Friday, March 29, 2024

उपलब्धियों का एक साल: किसान आंदोलन बना राजनीतिक एजेंडे की धुरी

भारत की जनसंख्या 139 करोड़ है जिसने सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार साढ़े चौदह करोड़ परिवार किसान हैं, लेकिन किसानों के मुद्दे आजादी के 74 वर्ष बाद भी राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा नहीं बने थे । 

26 नवंबर, 2020 से दिल्ली की सीमाओं पर शुरू हुए किसान आंदोलन ने किसानों के मुद्दे को राजनीतिक एजेंडे में ला दिया है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रोज ही किसानों के मुद्दे अखबारों और चैनलों पर छाए रहे हैं । तमाम घटनाओं के चलते ही सही गोदी मीडिया को भी किसान आंदोलन को दिखाना पड़ा, भले ही गोदी मीडिया इसके खिलाफ दुर्भावना पूर्ण भ्रामक प्रचार – प्रसार करता रहा हो। विशेष तौर पर 26 जनवरी की घटना को लेकर किसान आंदोलन को राष्ट्र विरोधी, खालिस्तानी समर्थक आंदोलन साबित करने की कोशिश की जाती रही।

 भाजपा नेताओं का अनर्गल प्रलाप – संयुक्त किसान मोर्चा के गठन के बाद जब ‘दिल्ली चलो’ आंदोलन की शुरुआत की गई, तब ही से भाजपा के हरियाणा के  मुख्यमंत्री , केंद्र सरकार के मंत्रियों और पुलिस अफसरों ने अनर्गल प्रलाप शुरू कर दिया था। मनोहर लाल खट्टर ने यदि पंजाब के किसानों को चुनौती देकर हर  गैर संवैधानिक तरीके से रोकने की कोशिश नहीं की होती तथा 26-27 नवंबर को यदि किसानों को दिल्ली प्रवेश कर रामलीला मैदान पहुंचने दिया होता, तब शायद आंदोलन दो दिन में ही समाप्त होने की  संभावना हो सकती थी। लेकिन केंद्र सरकार और भाजपा के मुख्यमंत्रियों और पार्टियों के नेताओं के अनर्गल बयान ने लगातार किसानों को अपमानित कर उकसाने का काम किया, जिसके चलते आंदोलन लगातार आगे बढ़ता गया ।

      भाजपा सांसद अरविंद शर्मा ने आंख निकालने और हाथ काटने, दूसरे सांसदों ने भी किसानों को शराबी, बेरोजगार और खालिस्तानी, विदेशी फंड से काम करने वाला और विपक्ष द्वारा निर्देशित आंदोलन करने वाला बताया। गृह राज्य मंत्री ने उन्हें मवाली तक कहा।

 26 जनवरी का षड्यंत्र केंद्र सरकार द्वारा रचकर आंदोलन को बदनाम कर समाप्त करने की असफल कोशिश गई परंतु एक साल तक तमाम साजिशों  के बावजूद भाजपा ना तो किसानों को तीनों कानूनों के पक्ष में खड़ा कर सकी, ना ही कोरे भाषण करने के अलावा यह साबित कर सकी कि तीनों कानून किसानों के पक्ष में है। दूसरी तरफ किसान संगठनों ने पूरे देश में किसानों के बीच यह स्थापित करने में कामयाबी हासिल की कि तीनों कानून किसानों की जमीन छीनने और खेती- किसानी को बर्बाद करने के लिए लाए जा रहे हैं। इसलिए देश के किसान इस आंदोलन से भावनात्मक तौर पर जुड़ गए।                              

सुप्रीम कोर्ट भी उतरा मैदान में- केंद्र सरकार द्वारा यह कोशिश की गई कि सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से सीएए-एनआरसी आंदोलन की तरह किसान आंदोलन को सड़कों से हटाया जाए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने विरोध करने के अधिकार को मानते हुए पुलिस द्वारा रोके गए किसानों को हटाने का निर्देश नहीं दिया। पिछले महीने जब रास्ते खोलने की बात हुई, तब यह साफ हो गया कि रास्ते पुलिस द्वारा रोके गए थे, किसानों द्वारा नहीं। 25 नवंबर को फिर गाज़ीपुर बॉर्डर पर अवरोध खड़े कर दिए गए हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने 4 सदस्यीय समिति बनाकर हस्तक्षेप करने की कोशिश की, लेकिन वह नाकामयाब रही। क्योंकि किसानों ने समिति को मानने से इनकार कर दिया ।

