर देगी।
कर्नाटक में, पूर्व मुख्यमंत्री देवराज उर्स ने फरवरी 1977 में नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में मुसलमानों सहित 16 पिछड़े समूहों के लिए आरक्षण की शुरुआत की थी। तब इसे अदालत में चुनौती दी गई और सरकार के फैसले को बरकरार रखा गया। हालांकि, जब अक्टूबर 1986 में रामकृष्ण हेगड़े मुख्यमंत्री थे, तब सरकारी पदों और शिक्षा में 4 प्रतिशत का विशेष कोटा लागू हो गया था।
राज्य में मुस्लिमों को चार फीसदी आरक्षण को खत्म करने का मामला अभी शांत भी नहीं हुआ था कि सीएम बोम्बई ने दलित आरक्षण को चार उपवर्गों में बांटने की सिफारिश कर राज्य को अशांत कर दिया है। राज्य सरकार के फैसले के खिलाफ बंजारा समुदाय सड़क पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं। बीजेपी के झंडे जला रहे हैं, तो पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के घर पर प्रदर्शनकारियों ने पथराव तक किए हैं।
दलितों के आरक्षण को चार भागों में बांटने की सिफारिश बोम्बई सरकार के गले की फांस बनती जा रही है। बीजेपी ने ये फैसला अपने फायदे को ध्यान में रखकर किया था। लेकिन अब लगता है बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ सकता है।
कर्नाटक में दलितों की आबादी लगभग 20 फीसदी है। राज्य में दलितों को 15 फीसदी आरक्षण मिल रहा था। बीजेपी ने पिछले साल दलितों के आरक्षण को 15 से बढ़ाकर 17 फीसदी कर दिया है। सरकार के इस फैसले से दलित खुश थे, लेकिन 24 मार्च को दलितों के आरक्षण को चार हिस्सों में बांटने पर बंजारा समुदाय सड़क पर उतर आया है।
दरअसल, कर्नाटक सरकार ने यह फैसला न्यायमूर्ति एजे सदाशिव आयोग की रिपोर्ट के आधार पर किया है। दलित समुदाय को मिल रहे 17 प्रतिशत आरक्षण में 6 प्रतिशत शेड्यूल कास्ट (लेफ्ट) के लिए, 5.5 प्रतिशत शेड्यूल कास्ट (राइट), 4.5 प्रतिशत टचेबल्स के लिए और बाकी बचा एक प्रतिशत बाकियों के लिए रखा जाए।
बंजारा समुदाय को 4.5 फीसदी कोटे में रखा गया है। बंजारा समुदाय एससी आरक्षण का सबसे बड़ा लाभार्थी है। पहले की आरक्षण प्रणाली में उन्हें 10 फीसदी तक लाभ मिल रहा था, इसीलिए वे बीजेपी सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं।
गृहमंत्री अमित शाह ने मुस्लिमों के आरक्षण को खत्म करने के फैसले का बचाव करते हुए कहा था कि “धर्म के आधार पर आरक्षण देने का संविधान में कोई प्रावधान नहीं है। कांग्रेस सरकार ने अपनी तुष्टिकरण की राजनीति के लिए ऐसा किया और अल्पसंख्यकों को आरक्षण दिया।”
1947 से पहले का आरक्षण
भारत और विदेश में समाज के पिछड़े, कमजोर और उपेक्षित तबकों को लंबे समय से आरक्षण दिया जाता रहा है। भारत में आरक्षण देने का कानून ब्रिटिश भारत में भी था। 1909 के भारत शासन अधिनियम में सामान्य और औपचारिक आरक्षण प्रणाली लागू की गई थी। ब्रिटिश राज के दौरान “पिछड़ी जाति” शब्द के तहत “ब्राह्मणों और अन्य अगड़ी जातियों को छोड़कर सभी” को “पिछड़ी जातियों” के रूप में वर्गीकृत किया गया था।
निम्न वर्गों के बीच कोई धार्मिक अलगाव नहीं था। आरक्षण प्रणाली में अगला बड़ा संशोधन जून 1932 में गोलमेज सम्मेलन से आया, जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड ने सांप्रदायिक एवार्ड प्रस्तुत किया, जो मुसलमानों, सिखों, भारतीय ईसाइयों, एंग्लो-इंडियन और यूरोपीय लोगों के लिए अलग-अलग मतदाता प्रतिनिधित्व प्रदान करता था।
भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद पूरी आरक्षण प्रणाली को समाप्त कर दिया गया था। संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने साम्प्रदायिक अधिनिर्णय पर गांधीजी के समान तर्कों का हवाला देते हुए धार्मिक आरक्षणों का स्पष्ट रूप से खंडन किया, जबकि अन्य ने अंबेडकर के समान बचावों का हवाला देते हुए उनका समर्थन किया। जैसे-जैसे चर्चा आगे बढ़ी, यह निर्णय लिया गया कि अनुसूचित जाति (तब दलित वर्ग के रूप में जाना जाता था) और अनुसूचित जनजाति (तब आदिवासी जनजाति के रूप में जाना जाता था) आरक्षण के योग्य हैं।
