Wednesday, April 24, 2024

फेसबुक की सलीब पर टंगा लोकतंत्र

वाॅल स्ट्रीट जर्नल ने एक बार फिर फेसबुक की वह रिपोर्ट दिया है। जो भारत की राजनीतिक पार्टियां भाजपा और कांग्रेस द्वारा दिये गये विज्ञापन के खर्च को बताता है। फरवरी, 2019 से अब तक भाजपा ‘सामाजिक मुद्दों, चुनाव और राजनीति’ के मद में अकेले 4.61 करोड़ रूपये फेसबुक पर विज्ञापन के मद में खर्च कर चुकी है। इसमें दो कम्युनिटी पेज हैं जिसका पता भाजपा, आईटीओ, दिल्ली का है। ये हैंः ‘माई फर्स्ट वोट फाॅर मोदी- 1.39 करोड़, ‘भारत के मन की बात- 2.24 करोड़ रूपया’। तीसरा, न्यूज़ और वेबसाइट है। इसका नाम ‘नेशन विद नमो’ है और खर्च 1.28 करोड़ रूपया है। भाजपा के सांसद के नाम से भी एक पेज है जिसका खर्च 0.65 करोड़ रूपया है। इसमें से कम्युनिटी पेज जनवरी, 2019 से शुरू हुए हैं। और, ये तीनों पेज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रोमोशन से जुड़े हुए हैं।

इन खर्चों को भाजपा के इन विज्ञापनों से मिला देने पर कुल 10.17 करोड़ रूपया हो जाता है जो ऊपर के दस विज्ञापन दाताओं के खर्च का 64 प्रतिशत बैठता है। कांग्रेस पार्टी का खर्च 1.84 करोड़ है और आम आदमी पार्टी ने 69 लाख खर्च किये हैं। ये विज्ञापन फेसबुक से जुड़े एप पर भी होते हैं। यहां यह ध्यान देने की बात है कि इन राजनीतिक पार्टियों के फेसबुक विज्ञापन खर्च डेली हंट और फ्लिपकार्ट जैसी कंपनियों जो क्रमशः लगभग एक करोड़ और 86.43 लाख रूपये का विज्ञापन दी हैं, को काफी पीछे छोड़ दिया है।-स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस, 27 अगस्त, 2020। फेसबुक का व्यवसायिक हित भाजपा के साथ किस तरह जुड़ा हुआ है उसे देखा जा सकता है। यह व्यवसायिक हित और भी मजबूत तभी बन सकता है जब भाजपा की राजनीतिक स्थिति भी मौजूद है। इन हितों के लिए दोनों की एक दूसरे के साथ घुमावदार वाली पकड़ है जिसमें आपको सिर्फ दूरी का अहसास होता रहे, और फेसबुक एक निरपेक्ष मीडिया जैसा दिखे।

यदि हम भाजपा सरकार और पार्टी के पुराने समय के विज्ञापनों को याद करें, तब इससे स्थिति और साफ होगी। दिसम्बर, 2018 में भाजपा सरकार के मंत्री राज्य वर्धन राठौर ने लोक सभ में एक प्रश्न के जवाब में बताया था कि केंद्र सरकार ने इलेक्ट्राॅनिक, प्रिंट और दूसरे माध्यमों में 2014-15 के दौरान 5,200 करोड़ रूपया विज्ञापन पर खर्च किया है। जनवरी, 2019 में अमूमन प्रत्येक मीडिया की मुख्य खबर इस तरह बनी थी: क्या 2019 के चुनाव के मद्देनजर बीजेपी सरकार 10,00,00,00,00,000 रूपया खर्च करने वाली है। यह संख्या एक लाख करोड़ है जो वित्तीय घाटा, किसानों को राहत और अन्य मदों में खर्च की घोषणा के संदर्भ में था। लेकिन जैसे ही चुनाव आया, ये अंक रूपया बनकर विज्ञापनों में ढलता गया और मोदी के आसमान छूते फोटोग्राम का हिस्सा बन गये।

यह खबर उस रायटर के माध्यम से आयी और वायरल हो गई थी। बहरहाल, सेंटर फाॅर मीडिया के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 27,000 करोड़ रूपये खर्च किये। यह चुनाव दुनिया के स्तर का सबसे महंगा चुनाव था। लोकतंत्र पहले से अधिक महंगा हो गया था। इस चुनाव में कुल खर्च का लगभग 12,000 से 15,000 करोड़ रूपये सीधे वोटर को दिया गया था। लगभग 25,000 करोड़ रूपया विज्ञापन पर खर्च हुए थे। अन्य खर्च अलग से थे। और कुल खर्च का 45 प्रतिशत हिस्सा भाजपा ने खर्च किया था।-स्रोत, स्क्राॅल, 4 जनवरी, 2020। इन खर्चों में कांग्रेस और अन्य पार्टियों की हिस्सेदारी थी और वे कुल मिलाकर भाजपा की बराबरी में खड़े थे। इस तरह भारत के लोकतंत्र को गढ़ा जा रहा था।

बाजार में नैतिकता के सवाल की कोई प्रासंगिकता है, उसका कोई मूल्य है? आजकल नैतिकता इसी सवाल के संदर्भ में समझी जा रही है। हालांकि इस बाजार के भी कुछ सरकारी उसूल बने हुए हैं जिसमें अश्लीलता के अलावा भी कई प्रावधान हैं। लेकिन यह तो किताबी बात है, जब किसी को दबोचने की जरूरत होगी, प्रावधान किताबों से जरूर बाहर आ जायेंगे, एक दम से वर्दी पहनकर आपको कोर्ट के सामने पेशकर आपकी ऐसी तैसी कर जायेंगे। बहरहाल, बात नैतिकता की है। बाजार में नैतिक होना कितना जरूरी है? आज का जो समाज है, वह बाजार पर आधारित है। खरीद-फरोख्त, इसके लिए नीति, विज्ञापन, मांग और आपूर्ति, मुद्रा और बैंक.….यही सब तो है। यह काॅमन सेंस बन चुका है कि ये पार्टियां धनिकों के लिए काम करती हैं, यह साफ-सुथरी सच्चाई है।