सर्वोच्च न्यायालय यदि चाहता तो गत एक वर्ष में तीनों कानूनों की संवैधानिकता को लेकर निर्णय दे सकता था, लेकिन उसने अपना काम नहीं किया। लखीमपुर खीरी के प्रकरण में पूर्व न्यायाधीश को जांच का जिम्मा सौंप कर प्रकरण में हस्तक्षेप करने का काम ज़रूर किया जो स्वागत योग्य है, लेकिन इस प्रकरण में भी आश्चर्यजनक तौर पर गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी को प्रकरण दर्ज होने के बावजूद भी मंत्रिमंडल से हटाने का निर्देश नहीं दिया गया।

 किसानों की सफलता का राज – 26 नवंबर 20 से आज 26 नवंबर 21 तक किसान आंदोलन का अहिंसक बना रहना ही किसान आंदोलन की सफलता का मुख्य कारण है, लेकिन केवल अहिंसक होने से कोई आंदोलन सफल नहीं हो जाता। संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व ने लगातार जिस कुशलता से आंदोलन का संचालन किया तथा जिस एकजुटता के साथ 550 किसान संगठन कार्य करते रहे इसके चलते भी आंदोलन को सफलता मिली।

इसके बावजूद भी आंदोलन सफल नहीं हो सकता था, यदि दिल्ली की बॉर्डरों पर हजारों की संख्या में सेवा करने वाले रसद – पानी के साथ गत एक वर्ष से मौजूद नहीं रहते। इसका मुख्य श्रेय गुरुद्वारों के लंगर सेवा करने वाले तथा पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उन गांवों के किसानों को भी जाता है, जिन्होंने अपने संसाधनों के दम पर अपने तंबू लगाकर आज तक अपने गांव के किसानों को लगातार बॉर्डर पर पहुंचा कर आंदोलन को सतत रूप से चलाया है।

सफलता का मूल मंत्र सर्वधर्म समभाव और सभी जातीय समूहों को सम्मान देना भी रहा। 

आंदोलन ने विभिन्न विचारों के संगठनों को एक साथ लाने में बड़ी सफलता हासिल की।

हालांकि बॉर्डरों पर शुरू से सिखों की उपस्थिति सर्वाधिक बनी हुई है लेकिन हिंदुओं और मुसलमानों की संख्या भी सिखों की तुलना में सभी पक्के मोर्चों को मिलाकर देखने पर कम नहीं दिखलाई देती। संयुक्त किसान मोर्चा के आंदोलन के विस्तार की नेतृत्व की रणनीति भी सफलता का मुख्य कारण बनी। सरकार और गोदी मीडिया लगातार यह साबित करने में जुटा रहा कि आंदोलन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक सीमित है, परंतु संयुक्त किसान मोर्चा ने अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति की मदद से बराबर इस आंदोलन को राष्ट्रव्यापी बनाये रखा। पिछले 12 महीने में 100 से ज्यादा राष्ट्रीय आह्वान किए गए, जिनका पालन देशभर के लगभग 70 प्रतिशत जिलों में हुआ है।

किसानों के समर्थन में उतरे मजदूर संगठन – आमतौर पर यह माना जाता है कि किसान और मजदूर एक दूसरे के खिलाफ रहते है क्योंकि किसान मालिक है, और मजदूर उसका नौकर। दोनों के हित एक दूसरे के खिलाफ हैं। लेकिन अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति जिसने संयुक्त किसान मोर्चा का गठन किया था, ने समन्वय समिति के गठन के बाद से ही किसानों और खेतिहर मजदूरों के हितों का ख्याल रखकर न केवल आंदोलन चलाया बल्कि कर्जा मुक्ति, लाभकारी मूल्य की गारंटी बिल लोकसभा और राज्यसभा में पेश करते वक्त किसानों और मजदूरों के हितों का ध्यान भी रखा।

     भारत सरकार ने जिस तरह पहले अध्यादेश लाकर तथा बाद में संसद में असंसदीय तरीके से कानून बनाकर किसानों पर थोप दिए, उसी तरह तमाम श्रमिक कानूनों को समाप्त कर चार लेबर कोड कोरोना काल में लाकर देश के 54 करोड़ श्रमिकों पर थोप दिए। भारत सरकार ने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक क्षेत्रों का निजीकरण किया। मोनेटाइजेशन के नाम पर देश की सौ लाख करोड़ रुपए की संपत्ति को छह लाख करोड़ में अडानी – अंबानी को सौंपने का रास्ता प्रशस्त किया। जिसके तहत रेल, हवाई जहाज, बंदरगाह, सड़कों को निजी क्षेत्रों को सौंपने का क्रम जारी है। सरकार की इन श्रम विरोधी नीतियों के खिलाफ 10 केंद्रीय श्रमिक संगठनों सहित देशभर के श्रमिक संगठनों ने विरोध किया। जिसका समर्थन संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा देशभर में किया गया। किसानों और मजदूरों के बीच इस तरह की एकजुटता देश में पहली बार देखी गई।

