संज्ञेय मामलों में एफआईआर और सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश

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थानों में एफआईआर या प्रथम सूचना रिपोर्ट, जिसे प्राथमिकी भी कहते हैं को, दर्ज न किए जाने की शिकायत, एक आम शिकायत है। यह शिकायत आज की नहीं है, बल्कि लम्बे समय से आम जनता, जिनका वास्ता पुलिस थानों से पड़ता रहा है, एफआईआर दर्ज न किए जाने की शिकायत से पीड़ित होती रही है। पुलिस के बड़े अधिकारी भी मुकदमा न लिखने या उचित धारा में मुकदमा दर्ज न होने की प्रवृत्ति से अवगत हैं।

इसे पुलिस की विभागीय भाषा में कंसीलमेंट यानी मुकदमे का न लिखना यानी अपराध को छुपा जाना और मिनिमाइजेशन यानी, अपराध को वास्तविक धाराओं में दर्ज न करके अपेक्षाकृत हल्की धाराओं में दर्ज करने की प्रवृत्ति कहा जाता है। थानों में अपराध सही सही दर्ज हों, इस हेतु उत्तर प्रदेश में टेस्ट रिपोर्ट की एक प्रथा चलाई गई थी, जिसमें मुकदमा दर्ज न करने पर थानों के थानाध्यक्ष दंडित होते थे। अब यह प्रथा संभवतः समाप्त हो गई है।

यदि कानून की बातें करें तो पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज न करना, या दर्ज करने में पुलिस द्वारा किसी प्रकार की देरी करना या दर्ज करने से इन्कार करना, सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्णीत ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार और अन्य (2013) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा दिए गए दिशानिर्देशों का उल्लंघन भी है। ललिता कुमारी, उत्तर प्रदेश की रहने वाली एक नाबालिग लड़की थी, जिसका अपहरण हो गया था।

ललिता कुमारी के पिता, भोला कामत ने संबंधित थाने के प्रभारी अधिकारी को लिखित शिकायत दी, कि उसकी पुत्री का अपहरण हो गया है और उसकी शिकायत पर एफआईआर दर्ज की जाये। लेकिन संबंधित पुलिस अधिकारियों ने एफआईआर दर्ज नहीं किया और न ही कोई कार्रवाई की।

भोला कामत ने पुलिस अधीक्षक के यहां दरख्वास्त दी। तब जाकर उसकी शिकायत पर संबंधित पुलिस थाने पर मुकदमा दर्ज हुआ। लेकिन भोला कामत की एफआईआर दर्ज होने के बाद भी स्थानीय पुलिस ने न तो गंभीरता से एफआईआर और अपहरण की विवेचना-जांच की और न ही ललिता कुमारी का पता लगाने के लिए कोई ठोस प्रयास किया।

पुलिस की इस निष्क्रियता से तंग आकर भोला कामत ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (हैबियस कोर्पस) दायर करके सर्वोच्च न्यायालय के रिट क्षेत्राधिकार के अंतर्गत राहत की याचना की। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि “प्राथमिकी दर्ज करने में असमानता है और दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 154 के अंतर्गत, किसी भी संज्ञेय अपराध (कोगनीजेबल ऑफेंस) के बारे में जानकारी होते ही एक पुलिस अधिकारी प्राथमिकी दर्ज करने के लिए बाध्य है या नहीं, इस पर अलग-अलग निर्णय दिए गए हैं।

संज्ञेय अपराध, जैसा कि सीआरपीसी में परिभाषित किया गया है, ‘एक ऐसा अपराध है जिसके लिए एक पुलिस अधिकारी, अभियुक्त को बिना वारंट के गिरफ्तार करने के लिए शक्ति संपन्न और अधिकृत है।’ यह हत्या, अपहरण, बलात्कार और यौन उत्पीड़न जैसे जघन्य और गंभीर अपराधों पर लागू होता है। सीआरपीसी के अंत में ऐसे अपराधों की सूची दी गई है। उसमें संज्ञान लेने वाले न्यायिक मजिस्ट्रेट और उक्त धारा के अंतर्गत, कितनी सजा दी जा सकती है, का भी उल्लेख किया गया है।

