Saturday, April 20, 2024

कश्मीर के विशेष दर्जा प्रावधान खत्म होने का एक सालः अंधेरी-बंद सुरंग में धरती का स्वर्ग!

यह बात सही है कि पिछले वर्ष 5 अगस्त को नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर का बचा-खुचा विशेष दर्जा खत्म करने के लिए अनुच्छेद-370 के सम्बद्ध प्रावधान को खत्म करने का जो फैसला किया, वह सत्ताधारी दल का घोषित एजेंडा था और वह उसके लगभग हर चुनाव घोषणापत्र में भी शामिल रहा है। इस फैसले को संसदीय मंजूरी दिलाई गई। हां, सुप्रीम कोर्ट में उसे चुनौती जरूर दी गई है कि किस तरह यह फैसला संविधान के सम्बद्ध प्रावधानों के उलट है। लेकिन चुनौती देने वाली याचिका अभी तक न्यायालय में लंबित है।

इस लेख में हम अनुच्छेद 370 के सम्बद्ध प्रावधान को खत्म करने के विवादास्पद फैसले की पड़ताल नहीं कर रहे हैं। हम यह देखने की कोशिश कर रहे हैं कि बीते एक साल के दरम्यान इस फैसले का सरहदी सूबे की सियासत, उसके समाज, जम्हूरियत, खासतौर पर आम या खास लोगों के बोलने-लिखने की आजादी पर क्या असर हुआ है? अनुच्छेद-370 के सम्बद्ध प्रावधानों को खत्म करने के पीछे सरकार ने पिछले साल जो ठोस शासकीय कारण और जरूरी मकसद बताये थे, उनका क्या हुआ? 

सरकार ने अनुच्छेद-370 के सम्बद्ध प्रावधानों को खत्म करने के लिए जो तीन-चार बड़े कारण बताये थे, वे इस प्रकार हैं-इससे जम्मू कश्मीर में विकास होगा, आतंक और हिंसा पूरी तरह खत्म करने में मदद मिलेगी और शांति-सुरक्षा का माहौल स्थापित होगा। इसके अलावा बताया गया था कि कश्मीरी पंडितों की वापसी का मार्ग प्रशस्त होगा। बाहर के लोगों को भी अपनी इच्छानुसार सरहदी सूबे में जमीन-जायदाद खरीदने, निवेश करने या कार्य व्यापार करने की कुछ शर्तों के साथ छूट मिलेगी। इन बारह महीनों में क्या इन वायदों या मकसदों में कुछ भी हासिल हुआ या हासिल होने का संकेत मिला?

कश्मीर का एक दृश्य। साभार गूगल।

इस प्रश्न की पड़ताल करने से पहले हम यह जान लें कि 5 अगस्त, 2019 के फैसले के बाद जम्मू कश्मीर का सिर्फ बचा-खुचा विशेष दर्जा ही नहीं खत्म हुआ, पूरे राज्य का दो भागों में विभाजन कर दिया गया-लद्दाख को जम्मू कश्मीर से अलग कर दिया गया। यही नहीं, जम्मू कश्मीर पूरी तरह राज्य भी नहीं रह सका, उसे केंद्र-शासित क्षेत्र बना दिया गया। सरकार का कहना था कि यह अस्थायी व्यवस्था है, जब हालात बेहतर होंगे तो पूर्ण राज्य का दर्जा वापस हो जायेगा। ये सब चीजें तो भाजपा के चुनाव घोषणापत्र या संघ-भाजपा के सुपरिचित एजेंडे में भी नहीं थीं। पर इन सबको आनन-फानन में कर डाला गया। नतीजा क्या निकला? इन फैसलों से आज वह जम्मू भी खिन्न नजर आ रहा है जो सूबे की राज-व्यवस्था में कश्मीरियों के ‘वर्चस्व’ के खात्मे से शुरू में खुश नजर आ रहा था।

