Friday, April 19, 2024

डीआरडीओ की दवा 2-डीजी उर्फ झांसाराम का नया तमाशा

रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने 17 मई को देश में ही बनी कोविड-19 की दवा के दावे के साथ 2-डीजी (2-डिऑक्सी-डी-गलूकोज) को  जारी किया। भारत के औषधि नियंत्रक संस्थान डीसीजीआई यानि ‘ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया’ ने 1 मई को ही कोविड-19 के औसत तथा गंभीर रोगियों की आकस्मिक स्थिति में एक सहायक चिकित्सा के रूप में इसे अनुमति दे दिया था। 2-डीजी को आईएनएमएएस यानि ‘इंस्टीच्यूट ऑफ न्यूक्लियर मेडिसिन एंड एलाएड साइंसेज’ ने डीआरडीओ यानि ‘डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन’ तथा हैदराबाद की फार्मा कंपनी डीआरएल यानि ‘डॉ. रेड्डी’ज लैबोरेटरीज’ के सहयोग से विकसित किया है। सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार क्लिनिकल परीक्षणों में इस दवा के इस्तेमाल से अस्पताल में भर्ती मरीज जल्दी स्वस्थ हुए हैं और उनकी ऑक्सीजन पर निर्भरता में कमी आई है। यह भी बताया गया है कि 2-डीजी, जो दरअसल एक संशोधित ग्लूकोज है, इसका अणु ग्लूकोज के अणु जैसा ही होता है और इसकी खासियत यह है कि यह केवल विषाणु-प्रभावित कोशिकाओं में एकत्रित होता है और वहां विषाणुओं द्वारा की जाने वाली संश्लेषण प्रक्रिया में बाधा डाल कर उनके ऊर्जा उत्पादन को रोक देता है। यह पाउडर के रूप में पुड़िया में आता है और इस दवा को मुंह से लिया जा सकता है।

लेकिन इस दवा पर बहुत सारे विशेषज्ञों ने सवाल खड़े कर दिय़े हैं। महत्वपूर्ण कोविड अस्पतालों के शीर्षस्थ डॉक्टर भी अपने मरीजों को यह दवा देने में हिचकिचा रहे हैं। उनका मानना है कि चूंकि इस अणु पर दुनिया भर में 1956 से ही शोध हो रहे हैं, और परंपरागत रूप से पूरी दुनिया में 2-डीजी के मानव-परीक्षण दशकों से कैंसर की चिकित्सा में उपयोग के लिए किये जाते रहे हैं, लेकिन सुरक्षा के लिहाज से किसी भी देश ने कभी भी इसे औषधि के रूप में अनुमोदित नहीं किया और इसके चिकित्सकीय इस्तेमाल की इजाजत नहीं दी, शेष दुनिया में इसे केवल डायग्नोस्टिक और रिसर्च के लिए ही अनुमति दी गयी है। इस अणु के काम करने का सिद्धांत तो स्पष्ट ही है। 2014 में डीआरडीओ की आईएनएमएएस ने कैंसर चिकित्सा में इसके इस्तेमाल के लिए यह तकनीक डॉ. रेड्डी’ज लैबोरेटरी को हस्तांतरित की थी। 2-डीजी अणु कोशिकाओं की ग्लाइकोसिस नाम की उस प्रक्रिया को रोकता है जिसके द्वारा वे ग्लूकोज को तोड़ती हैं।

चूंकि इसी ग्लाइकोसिस से विषाणुओं को ऊर्जा मिलती है जिससे वे अपनी संख्या बढ़ाती हैं और फैलती हैं, अतः इस प्रक्रिया में बाधा डाल कर 2-डीजी कोविड-19 विषाणुओं को भी नियंत्रित करने का उपकरण बन सकता है। अतः इस सिद्धांत में तो कोई मतभेद नहीं है, किंतु विशेषज्ञों की राय है कि पर्याप्त क्लिनिकल परीक्षणों के बिना कोविड-19 के इलाज में इसके व्यापक इस्तेमाल की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए थी। पिछले साल भर में जर्मनी, ब्राजील और अमरीका सहित 5 देशों के शोध इस विषय पर प्रकाशित हुए लेकिन कोई भी क्लिनिकल परीक्षणों पर आधारित  नहीं था। डीआरडीओ और डीआरएल का काम पतंजलि के आचार्य बालकृष्ण द्वारा लिखित एक शोध-प्रबंध पर आधारित है। इसमें उनके सह लेखक पतंजलि की ही पल्लवी ठाकुर, नरसिंह चंद्र देव और अनुराग वार्ष्णेय तथा ‘विवेकानंद एजुकेशनल सोसाइटीज इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ के शिवम सिंह, ‘जैन विश्व भारती इंस्टीच्यूट’ के विनय जैन तथा ‘स्वीथा इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल एंड टेक्निकल साइंसेज’ के राकेश कुमार शर्मा हैं। वास्तव में यह शोध किसी जीवित कोशिका पर नहीं किया गया था, बल्कि यह केवल एक कंप्यूटर मॉडल था।

सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं कि 2020 में ही डॉ. रेड्डी’ज लैबोरेटरीज (डीआरएल) ने इस दवा के लिए अनुमोदन पाने के कई प्रयास किये थे जिसे डीसीजीआई की विषय विशेषज्ञ समिति ने ठुकरा दिये थे। समिति ने लिखा कि पर्याप्त क्लिनिकल परीक्षणों और प्रमाणों के अभाव में अनुमति नहीं दी जा सकती। 29 अक्तूबर 2020 को तो समित ने परीक्षण लक्ष्यों में “28 दिनों के अंदर मृत्य दर” को भी शामिल करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन सरकारी विज्ञप्ति में मृत्यु दर का कोई जिक्र नहीं है। अब दूसरे और तीसरे चरण के परीक्षणों के बाद समिति ने अनुमति तो दे दी है, (हालांकि, आश्चर्यजनक रूप से, अब तक कहीं भी पहले चरण के परीक्षणों का कोई भी जिक्र नहीं आया है), लेकिन विशेषज्ञों की निगाह में अनुमति के लिए आवश्यक पर्याप्त परीक्षण अभी भी नहीं हुए हैं। मधुमेह तथा हृदय रोग से ग्रस्त लोगों पर इसके प्रभाव का भी कोई परीक्षण नहीं हुआ है। एक तो, दूसरे चरण में मात्र 110 और तीसरे चरण में 220 क्लिनिकल परीक्षण किये गये हैं जो बहुत कम हैं, और दूसरे, सैद्धांतिक अनुमानों तथा प्रायोगिक परिणामों में काफी अंतर हैं जिसकी वजह से इसे इलाज के तौर पर घोषित करना उचित नहीं है।

यहां तक कि दूसरे चरण के परीक्षणों के बारे में ‘क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में ‘डॉ. रेड्डी’ज लैबोरेटरी’ ने जून 2020 में केवल 12 जगहों पर कुल मात्र 40 लोगों पर परीक्षण किये जाने का जिक्र किया था, जिसे अब 110 बताया जा रहा है। जबकि 2009 में ही डीसीजीआई ने सभी क्लिनिकल परीक्षणों के डेटा इस संस्था में रजिस्टर्ड कराना अनिवार्य कर दिया था। यहां तक कि, तीसरे चरण के लिए रजिस्टर्ड 220 लोगों पर किये गये क्लिनिकल परीक्षणों के बारे में भी यह नहीं बताया गया है कि इन परीक्षणों में किन-किन पैरामीटरों का मापन करना है। इससे परीक्षणों के लक्ष्य के बारे विभ्रम की स्थिति बन जाती है। सेक्रेटरियों की उस मीटिंग के मिनट्स भी नहीं जारी किये गये हैं जिसमें आकस्मिक अनुमति देने का निर्णय लिया गया। इस तरह, विषय विशेषज्ञ समिति द्वारा कई बार नकारे जाने के बावजूद अचानक नरम पड़ जाने और अनुमति दे देने के पीछे अनुमति देने की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी की भी आलोचना की जा रही है। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने बताया है कि उसने इस संबंध में डीसीजीआई को फोन तथा अन्य माध्यमों से संपर्क की कोशिशें की थीं पर उधर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई।

 8 मई को बिना कोई डेटा दिये हुए रक्षा मंत्रालय ने कहा कि जहां सामान्य चिकित्सा (जिसमें 2-डीजी का इस्तेमाल नहीं हुआ), से 31% लोगों में ही सुधार हुआ, वहीं 2-डीजी से 42% लोगों में सुधार हुआ और ऑक्सीजन पर उनकी निर्भरता घटी। विशेषज्ञ मानते हैं कि जब आप परीक्षणों से पहले अपने उद्देश्य नहीं घोषित करते हैं तो आखिर परिणामों की तुलना किस चीज से करेंगे! इस तरह से यह सारी प्रक्रिया ही अवैज्ञानिक बन जाती है। फिर तो क्लिनिकल परीक्षण भी आज हर मोर्चे पर विराजमान अविज्ञानवाद की भेंट चढ़ जाएंगे और सोखाई-ओझाई का पर्याय बन जाएंगे!