इस बिंदु पर अलग अलग उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट के भी कई निर्णय ऐसे थे जो, परस्पर विरोधी प्रकृति के थे। परस्पर विरोधी निर्णयों का अध्ययन करने के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को गहराई से सुनने के लिए संविधान पीठ को संदर्भित कर दिया। तत्कालीन सीजेआई पी सदाशिवम के नेतृत्व वाली संविधान पीठ ने एफआईआर दर्ज करते समय भारत भर के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पुलिस द्वारा पालन किए जाने वाले दिशानिर्देश जारी किए।

सीजेआई सदाशिवम के नेतृत्व वाली संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि “अगर पुलिस को मिली सूचना से संज्ञेय अपराध होने का खुलासा होता है तो प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है। ऐसी स्थिति में किसी प्रकार की प्रारंभिक जांच की अनुमति और प्राविधान नहीं है। संज्ञेय अपराध का खुलासा होने पर पुलिस अधिकारी, अपराध दर्ज (एफआईआर) करने के अपने कर्तव्य से बच नहीं सकता है।”

अदालत ने अपने फैसले में यह भी कहा कि, “जो अधिकारी, संज्ञेय अपराध का संज्ञान होते ही उक्त अपराध की एफआईआर दर्ज नहीं करते उन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।”

सुनवाई के ही दौरान प्रारंभिक जांच/पूछताछ का भी बिंदु उठा था। प्रारंभिक पूछताछ के बिंदु के बारे में उठे सवाल का समाधान करते हुए कोर्ट ने आदेश दिया था कि, “अगर प्रारंभिक जांच/पूछताछ की जरूरत है, तो उन्हें समयबद्ध होना चाहिए और यह समय सीमा, सात दिनों से अधिक की नहीं होनी चाहिए।”

हालांकि इस समय सीमा को वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश से संशोधित भी कर दिया गया। उक्त संशोधन के अनुसार, “प्रारंभिक जांच पूरी करने की समय सीमा आम तौर पर 15 दिन और असाधारण मामलों में छह सप्ताह तक बढ़ा दी गई थी।”

न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि “प्रारंभिक जांच केवल यह पता लगाने के लिए की जा सकती है कि संज्ञेय अपराध का खुलासा हुआ है या नहीं और जांच का दायरा उस सीमा तक ही सीमित होगा।”

निश्चित रूप से यह प्राविधान उक्त संशय के समाधान के लिए था जहां अपराध की इसी प्रवृत्ति पर संशय हो कि अपराध संज्ञेय है या नहीं। लेकिन प्रारंभिक जांच या पूछताछ का यह प्राविधान किसी संज्ञेय अपराध की पुख्ता सूचना मिलने पर नहीं लागू होता है। संज्ञेय अपराध की सूचना मिलते ही पुलिस एफआईआर दर्ज करेगी और सीआरपीसी के प्राविधानों के अनुसार विवेचना करेगी।

सुप्रीम कोर्ट ने एफआईआर दर्ज करने के संबंध में ललिता कुमारी मुकदमे में निम्नलिखित दिशानिर्देश जारी किए हैं…