उसे यह भी लग रहा है कि 370 के सम्बद्ध प्रावधानों के खात्मे और जमीन-जायदाद खरीदने या निवास करने सम्बन्धी नये नियमों से जम्मू क्षेत्र के वासियों को भी भारी नुकसान होने जा रहा है। कारगिल को छोड़कर लद्दाख वाले, खासकर लेह इलाके के लोग शुरू में सरकार के इस कदम से खुश थे पर कुछ ही समय़ बाद बहुत तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आने लगीं। भाजपा के लद्दाख क्षेत्र के अध्यक्ष ने पार्टी और पद से इस्तीफा दे दिया। आज स्थिति ये है कि दिल्ली, मुंबई, बंगलुरू, अमेरिका या ब्रिटेन में रहने वाले कुछ कश्मीरी पंडितों को छोड़ दें तो सरकार के कदम से जम्मू कश्मीर के गैर-मुस्लिम लोगों में भी वो खुशी नहीं है, जिसकी सत्ताधारी खेमे और शेष भारत के एक प्रभावशावी हिस्से में उम्मीद लगाई गई थी।

जम्मू कश्मीर के मौजूदा परिदृश्य को जानने-समझने वाला स्वतंत्र सोच का कोई व्यक्ति शायद ही इस बात से असहमत होगा कि अनुच्छेद-370 के सम्बद्ध प्रावधानों के खात्मे के इन बारह महीनों में सूबे के लोगों में निराशा के माहौल का क्रमशः विस्तार हुआ है। ऊपर गिनाये गये कारणों और कारकों के अलावे इस निराशा के पीछे अन्य कारण हैं-अशांति और असुरक्षा के माहौल का बरकरार रहना, विकास और रोजगार के मोर्चे पर सरकार का निराशाजनक प्रदर्शन और सरहदी सूबे की राजव्यवस्था पर पुलिस-सुरक्षा एजेंसियों और नौकरशाही का पूरी तरह काबिज होना।

आतंक-उग्रवाद के दौर से ही, बल्कि यूं कहें कि कश्मीर के भारत में सम्मिलन के बाद से ही सूबे की शासकीय व्यवस्था में सुरक्षा एजेंसियों का वर्चस्व रहा है। लेकिन 5 अगस्त, 2019 के बाद इस वर्चस्व को औपचारिक बना दिया गया। किसी भी दल, चाहे वह राष्ट्रीय हो, क्षेत्रीय या स्थानीय, को राज्य या स्थानीय स्तर के प्रशासकीय ढांचे में आज किसी तरह की सक्रिय भूमिका नहीं रह गई है। कुछ समय पहले पंचायती व्यवस्था के जरिये कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं को स्थानीय प्रशासनिक ढांचे में हिस्सेदारी देने की कोशिश हुई, वह भी नाकाम दिख रही है। 

बीते बारह महीनों के दरम्यान सरहदी सूबे से जुड़ा एक और पहलू बहुत महत्वपूर्ण है। विशेष दर्जा खत्म करने और राज्य-विभाजन आदि के बाद सरकार के विभिन्न स्तरों से जो राजनैतिक किस्म के बयान जारी होते रहे, उसकी पड़ोसी मुल्कों में तल्ख प्रतिक्रिया देखी गई। कश्मीर मसले को भारत ने हमेशा अपना अंदरूनी मसला माना। अधिक से अधिक द्विपक्षीय यानी भारत और पाकिस्तान के स्तर पर उसे हल करने की कोशिशें चलती रहीं। समस्या के अंतर्राष्ट्रीयकरण की आशंका से वह हमेशा बचता रहा। लेकिन हाल के दिनों में निस्संदेह इसके अंतर्राष्ट्रीयकरण में कुछ बढ़ोत्तरी हुई है।

पाकिस्तान और चीन ने तो बार-बार बोला ही, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की तरफ से भी कश्मीर मामले में मध्यस्थता सम्बन्धी पेशकश की जाती रही। हालांकि भारत ने बहुत ठोस शब्दों में किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता की संभावना से इंकार किया। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय सरहद दो तरफा सरगर्म हो गई। अब तक सिर्फ भारत-पाकिस्तान की सरहद पर आये दिन कुछ न कुछ होता रहता था, इधर लद्दाख में चीन के साथ भी तल्खी बढ़ गई। गलवान घाटी में उसकी घुसपैठ या एलएसी के उल्लंघन की खबरें आईं। हालात इतने खराब हुए कि गलवान सरहद पर चीनी सैनिकों ने द्विपक्षीय झड़प के दौरान भारत के 20 जवानों की नृशंस हत्या कर दी।