विशेषज्ञ इस बात से असंतुष्ट हैं कि डीसीजीआई ने फेविपिराविर, आइटोलिजुमैब और वेराफिन जैसी दवाओं की ही कड़ी के रूप में 2-डीजी को भी अपर्याप्त प्रमाणों के बावजूद अनुमति दे दिया है। आज कोविड-19 के मरीजों में जो चीज मायने रखती है, वह लक्षणों में सुधार न होकर, यह है कि मध्यम गंभीरता वाले रोगियों को अस्पतालों में भर्ती होने से बचाया जा सके, तथा गंभीर रोगियों को मृत्यु से बचाया जा सके। इसलिए क्लिनिकल परीक्षणों के लक्ष्यों में भी इन्हें पैरामीटर के तौर पर शामिल किया जाना चाहिए था। अस्पष्ट लक्ष्यों में, परीक्षणों से जुड़े हुए चिकित्साकर्मी बड़ी फार्मा कंपनियों द्वारा प्रस्तावित प्रलोभनों के प्रभाव में आसानी से परिणामों में फेरबदल कर सकते हैं, इसीलिए केवल ‘रैंडमाइज्ड डबल ब्लाइंड प्लेसेबो कंट्रोल्ड’ परीक्षण-पद्धति ही वास्तव में वैज्ञानिक पद्धति है। इस पद्धति में किसी भी भागीदार को यह नहीं पता होता कि किसे वास्तविक औषधि और किसे प्लेसेबो दिया जा रहा है। लेकिन 2-डीजी के किसी चरण में यह पद्धति नहीं अपनायी गयी, इसलिए इन परीक्षणों के परिणामों के फार्मा कंपनियों से प्रभावित होने से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। परीक्षणों के सांख्यिकीय आंकड़े और डेटा किसी भी वैज्ञानिक/मेडिकल पत्रिका में नहीं छपे। केवल कुछ सरकारी प्रेस विज्ञप्तियां हैं, जो अस्पष्ट और अवैज्ञानिक शब्दावलियों से भरी हुई हैं, जैसे “उल्लेखनीय अनुकूल परिणाम”, जिसका अपनी सुविधानुसार आप कुछ भी अर्थ लगा सकते हैं।

इतने लापरवाह अंदाज में पतंजलि के बालकृष्ण के शोध पर डीआरडीओ जैसी प्रतिष्ठित संस्था के शामिल होने, योजना बनाने, परीक्षण करने और दवा घोषित करने में न केवल बड़ी मात्रा में सरकारी धन की बर्बादी हुई है, बल्कि इसी तरह के दृष्टिकोण के नाते अपनी वैज्ञानिक दृष्टि के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित तमाम अन्य भारतीय संस्थाओं की छवि और साख को भी एक-एक करके बट्टा लगता जा रहा है। जब सत्ता तंत्र में नीचे से ऊपर तक मूढ़ताओं का बोलबाला हो जायेगा तो यही दिन देखने होंगे।

2-डीजी अणु के औषधि के रूप में इस्तेमाल की इजाजत पहली बार भारत ने दी है, वह भी इतने अपर्याप्त क्लिनिकल परीक्षणों और संदेहास्पद आंकड़ों के बावजूद। दूसरे चरण के परीक्षणों में इस दवा की खुराक मरीज के प्रति किलोग्राम वजन पर सुबह 45 मिलीग्राम और शाम को 18 मिलीग्राम रखी गयी थी, जो तीसरे चरण में बढ़ाकर दोनों समय 45-45 मिलीग्राम, यानि 90 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम वजन, प्रतिदिन कर दी गयी। जबकि 2010 में अमरीका में 12 कैंसर रोगियों पर हुए एक परीक्षण के दौरान पाया गया था कि 60 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम प्रतिदिन की खुराक ने दिल की गंभीर बीमारी का खतरा पैदा कर दिया था। इसी तरह 2012 में प्रकाशित एक शोध के अनुसार 63 से 88 मिग्रा/किग्रा वजन प्रतिदिन की खुराक ने अन्य कई समस्याओं के अलावा शुगर लेवेल बढ़ा दिया था। लेकिन भारत के परीक्षणों में मरीजों की सुरक्षा और उन पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का कोई अध्ययन ही नहीं किया गया। इससे फार्मा कंपनियों या अन्य हितों के प्रभाव का संदेह उठना आश्चर्यजनक नहीं है। वैसे जिन परीक्षणों को दसियों हजार लोगों पर किया जाता हो, उन्हें मात्र 220 लोगों पर करके दवा घोषित कर देने का माद्दा केवल हमारे देश में हो सकता है। यों भी हमारे देश में मनुष्य की औकात गिनीपिग, या यों कहिए कि कीड़ों-मकोड़ों की बना कर रख दी गयी है।

(शैलेश स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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