चुनाव आयोग ने बेशर्मी की सारी सीमाएं पार कर दी हैं। एक लोकतांत्रिक संस्था के बतौर उसको न तो अपनी इज्जत का ख्याल है और न ही स्वाभिमान की चिंता। लेकिन इस कदर वह नंगा हो जाएगा इसका किसी को अंदाजा नहीं था। कर्नाटक चुनाव में यह बात बार-बार दिखी है। इसकी हाइप सोनिया गांधी के भाषण मामले में दिखी। जब बीजेपी ने महज एक ट्वीट के आधार पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष पर कर्नाटक को संप्रभु राज्य घोषित करने का आरोप लगा दिया।
और फिर इस मामले को उछालने और उसे चुनावी मुद्दा बनाने के लिए पूरी पार्टी को लगा दी। शुरुआती मोर्चा खुद पीएम मोदी ने संभाला जब उन्होंने कर्नाटक को देश से अलग करने की साजिश का गांधी परिवार पर आरोप लगाया। उसके बाद पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटा दिया। चुनाव आयोग ने भी न तो सोनिया गांधी के भाषण को सुना और न ही उस दिशा में उसने कोई छानबीन की। और सीधे कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को सफाई देने के लिए पत्र भेज दिया।
जबकि सच्चाई यह है कि सोनिया गांधी ने अपने भाषण में संप्रभुता शब्द का प्रयोग ही नहीं किया था। सामने आयी सोनिया गांधी के भाषण की ट्रांसस्क्रिप्ट में इसका कहीं कोई जिक्र नहीं है। लेकिन बीजेपी फेक खबरों के उत्पादन की माहिर खिलाड़ी है। वह जानती है कि कैसे चीजों को ट्विस्ट दिया जा सकता है। कर्नाटक के भीतर भीषण सत्ता विरोधी रुझान का सामना कर रही बीजेपी के लिए मु्द्दों का टोटा पड़ा हुआ था। न तो वह स्थानीय मुद्दे उठा सकती था और न ही उसके पास जनता को देने के लिए कुछ नया था।
ऐसे में वह पूरी तरह से भूत-भगवान, बाहरी और उससे भी ज्यादा गैरज़रूरी मुद्दों के सहारे अपना चुनाव प्रचार अभियान चला रही थी। और जिस तरह से आखिरी दौर में पार्टी ने अपना सारा भार पीएम मोदी के कंधे पर डाल दिया था उससे पहले ही अंदाजा लग गया था कि देश की बड़ी संस्थाओं का भी इस्तेमाल किया जाना तय है।
मोदी जी के पास भी जनता को देने के लिए कुछ नहीं था। लिहाजा वह कभी बजरंगबली तो कभी सोनिया गांधी के भाषण के फर्जी इंटरप्रेटेशन पर ही अपना चुनाव अभियान खींचते रहे। अनायास नहीं मोदी ने सभाओं से ज्यादा रोड शो किए। ऐसा शायद इसलिए रहा होगा कि सभाओं में भीड़ जुटानी होती है और भाषण भी देना पड़ता है और दोनों ही मामलों में पार्टी बेहद खाली थी। क्योंकि उसके पास न तो जनता थी और न ही मुद्दे। लेकिन रोड शो में इन सब चीजों की ज्यादा जरूरत नहीं होती है। बस पंप और शो से काम चल जाता है।
लेकिन मोदी और बीजेपी को क्या कहा जाए। उनकी पूरी राजनीति ही झूठ और फरेब के सहारे चल रही है। अगर कोई इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें वो ऐसे प्रधानमंत्री के तौर पर चुनाव-दर चुनाव अपनी साख गिराने के लिए जाने जाएंगे। लेकिन यहां हम बात कर रहे हैं चुनाव आयोग की। अब कोई पूछ सकता है कि शिकायती पत्र हासिल करने के बाद चुनाव आयोग को सबसे पहले उसके तथ्यों की जांच करनी चाहिए थी।
उसके बाद ही कोई कदम उठाना चाहिए था। किसी छोटी से छोटी सरकारी संस्था के लिए यह एक बुनियादी शर्त है। यह तो चुनाव आयोग है एक संवैधानिक संस्था। जिसकी सीधे जनता और संसद के प्रति जवाबदेही है। लेकिन चुनाव आयुक्तों ने इसकी कोई जरूरत नहीं समझी। ऐसा नहीं है कि आयोग के पास स्टाफ नहीं था। या फिर सोनिया का भाषण उनकी पहुंच से दूर था। या फिर ऐसा कोई संकट था जिससे इसके तथ्यों की जांच नहीं हो सकती थी। मामला ये सब है ही नहीं।
असल में आयोग ने अपने पूरे वजूद को सरकार के हाथों गिरवी रख दिया है। और उसे सरकार के इशारों की दरकार रहती है। सरकार से हरी झंडी मिलते ही वह विपक्षी दलों और उसके नेताओं पर टूट पड़ती है। इसी तरह से बीजेपी के भ्रष्टाचार संबंधी रेट से जुड़े कांग्रेस के विज्ञापन के मामले में भी उसने यही किया था।
अभी बीजेपी के नेताओं ने शिकायत ही की थी कि आयोग ने नोटिस भेज दिया और समयबद्ध सीमा में उसका जवाब देने का निर्देश दे दिया। इस मामले में भी जब चुनाव आयोग से तथ्यों में हेर-फेर की बात कही गयी तो उसका कहना था कि नोटिस नहीं दी गयी है जवाब मांगा गया है। अब कोई पूछ सकता है कि अगर तथ्य सही नहीं हैं तो फिर भला जवाब किस बात का। लेकिन इसकी हिमाकत भला कौन करे? पूछने का काम करने वाला मीडिया तो उन्हीं की गोद में बैठा है।
सत्ता के साथ किस कदर उसने गलबहियां कर रखी है उसका कोई अकेला उदाहरण यह नहीं है। इसके पहले जितनी शिकायतें कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों द्वारा की गयीं उनका आयोग ने कोई संज्ञान नहीं लिया। मसलन पूरे चुनाव के दौरान पीएम मोदी बजरंग बली का नारा लगाते रहे और उसके नाम पर वोट मांगते रहे।
कांग्रेस ने इसकी शिकायत भी चुनाव आयोग में जाकर दर्ज करवायी कि धर्म और देवी-देवता के नाम पर वोट मांगना संविधान की बुनियादी मान्यताओं के खिलाफ है। यह न केवल सेकुलरिज्म के खिलाफ है बल्कि देश में लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों पर भी पानी फेरने जैसा है। लेकिन चुनाव आयोग शिकायतों की फाइल पर बैठा रहा। पीएम से न कोई जवाब मांगा और न ही इसकी कोई सुध ली।
(जनचौक ब्यूरो की रिपोर्ट।)
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