Tuesday, April 16, 2024

वार्ता का एक और दौर आज: सकारात्मक नहीं हैं सरकार की तरफ से संकेत

तीन नए कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे किसानों की जहां एक ओर 4 जनवरी को सरकार के साथ एक बार फिर बातचीत होने वाली है, वहीं दूसरी ओर कृषि मंत्रालय के एक शीर्ष अधिकारी के हवाले से मीडिया में खबर आई है कि सरकार तीनों कानूनों को किसी भी सूरत में वापस नहीं लेगी। किसानों से बातचीत के पहले ही आधिकारिक सूत्रों के हवाले से ऐसी खबरें मीडिया में प्लांट कराने का सीधा मतलब है कि सरकार किसानों पर झुकने के लिए दबाव बना रही है। सरकार के इस रुख का किसानों को भी अंदाजा है, इसीलिए उन्होंने भी अगले दौर की बातचीत से पहले अपना रुख साफ करते हुए कह दिया है कि अगर सरकार ने उनकी मांगें नहीं मानी तो वे अपना आंदोलन और तेज करेंगे।

सरकार और किसानों के रुख से साफ है कि आठवें दौर की यह बातचीत भी बेनतीजा रहने वाली है। किसानों को सरकार के इस दावे पर भी सख्त आपत्ति है कि 30 दिसंबर की बातचीत 50 फीसदी सफल रही। असल में 30 दिसंबर की बातचीत के बाद कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने दावा किया था कि किसानों की चार मांगों में से दो मांगें सरकार ने मान ली हैं और दो मांगों पर 4 जनवरी को बातचीत होगी। जबकि किसानों ने कहा कि पराली जलाने पर जुर्माना लगाने के अध्यादेश और प्रस्तावित बिजली कानून में किसानों को राहत देने की जिन मांगों पर सरकार सहमत हुई है, वे बहुत छोटी मांगें हैं। लेकिन मीडिया में तो सरकार की ओर से यही दावा किया गया कि 30 दिसंबर की बातचीत 50 फीसदी सफल रही। हालांकि उस बातचीत के तत्काल बाद जिस तरह सरकार की तरफ से कृषि मंत्री मीडिया के सामने पेश हुए थे, उसी तरह किसान नेताओं को भी प्रेस कांफ्रेंस करके अपना पक्ष रखना चाहिए था, जो नहीं रखा गया। इस बात को लेकर कई तरह की अटकलें भी लगती रहीं। यह सवाल भी उठा कि क्या बातचीत के दौरान सरकार की ओर से ऐसी कोई शर्त तो नहीं रखी गई कि किसान नेता मीडिया से बात नहीं करेंगे?

इन अटकलों और सवालों को इस बात से तब और बल मिला जब अगले दौर की बातचीत से पहले आधिकारिक सूत्रों के हवाले से मीडिया में प्रचारित कराई गई कि सरकार तीनों कानूनों को वापस नहीं लेगी। सरकार की ओर से यह भी दावा किया गया कि देश के करीब 800 बुद्धिजीवियों और विशेषज्ञों ने कृषि कानूनों का समर्थन करते हुए इन्हें किसानों के हित में बताया है। यह सोचने वाली बात है कि अब तक जो सरकार कागजी किसान संगठनों से मुलाकात कर दावा करती आ रही थी कि देशभर के ज्यादातर किसान संगठन कानूनों का समर्थन कर रहे हैं, उसे अब बुद्धिजीवियों के समर्थन का दावा भी करना पड़ रहा है। हालांकि हकीकत यह है कि कॉरपोरेट घरानों के लिए काम करने वाले दो-चार अर्थशास्त्रियों, कुछ रिटायर्ड नौकरशाहों और मीडिया से जुड़े कुछ लोगों के अलावा किसी ने भी इन कानूनों का समर्थन नहीं किया है। देश के तमाम जाने-माने कृषि विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री और बुद्धिजीवी इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं।

सरकार की ओर से मीडिया के जरिए सिर्फ कानूनों के समर्थन में ही प्रचार नहीं करवाया जा रहा है, बल्कि किसान आंदोलन के खिलाफ तरह-तरह की निराधार बातों का प्रचार भी मीडिया में शुरू से हो रहा है। किसानों के आंदोलन को खालिस्तानियों का आंदोलन बताया गया। यह भी कहा गया कि आंदोलन को विदेशी मदद मिल रही है। पाकिस्तान और माओवादियों से भी आंदोलन का संबंध जोड़ा गया। इस तरह के अनर्गल आरोप लगाने में केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्री भी पीछे नहीं रहे। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि कुछ लोग किसान आंदोलन के नाम पर इवेंट कर रहे हैं।

सरकार की ओर से लगातार हो रहे इस तरह प्रचार को किसान अपने आंदोलन के लिए खतरा मान रहे हैं और उन्होंने बार-बार सरकार से कहा है कि वह किसानों के आंदोलन को तोड़ने, कमजोर करने या उसे बदनाम करने की कोशिशों से बाज आए। इसके बावजूद 30 दिसंबर को हुई बातचीत के बाद सरकार की ओर से मीडिया में गलत जानकारी दी गई कि बातचीत 50 फीसदी सफल रही। यही नहीं 4 जनवरी को अगले दौर की बातचीत से पहले आधिकारिक सूत्रों के हवाले से खबर प्लांट करवाई गई कि सरकार किसी भी हालत में कानूनों को वापस नहीं लेगी। सरकार के इस रवैये से क्षुब्ध होकर ही आंदोलन कर रहे किसान संगठनों ने भी प्रेस कांफ्रेंस के जरिए साफ कर दिया कि 30 दिसंबर को सरकार के साथ हुई बातचीत में सिर्फ हाथी की पूंछ निकली है, हाथी निकलना अभी बाकी है। उनकी ओर से यह भी बता दिया गया है कि अगर 4 जनवरी की बातचीत में सरकार ने तीनों कानून वापस लेने की उनकी मांग नहीं मानी तो आंदोलन तेज किया जाएगा।

किसानों ने अपना यह संकल्प सिर्फ बयानों के जरिए ही व्यक्त नहीं किया है, बल्कि कोरोना संक्रमण के खतरे और 3 जनवरी को भीषण शीतलहर के बीच दिनभर होती रही तूफानी बारिश के चलते उड़ते-भीगते तंबुओं, ध्वस्त शौचालयों और चारों तरफ कीचड़ हो जाने के बावजूद भी आंदोलन स्थल पर डटे रह कर बता दिया कि वे पीछे हटने वाले नहीं हैं। इस बीच 40 दिनों से जारी आंदोलन के दौरान 50 से ज्यादा किसानों की मौत भी हो चुकी है। अहिंसक और लोकतांत्रिक तरीके से प्रतिरोध का ऐसा जज्बा दुनिया के किसी समाज में नहीं होगा जो दिल्ली की सीमाओं पर इन दिनों दिख रहा है। दिल्ली में कई इतिहास रचे गए हैं। इस समय भी दिल्ली की सीमाओं पर एक नया इतिहास रचा जा रहा है।

किसानों और सरकार के बीच आज 4 जनवरी को होने वाली बातचीत का आठवां दौर शायद आखिरी होगा। इस दौर में भी कोई नतीजा निकल सकेगा, इसके आसार बहुत कम हैं। इसीलिए किसान संगठनों की ओर से ऐलान किया गया है कि वे 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के मौके पर दिल्ली की सीमाओं से ट्रैक्टर-ट्रॉली पर सवार होकर दिल्ली में परेड करेंगे। ऐसी ही परेड का आयोजन देशभर में राज्यों की राजधानी और जिला मुख्यालयों पर भी किया जाएगा। इससे पहले 6 से 20 जनवरी तक पूरे देश में ‘जन जागृति अभियान’ चलाएंगे। इस दौरान 13 जनवरी को लोहड़ी पर तीनों कानूनों की प्रतियों को विरोध के तौर पर जलाया जाएगा। इसके बाद 18 जनवरी को महिला किसान दिवस और 23 जनवरी को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर ‘किसान चेतना दिवस’ भी मनाया जाएगा।

देखने वाली बात यह होगी कि अपने बनाए तीनों कृषि कानूनों को अपनी नाक का सवाल बना चुकी सरकार किसानों के आंदोलन का सामना किस तरह से करती है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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