एमएसपी पर संघर्ष जारी रहेगा – प्रधानमंत्री द्वारा लॉक डाउन और नोटबन्दी के तर्ज पर अचानक तीनों कानून वापस लेने की घोषणा कर दी, बाद में कैबिनेट ने भी इस आशय का प्रस्ताव पारित कर दिया। अर्थात अब यह संभावना बहुत कम है कि कानून वापस न हों, परन्तु प्रधानमंत्री ने जिस तरीके से बात रखी उससे स्पष्ट होता है कि वे अभी भी मानते हैं कि कानून किसानों के हित में नहीं हैं। परन्तु उन्हें डर है कि यदि आंदोलन चलता रहा तो उत्तर प्रदेश में योगी बाबा की हार तय है। ऐसी स्थिति में नरेंद्र मोदी का खुद को असुरक्षित महसूस करना स्वाभाविक है।

किसानों ने स्पष्ट कर दिया है कि सभी मांगे विशेष तौर पर एमएसपी की मांग पूरी नहीं होने तक आंदोलन जारी रहेगा।

अगले वर्ष आंदोलन की क्या होगी रणनीति – संयुक्त किसान मोर्चा अपनी रणनीति एक प्रक्रिया से तय करता है। पहले पंजाब की 32 जत्थे बन्दियाँ  आपस मे चर्चा करती है। फिर एसकेएम से जुड़े 

संगठनों की बैठक में खुली चर्चा होती है। इस बैठक में अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के वर्किंग ग्रुप की राय भी संगठनों के साथियों की ओर से रखी जाती है।जो भी निर्णय होता है उसका  पूरे देश के किसान संगठनों द्वारा पालन किया जाता है।

आंदोलनों के मेरे अनुभव से मुझे लगता है कि एमएसपी का आंदोलन गत एक वर्ष से चल रहे आंदोलन से अत्यधिक बड़ा और प्रभावशाली होगा, क्योंकि एमएसपी न मिलने से किसानों की कई पीढ़ियां पीड़ित रही हैं। 1992 के बाद मनमोहन सिंह सरकार द्वारा अपनाई गई नई आर्थिक नीतियों के चलते साढ़े सात लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं तथा गत एक वर्ष में 700 से अधिक किसान शहीद हुए हैं।

शहीद स्मारक निर्माण की जरूरत -मिट्टी सत्याग्रह यात्रा के बाद दिल्ली की सभी सीमाओं पर अस्थायी शहीद स्तम्भ खड़े किए गए हैं। लेकिन दिल्ली में एक शहीद किसानों का स्मारक बनाये जाने की जरूरत है।

शहीद परिवारों को अभी कुछ राज्य सरकारों ने  5 -5 लाख की राशि सौंपने की घोषणा की है।सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने यू पी में सरकार बनने पर 25 लाख रुपये का मुआवजा देने की घोषणा की है। किसान चाहते हैं कि केंद्र सरकार सभी शहीद परिवारों को एक एक करोड़ दे।

गृह राज्य मंत्री को गिरफ्तार कर बर्खास्त करने की मांग को आज नहीं तो कल मानना ही होगा। अन्यथा उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा के नेताओं को दौरा करने में मुश्किल होगी।

संयुक्त किसान मोर्चे ने नो वोट टू बीजेपी अभियान उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में चलाने की घोषणा की है जिससे भाजपा के हाथ पैर फूले हुए हैं।

कुल मिलाकर आंदोलन कब तक चलेगा यह भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता परन्तु यह तो है कि यदि एमएसपी को लेकर सरकार कोई घोषणा करती है तो जरूर किसान आंदोलन समाप्त कर सकते हैं ।

केंद्र सरकार को तय करना होगा कि वह उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार खो कर घोषणा करती है या नरेंद्र मोदी खुद अपनी केंद्र सरकार गंवाने को तैयार होते हैं, यह कहा नहीं जा सकता। आज देश मे ‘एमएसपी नहीं, तो घर वापसी नहीं’ के नारे ने यह संदेश केंद्र सरकार को स्पष्ट तौर पर दे ही दिया है।                                                         

 (डॉ सुनीलम पूर्व विधायक और किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles