Wednesday, April 24, 2024

असर (ASER) की रिपोर्ट: शिक्षा के क्षेत्र में बेटा-बेटी के बीच भेदभाव अभी जारी

देश में अभी भी लड़कों की तुलना में लड़कियों की शिक्षा पर कम जोर दिया जा रहा है। असर की चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है। असर की अतिरिक्त रिपोर्ट के मुताबिक देश में लड़कियों की तुलना में 15-25% अधिक लड़के निजी स्कूलों में पढ़ने जाते हैं। वहीं प्राथमिक विद्यालयों में लड़कियों की तुलना में लगभग 52 लाख अधिक लड़के पढ़ने जाते हैं। मतलब साफ है कि लगभग हर कोई अपनी बेटियों को स्कूल तो भेज रहा है, लेकिन अपने बेटों को शिक्षित करने पर अधिक ‘निवेश’ कर रहा है।

ग्रामीण स्कूलों के लिए असर 2022 की रिपोर्ट अभी सामने आई है। रिपोर्ट में 2006 और 2018 के बीच निजी स्कूलों में ग्रामीण बच्चों की संख्या में लगभग 8% की वृद्धि हुई है। लेकिन फिर 2022 तक लगभग इतनी ही कम हो गई। महामारी से पीड़ित परिवार फीस का भुगतान नहीं कर सके। आंशिक रूप से कई छोटे निजी स्कूल बंद हो गए।

वहीं अरुणाचल प्रदेश, असम, लद्दाख, मेघालय और नागालैंड में कक्षा 6 से ऊपर तक लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या अधिक है। बंगाल समेत छह और राज्यों में माध्यमिक स्तर पर ऐसा है और अन्य छह राज्यों में उच्च माध्यमिक स्तर पर भी ऐसा है। बचपन में बेहतर शुरुआत के बावजूद, बाद में अधिक लड़के स्कूल से बाहर निकल रहे हैं। आमतौर पर कई बच्चे कमाई करने के दबाव में स्कूल की पढ़ाई छोड़ रहे हैं। वहीं लड़कियां पढ़ाई छोड़कर घरेलू श्रम में लग जाती हैं।

कुछ हद तक सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन भी दिखता है। फिर भी ऐसे कई राज्य हैं जहां लड़कियों का नामांकन अभी भी हर स्तर पर कम है। गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में लड़कियों का नामांकन 10% से अधिक कम है। असर ने पाया कि सरकारी स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति तमिलनाडु में 88.6% से घटकर, बिहार, एमपी और यूपी में 60% से कम हो गई है।

75% से कम का कोई भी आंकड़ा (बारह राज्यों में पाया गया) आदतन अनुपस्थिति, ड्रॉपआउट या ‘ग्होस्ट’ नामांकन (झूठे नामांकन) की ओर इशारा करता है। पदों के रिक्ति और छुट्टियों के कारण स्कूलों से शिक्षक भी गायब रहते हैं। 2020 में, पूरे भारत में 17.1%, सिक्किम में 57.5% और झारखंड और बिहार में लगभग 40% शिक्षकों के पद रिक्त थे। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के नहीं होने के कारण बच्चे निजी स्कूलों में जा रहे हैं।  

पश्चिम बंगाल में कम से कम 73.9% बच्चे फीस देकर निजी ट्यूशन लेते हैं। लेकिन बंगाल में भी निजी स्कूलों में प्राथमिक छात्रों का अनुपात सबसे कम (5.8%) है, इसके बाद ओडिशा (7.3%) और गुजरात (8%) का स्थान है। यह अनुपात पंजाब में 40.4% और यूपी, हिमाचल, महाराष्ट्र, केरल और कई पूर्वोत्तर राज्यों में 30% या उससे अधिक है।