  1. संहिता की धारा 154 के तहत प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है, यदि सूचना संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है तो, और ऐसी स्थिति में कोई प्रारंभिक जांच की अनुमति नहीं है।
  2. यदि प्राप्त जानकारी एक संज्ञेय अपराध का खुलासा नहीं करती है, लेकिन एक जांच की आवश्यकता को इंगित करती है, तो प्रारंभिक जांच केवल यह पता लगाने के लिए की जा सकती है कि संज्ञेय अपराध का खुलासा हुआ है या नहीं।
  3. यदि जांच में संज्ञेय अपराध होने का खुलासा होता है, तो प्राथमिकी दर्ज की जानी चाहिए। ऐसे मामलों में जहां प्रारंभिक जांच, शिकायत को बंद करने में समाप्त हो जाती है, ऐसे बंद होने की प्रविष्टि की एक प्रति, एफआईआर के वादी को तत्काल या अधिकतम एक सप्ताह अंदर दे दी जानी चाहिए। इस आख्या में, शिकायत को बंद करने और आगे कार्रवाई न करने के कारणों का संक्षेप में खुलासा भी करना चाहिए।
  4. संज्ञेय अपराध का खुलासा होने पर पुलिस अधिकारी अपराध दर्ज करने के अपने कर्तव्य से नहीं बच सकता है। प्राथमिकी दर्ज नहीं करने वाले दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए, यदि उनके द्वारा प्राप्त सूचना, संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है तो।
  5. प्रारंभिक जांच का दायरा, प्राप्त जानकारी की सत्यता या अन्यथा की पुष्टि करना नहीं है, बल्कि केवल यह पता लगाना है कि क्या जानकारी किसी संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है या नहीं।
  6. किस प्रकार और किस मामले में प्रारंभिक जांच की जानी है, यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। मामलों की श्रेणी जिनमें प्रारंभिक जांच की जा सकती है, निम्नानुसार हैं:
    (ए) वैवाहिक विवाद / पारिवारिक विवाद
    (बी) वाणिज्यिक अपराध
    (सी) चिकित्सा लापरवाही के मामले
    (डी) भ्रष्टाचार के मामले
    (ङ) ऐसे मामले जहां आपराधिक मुकदमा शुरू करने में असामान्य देरी/कमी है, उदाहरण के लिए, देरी के कारणों को संतोषजनक ढंग से बताए बिना मामले को रिपोर्ट करने में 3 महीने से अधिक की देरी।
    पूर्वोक्त केवल उदाहरण हैं और उन सभी शर्तों का संपूर्ण नहीं है जो प्रारंभिक जांच को वारंट कर सकती हैं।
  7. चूंकि सामान्य डायरी/स्टेशन डायरी/दैनिक डायरी एक पुलिस स्टेशन में प्राप्त सभी सूचनाओं का रिकॉर्ड है, अतः हम निर्देश देते हैं कि संज्ञेय अपराधों से संबंधित सभी जानकारी, चाहे एफआईआर दर्ज की गई हो या जांच के लिए, अनिवार्य रूप से होनी चाहिए और उक्त डायरी में सावधानी से परिलक्षित होता है और जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, प्रारंभिक जांच करने का निर्णय भी परिलक्षित होना चाहिए।

उपरोक्त दिशा-निर्देशों से यह स्पष्ट है कि शीर्ष अदालत इस बिंदु पर पूरी तरह से दृढ़ है कि संज्ञेय अपराध यदि हुआ है तो, उसकी एफआईआर, प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होनी ही चाहिए और उसमें कोई देर भी नहीं की जानी चाहिए।

आज, समय से मुकदमा न लिखने का एक चर्चित मामला कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और सांसद बृज भूषण शरण सिंह के खिलाफ, कुछ महिला पहलवानों द्वारा यौन शौषण के आरोपों का है। काफी जद्दोजहद और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद दिल्ली पुलिस ने महिला पहलवानों की एफआईआर दर्ज की।

डब्ल्यूएफआई के पूर्व अध्यक्ष पर आईपीसी की धारा 354 ए (अवांछित शारीरिक संपर्क और पेशों की प्रकृति का यौन उत्पीड़न या यौन एहसान के लिए मांग या अनुरोध) और पॉक्सो POCSO अधिनियम की धारा 11 ( नाबालिग के यौन उत्पीड़न ) के तहत अपराधों का आरोप लगाया गया है। ये दोनों संज्ञेय अपराध हैं और इसलिए दिल्ली पुलिस द्वारा, इन अपराधों के होने की सूचना मिलते ही सीआरपीसी की धारा 154 के तहत प्राथमिकी दर्ज कर लिया जाना चाहिए था।

यह शिकायत, स्पष्ट रूप से संज्ञेय अपराध होने का खुलासा करती है तो फिर कानूनन और सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश के अनुसार किसी भी प्रारंभिक जांच की अनुमति नहीं दी जा सकती है। यदि किसी कारण से प्रारंभिक जांच होनी भी थी तो पहली बार आरोप सामने आने के 15 दिनों के भीतर जनवरी में ही शिकायत पर प्रारंभिक जांच शुरू कर देनी चाहिए थी।

जनवरी में आरोप लगाए जाने के बावजूद पुलिस प्राथमिकी दर्ज करने से हिचक रही थी। कई संज्ञेय अपराधों के आयोग का खुलासा करने वाली जानकारी के साथ-साथ स्पष्ट और मजबूत आरोप होने के बावजूद तीन महीने की देरी निंदनीय है।