हालांकि, संविधान सभा ने मुसलमानों को विशेष आरक्षण देने की ब्रिटिश नीति को खारिज कर दिया। इसके अलावा, ‘पिछड़ी जातियों’ की शिथिल परिभाषित ब्रिटिश अवधारणा को ‘दलित वर्ग’ और ‘आदिवासी जनजातियों’ की कड़ी परिभाषित अवधारणाओं द्वारा प्रतिस्थापित किया गया, जिसमें जनजातियों की एक सूची शामिल थी जिसे केंद्र सरकार नामित करेगी।
रिपोर्ट में तर्क दिया गया है कि यह कहना गलत होगा कि ब्रिटिश “पिछड़े वर्ग” की अवधारणा को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया था। बल्कि, इसे काफी हद तक कमजोर कर दिया गया था और इसे राज्य सरकारों के विवेक पर छोड़ दिया गया था। उपयुक्त आरक्षणों को पहचानना, परिभाषित करना और लागू करने के लिए राज्य सरकारें पूरी तरह से जिम्मेदार थीं।
हालांकि, केंद्र सरकार की नौकरियों के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट के कार्यान्वयन के बाद से मुसलमानों के बीच अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की पहचान की गई है, और अन्य धर्मों के पिछड़े समूहों के साथ-साथ ओबीसी आरक्षण का लाभ उन्हें दिया गया है।
अनुच्छेद 340 राज्य को “सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति की जांच करने के लिए” एक आयोग बनाने का अधिकार देता है। अब तक, राष्ट्रीय स्तर पर दो ऐसे आयोग नियुक्त किए गए हैं: काका कालेलकर आयोग और बीपी मंडल आयोग। 1955 में, प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग (काका कालेलकर आयोग) ने अपनी रिपोर्ट जारी की।
आयोग ने निचली जाति की स्थिति को पिछड़ेपन के निर्धारण कारक के साथ-साथ अन्य कारकों जैसे शिक्षा, आय स्तर और सार्वजनिक रोजगार में प्रतिनिधित्व पर जोर दिया। आयोग की रिपोर्ट में मुसलमानों (और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों) के बीच विशिष्ट जातियों/समुदायों को पिछड़ा के रूप में चिंहिंत किया था।
द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग (बीपी मंडल आयोग, 1980) ने जाति मानदंड का भी उपयोग किया, लेकिन एक जाति या किसी सामाजिक समूह को “पिछड़े” के रूप में निर्धारित करने के लिए उपयोग किए जाने वाले मूर्त संकेतकों में जाति पदानुक्रम में निम्न स्थिति, विवाह की कम आयु शामिल थी।
सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों में मुसलमानों के लिए आरक्षण?
भारत के संविधान में धर्म आधारित आरक्षण का प्रावधान नहीं है। लेकिन पिछड़ा वर्ग में शामिल मुसलमान कई राज्यों और संघीय सूची में सरकारी पदों पर आरक्षण के हकदार हैं। उदाहरण के लिए, बिहार में अंसारी, मंसूरी, इदरीसी और धोबी जैसे कुछ मुस्लिम समूह पिछड़े वर्ग के तहत आरक्षण के पात्र हैं, जो अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का हिस्सा है।
धर्म-आधारित आरक्षण लागू करने वाला पहला राज्य केरल
1936 में केरल, जो तब त्रावणकोर-कोचीन राज्य था, धर्म-आधारित आरक्षण लागू करने वाला पहला राज्य बना। 1952 में 45 प्रतिशत आरक्षण में ओबीसी और मुस्लिम भी शामिल थे। 1956 में केरल के पुनर्गठन के बाद आरक्षण का अनुपात बढ़ाकर 50 कर दिया गया, जिसमें ओबीसी के लिए 40 प्रतिशत और मुस्लिमों को 10 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ एक उप-कोटा लागू किया। केरल में सभी मुसलमानों को उनकी सामाजिक या आर्थिक स्थिति की परवाह किए बिना ओबीसी के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
2007 में एक अध्यादेश के साथ, तमिलनाडु सरकार ने मुसलमानों और ईसाइयों के लिए आरक्षण दिया। और बाद में मुसलमानों और ईसाइयों के लिए 3.5 प्रतिशत आरक्षण आवंटित किया।
पश्चिम बंगाल सरकार ने 2010 में रंगनाथ मिश्रा समिति की सिफारिशों के आधार पर शिक्षा, व्यवसाय और आजीविका के मामले में पिछड़े वर्ग के रूप में वर्गीकृत मुसलमानों के लिए 10 प्रतिशच कोटा की घोषणा की थी।
धार्मिक अल्पसंख्यकों (मुस्लिम या ईसाई) के शैक्षणिक संस्थानों में मुसलमानों या ईसाइयों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण है। कई मुस्लिम समूहों को केंद्र सरकार द्वारा पिछड़े मुसलमानों के रूप में नामित किया गया है, जिससे वे आरक्षण के पात्र हो गए हैं।