जितने कम बच्चे निजी ट्यूशन लेते हैं, उतना अधिक वे निजी स्कूलों में जाते हैं, वह भी भारी कीमत पर। लेकिन अक्सर देखा गया है कि निजी टयूशन का बच्चों को बहुत कम या कोई लाभ नहीं होता है। निजी स्कूल, भव्य इमारतों के साथ बेहतर स्टाफ वाली सुविधाओं का बोध कराते हैं।

महामारी के दौरान ऐसे कई स्कूलों के बंद होने से उनके मालिकों के अलावा किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ। अभिजीत विनायक बनर्जी कहते हैं कि इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि कर्मचारियों, संसाधनों और सरकारी प्रोत्साहन में न्यूनतम वृद्धि के साथ, राज्य-सहायता प्राप्त स्कूल “कम कीमत वाले निजी स्कूलों” से बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। वास्तविकता यह है कि राज्यों की शिक्षा प्रणाली में जो पतन आया है वो दिखावटी अलंकरण और प्रशासन के ठुलमुल रवैये के कारण हो रहा है।

पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया के पास ओडिशा के जाजपुर में ग्रामीण समुदायों के बारे में एक रिपोर्ट आई है। केंद्र सरकार के (SATH) सस्टेनेबल एक्शन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग ह्यूमन कैपिटल (ऐक्रोनिम के रूप में सुन्दर लगने वाले) प्रोग्राम के लिए ओडिशा, झारखंड और मध्य प्रदेश गिनी-पिग राज्य हैं। पारी की रिपोर्ट है कि साथ के तहत, ओडिशा में लगभग 9,000 ‘सब-स्केल’ स्कूल बंद कर दिए गए है। नीति आयोग की अस्पष्ट रिपोर्ट के हवाले से, मध्य प्रदेश में यह संख्या 20,000 और झारखंड में 6,000 है।

जाजपुर में कई सारे गांवों ने अपने स्कूलों को खो दिया। निकटतम प्राथमिक विद्यालय अब 3.5 किलोमीटर दूर हो सकता है। (शिक्षा का अधिकार अधिनियम एक किलोमीटर के भीतर प्राथमिक विद्यालयों और तीन किलोमीटर के भीतर उच्च प्राथमिक विद्यालयों को निर्धारित करता है।) स्कूल का रास्ता अक्सर सूने वन और सड़कों से होकर गुज़रता है। कुछ पुराने छात्र जर्जर साइकिल का उपयोग करते हैं। बाकी छात्र पैदल चलते हैं। जब वे लौटते हैं तब वे खेलने या पढ़ने करने के लिए बहुत थके हुए होते हैं। कई कम उम्र के बच्चे तो पूरी तरह से स्कूल छोड़ चुके हैं।

एनईपी (NEP) और नीति आयोग के सौजन्य से इन आदिवासी और दलित समुदायों को प्रभावी ढंग से अशिक्षित किया जा रहा है। शिक्षा के भूखे परिवार इन राज्य प्रायोजित ड्रॉपआउट्स के लिए निजी कोचिंग पर अपनी मेहनत की कमाई खर्च कर रहे हैं। साथ की नीति का घोषित उद्देश्य “गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की पहुंच और प्रसार के बीच संतुलन बनाना” है। लेकिन वास्तव में, छात्रों को शिक्षा तक पहुंच से वंचित किया जा रहा है और उसकी गुणवत्ता को कमजोर किया जा रहा है।

बता दें कि असर एक वार्षिक सर्वेक्षण है जिसका उद्देश्य भारत में प्रत्येक जिले और राज्य के लिए बच्चों के नामांकन और बुनियादी सीखने के स्तर का विश्वसनीय अनुमान प्रदान करता है। असर भारत के सभी ग्रामीण जिलों में 2005 से हर साल आयोजित किया जाता है।

(सुकांत चौधरी जादवपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एमेरिटस हैं। अंग्रेजी से अनुवाद कुमुदिनी पति)(खबर इंडियन एक्सप्रेस से ली गई है।)

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