आज इंडियन एक्सप्रेस के पहले पेज पर खबर छपी है जिसमें एनसीपी प्रमुख शरद पवार के हवाले से कहा गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र में राजनीतिक अनिश्चितता के वक़्त उनके सामने यह प्रस्ताव रखा था कि उनकी बेटी सुप्रिया सुले को केन्द्र में कैबिनेट मंत्री का पद दे देगें लेकिन आप हमें महाराष्ट्र में सरकार बनाने में मदद करें। उसी खबर में यह भी कहा गया है कि शरद पवार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को स्पष्ट रूप से कह दिया था कि उनके लिए उनके साथ काम कर पाना संभव नहीं हो पाएगा।
इंडियन एक्सप्रेस अखबार के मुताबिक शरद पवार ने एक मराठी चैनल टीवी एबीपी माझा से कहा, “पीएम मोदी ने कहा था कि मेरा राजनीतिक अनुभव उनके लिए सरकार चलाने में मददगार साबित होगा। साथ ही, मोदी ने उनसे कहा था कि राष्ट्रीयता के कुछ मुद्दों पर हमारी सोच एक जैसी है। इसके लिए उन्होंने प्रस्ताव भी दिया था, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था।”
सत्ता के शीर्ष पर बैठा कोई व्यक्ति जब सिर्फ अनैतिक हो तो आप किसी और से कुछ भी अपेक्षा नहीं कर सकते हैं। नरेन्द्र मोदी नामक व्यक्ति को जनता ने इस विश्वास से सत्ता पर बैठाया था कि वे उनके लिए बेहतर काम करेंगे। लेकिन पिछला पांच साल का कार्यकाल प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्षियों की निंदा और अपनी ताऱीफ में बिता दिया, अपनी ही पार्टी में महत्वपूर्ण जगहों पर बैठे अपने सगे को निपटाने में बर्बाद कर दिया। लेकिन जब दूसरे कार्यकाल में उन्हें कुछ करना चाहिए था तब वह सिकंदर की तरह विश्व विजेता बनने की ख्वाहिश रखता है। आखिर प्रधानमंत्री बने रहने के बावजूद इनकी यह क्यों ख्वाहिश है कि हर राज्य में उनकी पार्टी की सरकार होनी चाहिए!
कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि कांग्रेस और एनसीपी का शिवसेना के साथ अवसरवादी समझौता है, जो बिल्कुल है। यह भी सही है कि शिवसेना चुनाव भी बीजेपी के साथ मिलकर लड़ रही थी लेकिन यह भी उतना ही सही है कि शिवसेना भाजपा की सबसे विश्वसनीय सहयोगी भी रही थी। आखिर क्या कारण है कि उसका सबसे पुराना और विश्वसनीय सहयोगी साथ छोड़कर भाग जा रहा है? आखिर कुछ तो कारण रहा होगा जिससे शिवसेना का भी बीजेपी के साथ दमघुट रहा होगा?
चार-पांच दिन पहले रिपब्लिक चैनल के मालिक अर्णव गोस्वामी से अमित शाह ने काफी महत्वपूर्ण बात कही। अमित शाह के अनुसार बीजेपी को महाराष्ट्र के चुनाव में 70 फीसदी सीटों पर सफलता मिली जबकि शिव सेना को मात्र 42 फीसदी सीटों पर सफलता मिली है। इसलिए यह तो पूरी तरह साफ है कि महाराष्ट्र में मैंडेट बीजेपी को मिला है न कि शिवसेना को। अगर इस बात पर गौर करें तो भाजपा अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह ने बिल्कुल सही व्याख्या की है। लेकिन यह बात जब उन्हें महाराष्ट्र को लेकर याद है तो फिर वह बिहार के मामले में क्यों भूल जा रहे हैं?
इसी तर्क के आधार पर बिहार में भारतीय जनता पार्टी 160 सीटों पर चुनाव लड़कर 53 सीटों पर विजयी रही। मतलब यह कि बीजेपी बामुश्किल 34 फीसदी सीटों पर विजयी हो पाई जबकि उसी चुनाव में लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल को 81 सीटें मिली। अगर स्ट्राइकिंग रेट देखें तो कहा जा सकता है कि उसे 81 फीसदी सीटों पर सफलता मिली। जबकि नीतीश कुमार की पार्टी को 71 फीसदी सफलता मिली लेकिन आज वहां सरकार भाजपा और जेडीयू चला रही है।
बीजेपी समर्थक यह भी तर्क दे सकते हैं कि शिवसेना के साथ कांग्रेस और एनसीपी का सरकार बनाना अनैतिक है क्योंकि चुनाव से पहले दोनों ने एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा था। यह बात भी बिल्कुल सही है लेकिन क्या यही सब बिहार में नहीं हुआ था? अनैतिकता का यह प्रश्न तो उस व्यक्ति से पूछा ही जाना चाहिए जिसके नेतृत्व में यह सब हो रहा था। आप जब किसी और व्यक्ति से उनकी पार्टी के बारे में सवाल पूछते हैं तब भी वह सवाल गलत नहीं होता है लेकिन जिसके लिए वह व्यक्ति सीधे तौर पर जवाबदेह नहीं होता है उनकी वही नैतिकता नहीं होती है क्योंकि यह काम वह खुद नहीं किया होता है। लेकिन जो काम वह खुद किया रहता है, उसके लिए तो उस व्यक्ति की जवाबदेही बनती है।
यह तो नहीं हो सकता है कि जो आपको अच्छा लगे वह ठीक है और जो अच्छा न लगे वह गड़बड़ है! नैतिकता के इतने दोहरे पैमाने सिर्फ आपके पास ही क्यों हैं, क्या आपको अनैतिकता के मापदंड के रूप में देखा जाए!
(जितेन्द्र कुमार वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरण कार्यकर्ता हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)