कुछ खबरों में बताया गया कि उस झड़प में चीन के भी कुछ सैनिक मारे गये। तब से वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर अशांति और आशंका के बादल लगातार छाये हुए हैं। इससे अनुमान लगाना कठिन नहीं कि भारत को अपने सैन्य-रखरखाव, खासकर सरहदी सुरक्षा पर कितना ज्यादा खर्च करना पड़ रहा होगा। यह भी साल भर पहले हुए कश्मीर सम्बन्धी फैसले का ही एक प्रभाव माना जा रहा है।   

जहां तक कश्मीर की आंतरिक स्थिति का सवाल है, बीते तीन दशकों से वह लगातार खराब रही है। पर सन् 2006-07 के बाद हालात में सुधार के कुछ अच्छे संकेत दिखने लगे थे और बीच-बीच में नकारात्मक घटनाएं भी होती रहती थीं। लेकिन कुल मिलाकर संकेत अच्छे दिख रहे थे। हिंसा और अशांति की घटनाओं में काफी कमी दर्ज होने लगी और कश्मीर धीरे-धीरे पटरी पर चलता नजर आया। सन् 2001 में आतंक से जुड़ी हत्याओं के कुल मामले 2084 और सन् 2007 में 427 थे। सन् 2008 से 2013 के बीच ये मामले 261 से घटकर 84 पहुंच गये। सन् 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के कुछ ही समय बाद कश्मीर फिर पटरी से उतरता नजर आया। सन् 2016 में हत्याओं का यह आंकड़ा बहुत समय बाद पहली बार सैकड़ा पार किया। सन् 2018 में तो ऐसे 206 मामले दर्ज हुए। पिछले वर्ष 135 थे।

इस वर्ष अभी तक 85 मामले दर्ज हो चुके हैं। इसमें सुरक्षा बल के जवानों की संख्या 34 बताई गई है (सभी आंकड़े साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल से लिये गये हैं)। इस दौर में किसी तरह का द्विपक्षीय संवाद या शांति-प्रक्रिया को पूरी तरह ठप्प कर दिया गया। अनुच्छेद 370 के सम्बद्ध प्रावधानों के खात्मे से पहले कश्मीर घाटी में काफी कुछ किया-कराया गया। घाटी में प्रदर्शनकारी युवाओं पर बड़े पैमाने पर इजरायली पैलेट गनों का अंधाधुंध इस्तेमाल हुआ। गोलियां भी बेरोकटोक चलाई गईं। पत्थरबाजी के जवाब में अक्सर गोलियां चलने लगीं। इनमें बड़े पैमाने पर युवाओं की मौत हुई। घायलों की संख्या हजारों में पहुंच गई। पैलेट गनों से घायल युवाओं को अस्पतालों से गिरफ्तार किया जाने लगा। फिर अगस्त की 5 तारीख आई। उसके बाद तो अब घाटी में लोकतंत्र का एक भी निशान नहीं बचा है।

कश्मीरी महिलाएं।

कश्मीर आज पूरी तरह सुरक्षा बलों के अधीन है। सूबे का बड़ा हिस्सा लंबे समय तक इंटरनेट-विहीन रहा है। इंटरनेट-शटडाउन के मामले में भारत इस वक्त दुनिया के 190 देशों में अव्वल बना हुआ है। यह सब कश्मीर के कारण हुआ है। जुलाई से नवम्बर, 2016 में वहां 133 दिन इंटरनेट शटडाउन रहा। फिर 4 अगस्त, 2019 से 125 दिनों तक इंटरनेट बंद रहा। इस दरम्यान काफी समय तक लैंडलाइन पर बंद कर दिया गया। लद्दाख के कारगिल में 121 दिन का शटडाउन रहा। कश्मीर में ऐसे दमन-उत्पीड़न के चलते ही हाल के दिनों में भारत की वैश्विक स्तर पर काफी बदनामी हुई है। प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भी उसकी जगह गिरी है। उसे सूडान, चाड और म्यांमार के रखाइन इलाके के साथ दुनिया के सर्वाधिक इंटरनेट-शटडाउन प्रभावित क्षेत्रों में शुमार किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट भी इतने लंबे समय तक कश्मीर में इंटरनेट काटे जाने पर टिप्पणी कर चुका है।