बाकी जो बचा वह पार्टियों के वे वायदे हैं जिसका एक हिस्सा पूरा हो जाए, महंगाई थोड़ी कम हो जाए, नौकरी थोड़ी बढ़ जाए, किसान को बैंक से कुछ नगद मिल जाए या ऋण माफी हो जाये, कुछ पेंशन वगैरह आ जाए, …और क्या चाहिए जनता को अपने हिस्से। यह जनता के साथ पार्टी का लेन-देन बन चुका है। यह भी बाजार बन चुका है। बाजार विज्ञापनों से अपनी छाप और एकाधिकार बना लेने के लिए हर संभव कोशिश करता है। क्या यह भी नैतिकता से परे बात है?

यह बाजार ही तो है जिसमें तर्क उछल उछलकर आम जन को मुतमइन कर देने को आतुर हैं कि यह तुमने किया था, अब यह मुझे भी करना है; तुमने कौन से बड़े पुण्य किये थे, मुझे भी अपने हिस्से का काम करने दो, …वगैरह। जब यह सब देखकर, आप हताश होते हैं तो क्या सोचते हैं? यह सब पूंजीपतियों का खेल है, मतलब, बाजार का खेल है। यानी आप मानते होते हैं, या यूं कहे कि मानने को मजबूर होते हैं कि देश बाजार में बदल चुका है, समाज, राजनीति, …सब कुछ! हमारे बहुत से बुद्धिजीवी इसे ‘न्यू लो’ नाम देते हैं जिसका मोटा-मोटी अर्थ निकाला जाए तो यह होगाः अपने दौर में पतन की इंतहा भी हम देख लें।

मार्क्स ने राज्य और उसकी सरकार को बाजार, पूंजीपतियों का प्रबंधक कहा था, उसे भी बाजार नहीं कहा था। बाद के समय में, लेनिन ने इसे और भी स्पष्ट किया। राॅल्फ मिलिबैंड, हरोल्ड लाॅस्की, सात्र, ग्राम्शी, अल्थूसर, जेम्सन से लेकर टेरी ईगल्टन तक और भारत में गांधी, आम्बेडकर, भगत सिंह, लोहिया, चारू मजूमदार जैसे राजनीतिज्ञों ने बार-बार इस बाजार और जनता के बीच के संबंधों में राज्य की भूमिका पर मौलिक सवाल उठाया और इनका भारतीय राजनीति पर गहरा असर भी पड़ा। आज आप इनमें से किसी एक को चुन लें और उसकी राज्य के संदर्भ में कही बात को लिखने, बोलने या व्यवहार में उतारने का प्रयास करें, …आपको बाजार व्यवस्था से चुनौतियां मिलनी शुरू हो जायेंगी।

बाजार राज्य की नैतिकता में घुसपैठ ही नहीं, उससे अधिक की भूमिका में आ चुका है। समाज खुद को राज्य के ऊपर दिखाता है। लेकिन यह भी सच है कि वह उसके एक हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है जबकि दूसरे हिस्से को इस प्रतिनिधित्व का भ्रम पैदा करता है। यह भ्रम अपनी नीतियों और कल्याणकारी कामों से करता है। कानून को लागू करते समय उसकी समानता का भ्रम पैदा करता है और यह भ्रम समानता व्यवहार के माध्यम से करता है। यानी समाज बाजार की नैतिकता और प्रभाव से थोड़ा और दूर होता है। संस्कृति तीसरे पड़ाव पर होती है जिसमें राज्य हस्तक्षेप करता है जिससे कि वह बाजार के सीधे खुर पेंचों से दूर रहे। यह एक ऐसा क्षेत्र होता है जहां अधिक छेड़छाड़ बाजार के मूल्यों के लिए, राज्य और समाज को बने रहने के लिए खतरा बन सकता है। यह विचार, मूल्य, जीवन बोध, भाषा, अनुभव, इतिहास, …से जुड़ा होता है।

बाजार के नियम यहां छनते हुए आते हैं। इसके लिए राज्य संभालते हुए राजकीय सांस्कृतिक संस्थानों, मंचों आदि का निर्माण करता है। यह पढ़ते हुए लग सकता है कि यह क्लासिक रचनाओं का दुहराव है। लेकिन, यह बात नहीं है। यह हमारे समाज की वह स्थिति है जहां से हम इस बात को क्लासिक जैसा देखने-पढ़ने लगे हैं। एक लोकतांत्रिक राज्य का अर्थ राज्य, समाज, संस्कृति और बाजार का एकीकरण नहीं है। बाजार और राजनीति दोनों के काम करने का व्यवस्था एक हो नहीं सकती। और, यदि यह हो रहा है तब पूंजी के नियंत्रण वाला राज्य लोकतंत्र की सबसे पतनशील, प्रतिक्रियावादी और हिंसक व्यवस्था में बदल रहा है। अपने राज्य को तब लोकतंत्र की परिभाषा में देखने से सिर्फ निराशा हाथ आयेगी और यह हमारे समाज और संस्कृति, विचार और व्यवहार के लिए खतरनाक साबित होगा। हमें अपने राज्य को बाजार की नैतिकता से नहीं, समाज, संस्कृति और राजनीति की परम्पराओं, अनुभवों और भविष्य को ध्यान में रखते हुए परखना होगा। 

(अंजनी कुमार लेखक और एक्टिविस्ट हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles