चुनाव अत्याचार को खत्म करने की गारंटी नहीं: चीफ जस्टिस एनवी रमना

Estimated read time 1 min read

“कोविड-19 महामारी के कारण पूरी दुनिया के सामने आ रहे ‘अभूतपूर्व संकट’ को देखते हुए, हमें आवश्यक रूप से रुक कर खुद से पूछना होगा कि हमने हमारे लोगों की सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित करने के लिए ‘कानून के शासन’ का किस हद तक इस्तेमाल किया है।” 

उपरोक्त बातें भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कल बुधवार को 17वें न्यायमूर्ति पीडी देसाई स्मृति व्याख्यान’ में कही है। उन्होंने आगे कहा है कि – “मुझे लगने लगा था कि आने वाले दशकों में यह महामारी अभी और भी बड़े संकटों को सामने ला सकती है। निश्चित रूप से हमें कम से कम यह विश्लेषण करने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए कि हमने क्या सही किया और कहां गलत किया।” 

भारत के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना ने बुधवार को कहा कि हर कुछ वर्षों में एक बार “शासक” को बदलने का जनता का अधिकार केवल “अत्याचार” ख़िलाफ़ गारंटी नहीं है। साथ ही उन्‍होंने ये भी तर्क दिया कि लोकतंत्र का फायदा तभी होगा, जब इन दोनों की बातें तर्क के साथ सुनी जाएं। 

मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना ने आगे कहा कि – “अब तक हुए 17 आम चुनावों में, लोगों ने सत्ताधारी दल या पार्टियों के संयोजन को आठ बार बदला है, जो आम चुनावों की संख्या का लगभग 50% है। बड़े पैमाने पर असमानता, अशिक्षा, पिछड़ापन, गरीबी और कथित अज्ञानता के बावजूद, स्वतंत्र भारत के लोगों ने खुद को बुद्धिमान और कार्य के लिए सिद्ध किया है। जनता ने अपने कर्तव्यों का बखूबी निर्वहन किया है। अब, यह उन लोगों की बारी है जो राज्य के प्रमुख अंगों पर विचार कर रहे हैं कि क्या वे संवैधानिक जनादेश को जी रहे हैं।”

मुख्य न्यायाधीश ने औपनिवेशिक काल का उल्लेख करके कहा कि जब कानून को “राजनीतिक दमन के उपकरण” के रूप में इस्तेमाल किया गया था। CJI ने कहा, “मुझे लगता है कि एक संप्रभु द्वारा समर्थित किसी भी कानून को कुछ आदर्शों या न्याय के सिद्धांतों से प्रभावित होना चाहिए।” वह।

मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि यह समय रुकने और यह पूछने का है कि महामारी के दौरान आम लोगों की सुरक्षा के लिए किस हद तक कानून के शासन का इस्तेमाल किया गया।

उन्होंने आगे अपनी सीमा का उल्लेख करते हुये कहा कि ” मैं इसका मूल्यांकन प्रदान करने का इरादा नहीं रखता हूं। मेरा कार्यालय और मेरा स्वभाव दोनों ही मुझे ऐसा करने से रोकते हैं। लेकिन मुझे लगने लगा था कि आने वाले दशकों में यह महामारी अभी और भी बड़े संकटों का पर्दाफाश कर सकती है। निश्चित रूप से, हमें कम से कम यह विश्लेषण करने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए कि हमने क्या सही किया और कहां गलत किया।”

इसके साथ ही CJI ने सोशल मीडिया के प्रभाव और शोर से सावधान रहने की आवश्यकता पर भी जोर देते हुये कहा, ‘साथ ही न्यायाधीशों को भी सोशल मीडिया मंचों पर जनता द्वारा व्यक्त की जाने वाली भावनात्मक राय से प्रभावित नहीं होना चाहिए। न्यायाधीशों को इस तथ्य से सावधान रहना होगा कि इस प्रकार बढ़ा हुआ शोर जरूरी नहीं कि जो सही है उसे प्रतिबिंबित करता हो।’ 

उन्होंने आगे कहा कि, “कार्यपालिका के दबाव के बारे में बहुत चर्चा होती है, एक चर्चा यह शुरू करना भी अनिवार्य है कि कैसे सोशल मीडिया के रुझान संस्थानों को प्रभावित कर सकते हैं।” 

न्यायमूर्ति रमना ने मीडिया ट्रॉयल पर टिप्पणी करते हुये कहा कि – “नये मीडिया उपकरण जिनमें किसी चीज को बढ़ा-चढ़ा कर बताए जाने की क्षमता है, लेकिन वे सही और गलत, अच्छे और बुरे और असली तथा नकली के बीच अंतर करने में असमर्थ हैं। इसलिए ‘मीडिया ट्रायल’ मामलों को तय करने में मार्गदर्शक कारक नहीं हो सकते।” 

चीफ जस्टिस ने कहा कि मीडिया ट्रायल मामलों को तय करने में मार्गदर्शक कारक नहीं हो सकते। आलोचना और विरोध की आवाज़ लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा है। हम एक लोकतंत्र में रहते हैं। लोकतंत्र का सार यह है कि उसके नागरिकों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन कानूनों में भूमिका निभानी होती है जो उन्हें नियंत्रित करते हैं। भारत में, यह चुनावों के माध्यम से किया जाता है, जहां लोगों को संसद का हिस्सा बनने वाले लोगों को चुनने के लिए अपने सार्वभौमिक मताधिकार का प्रयोग करने का अधिकार मिलता है। 

सीजेआई जस्टिस एन वी रमना ने कहा, जजों को यह ध्‍यान रखना होगा कि बढ़ा हुआ शोर इस बात का प्रतीक नहीं होता क्‍या सही है और क्‍या गलत। मीडिया टूल्‍स बदलाव करने की ज़रूरत है जो ये तय कर सकें कि क्‍या सही है और क्‍या गलत, क्‍या असली है और क्‍या नकली। देश के आलोचना और विरोध लोकतंत्र का हिस्‍सा है। 

सीजेआई ने ‘17वें न्यायमूर्ति पीडी देसाई स्मृति व्याख्यान’ को डिजिटल तरीके से संबोधित करते हुए क़ानून के शासन के लिये न्यायपालिका की स्वतंत्रता को रेखांकित किया और कहा कि-” न्यायपालिका को सरकारी शक्ति और कार्रवाई पर रोक लगाने के लिए “पूर्ण स्वतंत्रता” की आवश्यकता है। न्यायपालिका को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विधायिका या कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है, अन्यथा कानून का शासन भ्रामक हो जाएगा।” 

उन्होंने आगे कहा कि -” अगर न्यायपालिका को सरकार के कामकाज पर निगाह रखनी है तो उसे अपना काम करने की पूरी आजादी की ज़रूरत होगी। न्यायपालिका को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, विधायिका या कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है, वरना ‘कानून का शासन’ भ्रामक हो जाएगा।” 

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author