लेकिन कोर्ट अभी तक अनुच्छेद-370 के सम्बद्ध प्रावधानों के निरस्त करने और सूबाई विभाजन को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर खामोश है। उसकी यह खामोशी चिंताजनक है। घाटी के कई प्रमुख नेता तब से जेल में हैं या अपने घरों में नजरबंद हैं। ऐसे तमाम निरंकुश कदमों के साथ सरहदी सूबे का विभाजन हो चुका है। राजनैतिक मोर्चे पर सरकार के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं। केंद्र शासित जम्मू कश्मीर की विधानसभा कब गठित होगी, उसके चुनाव कब होंगे, कोई नहीं जानता। अभी एक बड़ी समस्या सीटों के पुनर्निधारण की भी है। रोजगार का मसला बहुत भयावह होता जा रहा है। कुछ कानून के चलते और इधर महामारी में सब कुछ ठप्प होने के चलते। इस पर घाटी और जम्मू के स्थानीय लोगों में काफी नाराजगी पैदा हुई।

नाना के सीने पर बैठा मासूम।

स्वयं भाजपा के नेता-कार्यकर्ता भी इसे पचा नहीं पा रहे थे। वे भी विरोध में आ गए। इसी तरह 370 के खात्मे और राज्य के दर्जे मे किए बदलाव से सम्पत्ति, खासकर जमीन के स्वामित्व सम्बन्धी कई महत्वपूर्ण कानूनों की स्थिति अधर में लटक गई है। प्रशासनिक स्तर पर ऊहापोह की स्थिति है। राज्य पुनर्गठन कानून में सूबे के कुछ पुराने कानूनों को शामिल किया गया है पर कुछ कानूनों को जगह नहीं मिली है। इससे जम्मू कश्मीर के स्थानीय लोगों में अपनी जमीन-जायदाद की सुरक्षा लेकर बेचैनी है। उन्हें डर है कि कहीं वे उस तरह की सुरक्षा से भी वंचित न हों, जो हिमाचल, नगालैंड, अरुणाचल, मिजोरम या मेघालय सहित देश के कई अन्य राज्यों के नागरिकों को उपलब्ध है।

कश्मीर में अब किसी बाहरी आदमी या संस्था को कुछ शर्तों के साथ बहुत आसानी से जमीन का मालिकाना स्थानांतरित किया जा सकता है। इसे लेकर राज्य के तीनों हिस्सों में तमाम तरह की आशंकाएं और अटकलें हैं। लोग इस मसले में नया कानूनी प्रावधान चाहते हैं। सैन्य मौजूदगी और निरंकुश दमन के दौर के चलते फिलहाल लोग खामोश रहने में ही भलाई समझ रहे हैं। पर आगे का रास्ता बहुत निरापद नहीं लगता।

जम्मू-कश्मीर आज जिस गहन अंधेरी-सुरंग में जा गिरा है, वहां से निकलने का फिलवक्त कोई साफ रास्ता नहीं दिखता। लेकिन इतिहास तो यही बताता है कि तमाम मुश्किलों के बीच अंततः लोग ही रास्ता बनाते हैं। अगले कुछ वर्षों में तय होगा, कश्मीर के लोग अपनी मुश्किलों और चुनौतियों को कैसे संबोधित करते हैं और भारतीय सत्ता अपने नजरिये को सुधारती है या उस पर कायम रहती है! ले-देकर, सरहदी सूबा फिलहाल अंधेरी-बंद सुरंग में फंसा नजर आता है।

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं। कश्मीर पर लिखी गयी उनकी किताब बेहद चर्चित रही है।)

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