उधर डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका के राष्ट्रपति पद की कमान संभाली, इधर भारतीय शेयर बाजार में भगदड़ मचनी शुरू हो गई। बीएसई सेंसेक्स 1200 अंक से ज्यादा गिरकर 6 महीने के निचले स्तर पर पहुंच गया। फ़ूड चैन में स्टार्टअप कंपनी ज़ोमेटो के शेयर लगातार दो दिन भरभराकर गिरते रहे।
भारतीय युवाओं को सप्ताह में 70 घंटे काम करने की सलाह देने वाले नारायण मूर्ति की आईटी फर्म इनफ़ोसिस भी इसका शिकार बनी।
सत्ताधारी दल भाजपा और उसकी आईटी सेल ने अमेरिकी चुनाव में ट्रम्प की जीत पर काफी कुछ दांव पर लगा रखा था। पता नहीं उन्हें किस आधार पर यह भरोसा बना हुआ था कि भारतीय मूल की कमला हैरिस के बजाय डोनाल्ड ट्रम्प भारतीय हितों के लिए बेहतर साबित होंगे।
उनके उत्साह को देखकर ऐसा जान पड़ रहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ट्रम्प की दोस्ती से भारतीय अर्थव्यवस्था और भूराजनैतिक स्तर पर जबर्दस्त बूस्ट मिलने जा रहा है।
लेकिन अपने राष्ट्रपति पद के शपथ ग्रहण समारोह में ट्रम्प ने निजी तौर पर जिन देशों के प्रमुखों को आमंत्रित किया, उसकी सूची को देखते ही समझ आने लगा था कि इस बार के ट्रम्प को समझने में भारतीय दक्षिणपंथी ताकतों से भारी भूल हो गई।
इस सूची में तो पीएम मोदी का जिक्र तक नहीं था। दिसंबर के आखिरी सप्ताह के दौरान भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर के एक सप्ताह तक अमेरिका में डेरा डालने को लेकर राजनीतिक हलकों में तरह-तरह की अटकलें सुनने को मिली।
बीजेपी के वयोवृद्ध नेता, सुब्रमणियम स्वामी ने तो साफ़ शब्दों में यहां तक कह दिया था कि प्रधानमंत्री मोदी के लिए शपथ समारोह में निमंत्रण हासिल करने के लिए विदेश मंत्री को भेजा गया है।
समारोह में पीएम मोदी को आमंत्रण तो नहीं मिला, पर विदेश मंत्री के लिए ट्रम्प की टीम ने यह प्रस्ताव अवश्य भिजवा दिया। लेकिन शपथ ग्रहण से ठीक एक दिन पहले भारत के सबसे अमीर रिलायंस समूह के मालिक मुकेश अंबानी और उनकी पत्नी के साथ डोनाल्ड ट्रम्प की मुलाक़ात की तस्वीरें सभी भारतीय समाचारपत्रों की सुर्खियां बनी हुई हैं।
गोदी मीडिया को काटो तो खून नहीं, इसके बावजूद अपनी खिसियाहट को छिपाने के लिए वह बता रही है कि राष्ट्रपति ट्रम्प के भाषण के दौरान भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर चूंकि पहली पंक्ति में बिठाए गये थे, लिहाजा समझ लेना चाहिए कि ट्रम्प प्रशासन में भारत की इज्जत कितनी अधिक बनी हुई है।
अब इनके अक्ल पर तो बलिहारी जाने का जी चाहता है, लेकिन अमेरिकी हितों के समर्थन की बात करने वाले ट्रंप जब अमेरिका के भीतर तेल और गैस उत्पादन को अधिकतम करने की घोषणा करते हुए ‘ड्रिल बेबी ड्रिल’ का नारा देते हैं, तो इसका सीधा असर मोदी सरकार के मंत्रिमंडल की जुबान से अपने आप निकलने लगता है।
बता दें कि तेल और गैस के मामले में आज अमेरिका पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो चुका है। यदि अमेरिका अंधाधुंध तेल उत्पादन को बढ़ाता है तो उसे बेचने के लिए बाजार चाहिए। चीन और भारत इस समय दुनिया में तेल के सबसे बड़े आयातक देश हैं।
अमेरिका और चीन के बीच की प्रतिद्वंदिता पिछले एक दशक के अपने चरम स्तर पर है। चीन भले ही फिलहाल अमेरिका से खुली प्रतिद्वंदिता नहीं चाहता, लेकिन उसने पिछले कुछ वर्षों के दौरान अपने आर्थिक और भूराजनीतिक हितों में व्यापक बदलाव किये हैं। ऐसे में अमेरिका चीन को तेल खरीदने के लिए मजबूर कर सके, इसकी संभावना नहीं दिखती।