भाजपा सांसद के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज न करने के पीछे राजनीतिक दबाव के रूप में किसी भी और सभी अनुमानों को अलग रखते हुए और कानूनी परिप्रेक्ष्य से इसे निष्पक्ष रूप से देखने पर, पुलिस का रुख कानून द्वारा निर्धारित कानून का उल्लंघन है। दिल्ली महिला आयोग ने 26 अप्रैल को इस कानूनी उल्लंघन के लिए आईपीसी की धारा 166ए के तहत पुलिस अधिकारियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने की सिफारिश की थी।

दिल्ली पुलिस पर देर से एफआईआर दर्ज करने का यह पहला आरोप नहीं है। इसके पहले भी राजनीतिक शक्ति और प्रभाव रखने वाले लोगों के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज करने में देरी की है।
उदाहरण के लिए पुलिस ने पांच महीने से अधिक की देरी के बाद 2021 की एक धर्म संसद में अभद्र भाषा (हेट स्पीच) के मामले में एफआईआर दर्ज की थी। यह घटना 19 दिसंबर 2021 की है, जबकि प्राथमिकी मई 2022 में दर्ज की गई। साथ ही विडंबना यह भी है कि इस देरी के लिए किसी भी जिम्मेदार अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई भी नहीं की गई।

एक अन्य प्रकरण है, जून 2022 में एक मृत महिला की मां ने अपनी दिवंगत बेटी के प्रेमी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के लिए पटियाला हाउस कोर्ट का रुख किया, जिस पर उसने अपनी बेटी को प्रताड़ित करने और आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप लगाया था। कोर्ट में की गई अपनी शिकायत में उसने उल्लेख किया कि इस मामले की शिकायत पुलिस को की गई थी लेकिन कोई मुकदमा दर्ज नहीं किया गया। मैजिस्ट्रेट कोर्ट के निर्देश के बाद ही दिल्ली पुलिस ने उक्त घटना की एफआईआर दर्ज की।

एफआईआर दर्ज न करने या देर से दर्ज करने की शिकायत केवल दिल्ली पुलिस से ही नहीं है, यह समस्या पूरे देश की है। उत्तर प्रदेश में जब हम नौकरी की शुरुआत (साल 1980) में आए थे तो क्राइम रजिस्टर में एक कॉलम दरियाफ्त हाल का चलता था। यह एक प्रकार की प्रारंभिक जांच का अप्राविधानित प्राविधान था। यह मुख्य रूप से ला शिनाख्त (न पहचाने जाने वाले) शवों के बारे में था। पर जब इसी की आड़ में संज्ञेय अपराधों को भी छिपाए जाने की प्रवृत्ति बन गई तो डीजीपी मुख्यालय से दरियाफ्त हाल सिस्टम को खत्म कर दिया गया और यह स्पष्ट निर्देश दिए गए कि एफआईआर लिखी जाए।

एक सवाल उठ सकता है कि साल 2013 के बाद से प्राथमिकी दर्ज करने संबंधी, जब से यह दिशानिर्देश निर्धारित किए गए हैं, शायद ही ऐसा कोई मामला सामने आया हो, जहां अदालतों ने प्राथमिकी दर्ज करने में की गई देरी का स्वत: संज्ञान लिया हो और दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई का आदेश दिया हो।

दरअसल यह मामला अदालत से उतना संबद्ध है भी नहीं, जितना कि पुलिस की विभागीय गतिविधियों से। वादी प्राथमिकी दर्ज कराने के बाद उक्त एफआईआर में पुलिस से अग्रिम कार्यवाही चाहता है, न कि उक्त एफआईआर में की गई किसी देरी (यदि देरी हुई है तो) के लिए अदालत का रुख करता है।

अदालत में यदि इस तरह की कोई शिकायत आती भी है तो अदालत इसे पुलिस विभाग की आंतरिक प्रशासनिक व्यवस्था का अंग बता कर खारिज कर सकती है। यह दायित्व पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों का है कि वे उन पुलिस अधिकारियों, जो एफआईआर दर्ज करने से इनकार या दर्ज करने में जानबूझकर और अनावश्यक विलंब करते है और संज्ञेय अपराधों की रिपोर्ट दर्ज करने का प्रयास करने वाले नागरिकों के प्रति अड़ियल रवैया रखते हैं, के प्रति कार्रवाई करते रहें, जिससे इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सके।

(विजय शंकर सिंह पूर्व आईपीएस हैं)

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