ले देकर बचते हैं यूरोपीय संघ के देश और भारत। यूरोपीय संघ के देश पहले ही बाइडेन प्रशासन के दौरान यूक्रेन-रूस युद्ध में अमेरिकी हितों के पीछे चलकर काफी कुछ गंवा चुके हैं। जर्मनी की हलात खस्ता है और हालत यह है कि जर्मन सत्ताधारी पार्टी को इसकी भारी कीमत सत्ता गंवाकर चुकानी पड़ रही है। उधर ट्रम्प ड्रिल बेबी ड्रिल का नारा दे रहे हैं, इधर भारतीय तेल मंत्री, हरदीप सिंह पुरी अमेरिका से और बड़ी मात्रा में तेल की खरीद की संभावनाओं पर भारतीय संवावदाताओं को सूचित कर रहे हैं। दो दिन पहले ही तेल मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने एक कार्यक्रम के दौरान संवाददाताओं से कहा था कि “भारत और अमेरिका के बीच अधिक ऊर्जा खरीद की संभावना है।”
रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से भारत ने अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए रूस का रुख किया हुआ था, जिसे अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ रहा है। भारत अपनी तेल ज़रूरतों के 88% के लिए आयात पर निर्भर है, जिसमें से करीब 40% हिस्सेदारी अकेले रूस की है। अमेरिकी ट्रेजरी पहले ही रूसी कच्चे तेल के परिवहन में शामिल 183 जहाजों और तेल टैंकरों को ब्लैकलिस्ट कर चुकी है। फ़िलहाल इन जहाजों को मार्च 2025 के मध्य तक डिलीवरी करने की अनुमति है, लेकिन एक बार पूर्ण प्रतिबंध लगने की स्थिति में भारत के लिए रुसी तेल की खरीद संभव नहीं हो पायेगी।
2021 तक भारत के तेल आयात में रूस की हिस्सेदारी मात्र 12% थी, लेकिन 2024 के अंत तक यह आँकड़ा 37% से ऊपर चला गया था। रुसी तेल के आयात से भारत सरकार की तुलना में रिलायंस समूह ने जबर्दस्त मुनाफावसूली की, और यूरोपीय देशों को निर्यात किया। लेकिन नई परिस्थिति में न सिर्फ रुसी सस्ते तेल से मुंह मोड़ने की नौबत आ चुकी है, बल्कि भारत-अमेरिकी व्यापार घाटे और आयात शुल्क के मुद्दे पर ट्रम्प की चेतावनी को ध्यान में रखते हुए अमेरिका से तेल आयात में इजाफा होने की प्रबल संभावना है। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट भी इस तथ्य को पुष्ट करती है कि तेल टैंकर्स पर प्रतिबंध लागू हो जाने के बाद भारत काफी मुश्किल में आ सकता है।
अमेरिका में अवैध प्रवासियों के खिलाफ कार्रवाई सबसे बड़ी चिंता का विषय
मोदी सरकार के सामने फ़िलहाल तेल संकट और आयात शुल्क से भी बड़ा मुद्दा अमेरिका में रह रहे लाखों प्रवासी भारतीयों का बना हुआ है। कम से कम 18000 भारतीय मूल के लोगों पर प्रत्यक्ष तौर पर निष्कासन की तलवार लटक रही है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है कि ट्रम्प के राष्ट्रपति पदभार संभालने के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो की पहली वार्ता भारतीय विदेश मंत्री से इसी विषय को लेकर हुई है।
अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने अपनी विज्ञप्ति में तमाम बातों के साथ “अनियमित प्रवासन” के मुद्दे को भी रेखांकित किया है, जिसका भारतीय विदेश विभाग ने जिक्र नहीं किया है। जाहिर है, यह बेहद गंभीर मुद्दा है क्योंकि अमेरिकी अप्रवासन एजेंसी (आईसीई) के मुताबिक, अमेरिका में रह रहे कुल 14 लाख प्रवासी भारतीयों में से तकरीबन 7.25 लाख भारतीय बगैर दस्तावेजों के रह रहे हैं। इनमें से करीब 18,000 लोग ऐसे हैं जो अमेरिका से निर्वासन (निकाले जाने वाले लोगों) की अंतिम सूची में दर्ज हैं।
मोदी सरकार के लिए दुहरी मार की बात यह है कि अमेरिका में रह रहे प्रवासी भारतीयों में से तकरीबन आधे गुजरात प्रान्त से हैं। इतनी बड़ी संख्या में बगैर वीजा और वैधानिक दस्तावेजों के अमेरिका जाने वाले भारतीयों के कल भारत वापसी की सूरत में भारतीय जनता पार्टी की जो भद्द पिटने वाली है, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
यह काम यदि बाइडेन प्रशासन में किया गया होता, तो भी गनीमत थी। लेकिन यहां तो मामला राष्ट्रपति ट्रम्प से जुड़ा है, जिन्हें कल तक नरेंद्र मोदी का खास मित्र समझा जाता था। इन 18,000 भारतीय मूल के प्रवासियों के पास अगले 30 दिन का समय शेष है। सिर्फ अमेरिकी न्यायालय ही उन्हें अमेरिका से निष्काषित किये जाने से रोक सकती है। भारतीय समाचारपत्रों की ओर से जब इस बाबत भारतीय विदेश मंत्रालय से सवाल किया गया तो उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है।
लेकिन भारत में गोदी मीडिया का इस बारे में क्या कहना है? कुछ भी नहीं। वह तो डोनाल्ड ट्रम्प से सीख लेने का मशविरा दे रही है। उदाहरण के लिए, नेटवर्क 18 के कंसल्टिंग एडिटर और मोदी एंड इंडिया पुस्तक के लेखक, राहुल शिवशंकर को इससे भारत में अवैध प्रवासियों को बाहर खदेड़ने की बात सूझ रही है।
राहुल शिवशंकर ने अपने सोशल मीडिया हैंडल पर भारत सरकार से सवाल किया है। “भारत अवैध अप्रवास पर “ट्रम्प सिद्धांत” कब अपनाएगा? हम अपनी सीमाओं पर आपातकाल कब घोषित करेंगे? हम अवैध रूप से आए लोगों को कब निर्वासित करेंगे? हमें क्या चीज रोक रही है?”
लेकिन बात सिर्फ अवैध प्रवासियों तक सीमित नहीं है। इसमें तकनीकी रूप से कुशल श्रमिकों के HB1 वीजा के माध्यम से वर्क परमिट और अमेरिका प्रवास के दौरान पैदा होने वाले बच्चों की नागरिकता पर भी प्रश्न खड़े होने से उपजा है। इसकी चपेट में भारत का उच्च मध्य वर्ग भी आ गया है। फिलहाल इस मामले में कोई एक राय नहीं बन पाई है, लेकिन ‘अमेरिका फर्स्ट’ और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के नारे के साथ ट्रम्प ने जिन श्वेत वर्चस्ववादी सोच को उभार कर अपने लिए सत्ता में जगह बनाई है, उसकी आंच अब भारतीय समुदाय को महसूस होने लगी है।
इसका शिकार वे लोग तक हो रहे हैं, जो कल तक डोनाल्ड ट्रम्प की जीत को सुनिश्चित करने में जी-जान से जुटे थे। उन्हीं में से एक हैं भारतीय मूल के अरबपति विवेक रामास्वामी, जिन्हें एलन मस्क के साथ सरकारी दक्ष्नता विभाग (DOGE) की कमान सौंपने का ऐलान ट्रम्प ने अपनी जीत के फौरन बाद कर दिया था। अब कहा जा रहा है कि रामास्वामी कथित तौर पर ओहियो की गवर्नरशिप के लिए रिपब्लिकन पार्टी में दावेदारी पर विचार कर रहे हैं।
डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के लिए जितनी कामना स्वयं अमेरिकियों ने नहीं की थी, उससे कहीं अधिक भारत में दक्षिणपंथी ताकतों ने की थी। लेकिन राष्ट्रपति पद की कमान संभालते ही ट्रम्प की जो तस्वीर उनके सामने खुली है, उसके बारे में उन्हें किसी ने बताया ही नहीं था। वे अभी भी यही उम्मीद लगाये बैठे हैं कि जल्द ही मोदी जी ट्रम्प को भारत आने के लिए राजी कर लेंगे, और फिर पिछली बार के अहमदाबाद की तरह लाखों लोगों की भीड़ से ट्रम्प का मूड ठीक कर देंगे।
लेकिन उनमें से कुछ राष्ट्रपति ट्रम्प के साथ आधिकारिक रात्रिभोज “द लिबर्टी बॉल” में खालिस्तान समर्थक गुरपतवंत सिंह पन्नू की उपस्थिति से बुरी तरह से आहत और गुस्से में हैं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि ये डोनाल्ड ट्रम्प कैसा यार है, जिसके बारे में उन्होंने बहुत ज्यादा ही उम्मीद पाल रखी थी। पीएम मोदी अगर जल्द ही डोनाल्ड ट्रम्प को भारत आने पर राजी नहीं करते या खुद अमेरिका जाकर एक बार फिर से दसियों हजार प्रवासी भारतीयों के सामने “अबकी बार ट्रम्प सरकार” का जयकारा नहीं लगाते तो उनकी निराशा बहुत बड़ी हताशा में तब्दील हो सकती है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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