पांच सौ से ज्यादा लोग जुटे आशारोड़ी को बचाने के लिए

देहरादून। देहरादून के जंगलों को काटने का जो आंदोलन शुरू में बहुत कमजोर प्रतीत हो रहा था, वह अब मजबूत रूप ले रहा है। हालांकि अब तक शासन-प्रशासन की ओर से इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया है। रविवार 10 अप्रैल को एक बार फिर देहरादून के आशारोड़ी में प्रदर्शन किया गया। इस बार 500 से ज्यादा लोगों की भीड़ इस विरोध प्रदर्शन में जुटी। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् प्रो. रवि चोपड़ा भी विरोध प्रदर्शन में पहुंचे और पूरे समय प्रदर्शन में डटे रहे। इस बार कई दूसरी संस्थाओं ने भी प्रदर्शन में हिस्सा लिया। दून के 50 से ज्यादा बाइकर्स भी पेड़ों को बचाने की इस लड़ाई में शामिल हुए। बाइकर्स का कहना था कि बाइक का सफर हमें प्रकृति के ज्यादा करीब ले जाता है, लेकिन जब प्रकृति ही नहीं रहेगी तो फिर बाइक चलाने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। 

प्रदर्शन एक बार फिर सिटीजन फाॅर ग्रीन दून संस्था के नेतृत्व में किया गया। इसमें पराशक्ति, द अर्थ एंड क्लाइमेट चेंज इनिशिएटिव, उत्तराखंड महिला मोर्चा, एसएफआई, प्रमुख, आगास, अखिल गढ़वाल सभा आदि ने हिस्सा लिया। प्रदर्शन में शामिल होने आये पर्यावरणविद् प्रो. रवि चोपड़ा का कहना था कि हम भारतीय वनों को देवता मानते रहे हैं। हमारे यहां देववन की परंपरा रही है। लेकिन, आज जरूरत से ज्यादा सुविधाओं के लिए जंगलों को काटा जा रहा है। उनका कहना था कि साल के जंगलों की हम परवाह नहीं करते, क्योंकि ये पेड़ हमारे आसपास बहुतायत से हैं, जबकि साल का जंगल सिर्फ जंगल नहीं होता, यह जैव विविधता का भी पर्याय होता है। कई ऐसे जीव हैं जो सिर्फ इन्हीं जंगलों में मिलते हैं। इन जंगलों का खत्म करने का सीधा अर्थ सैकड़ों प्रजाति के जीवों को खत्म करना है।

नारे लिखी तख्तियां हाथों में लेकर किया प्रदर्शन।

सिटीजन फाॅर ग्रीन दून के हिमांशु अरोड़ा का कहना है कि हम चौड़ी सड़क और एक्सप्रेस हाईवे का विरोध नहीं कर रहे हैं, हम सरकार से सिर्फ इतना अनुरोध कर रहे हैं कि 11 किमी का घने जंगल वाला पैच छोड़ दिया जाए। यहां सड़क चौड़ी करनी ही है तो पेड़ों को काटे बिना ही चौड़ी करने की पूरी संभावनाएं हैं। उन संभावनाओं को तलाश कर हाईवे बनाया जाए। द अर्थ एंड क्लाइमेट चेंज इंनिशिएटिव की डाॅ. आंचल शर्मा का कहना है कि हम सिर्फ आशारोड़ी के 3 किमी के पैच को छोड़ देने की मांग कर रहे हैं। वे कहती हैं कि इस पैच को ऐसा ही रहने दिया जाए तो देहरादून पहुंचने में मुश्किल से दो मिनट की देर होगी।

दो मिनट के लिए साल के हजारों पेड़ों को काटना बहुत समझदारी वाला काम नहीं है। वे प्रस्तावित पौंटा हाईवे के लिए भी झाझरा के जंगलों को न छेड़ने की मांग करती हैं। पराशक्ति की रिद्धि के अनुसार वे विकास की विरोधी नहीं हैं, लेकिन विकास के नाम पर अंधा विकास बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। वे कहती हैं कि तीन किमी पैच पर जरूरत से ज्यादा चौड़ी सड़क के लिए उत्तराखंड के 2,572 पेड़ों की बलि देनी होगी, इनमें 1600 पेड़ साल के हैं। महिला मोर्चा की कमला पंत के अनुसार साल जैसे अनमोल पेड़ की बलि देकर जो गैर जरूरी विकास किया जा रहा है, वह जीवन के साथ खिलवाड़ है। वे कहती हैं, कि हमने अलग राज्य के आंदोलन जल, जंगल और जमीन के सवाल पर किया था। लेकिन, आज सरकारी नीतियां इन तीनों चीजों को सबसे पहले निशाना बना रही हैं। 

नुक्कड़ नाटक के माध्यम से प्रकृति और पर्यावरण को बचाने का संदेश दिया।

राज्य आंदोलनकारी जयदीप सकलानी जनगीतों के साथ इस आंदोलन में शामिल हुए। उनका कहना था कि राज्य में पेड़ तो काटे जाते हैं, लेकिन उनके बदले पेड़ लगाने का सिर्फ दिखावा किया जाता है। उन्होंने सवाल किया कि तीन साल पहले देहरादून में रिस्पना नदी के दोनों किनारों पर 20 किमी लंबाई में एक दिन में 2.50 लाख पेड़ लगाने का दावा किया गया था। पूरा शासन और प्रशासन कई दिनों तक इस सनक के चलते ठप रहा था और पूरा अमला तथाकथित वृहद वृक्षारोपण अभियान की तैयारियों में जुटा रहा था। लगभग सभी सरकारी विभागों को इस अभियान में झोंक दिया गया था और हजारों स्कूली बच्चों को भी शामिल किया गया था। वे पूछते हैं कि जो ढाई लाख पौधे रोपे गये थे, उनमें से कितने आज जीवित हैं। उन्होंने तंज किया कि क्या अब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री दिल्ली में बैठेंगे। यदि नहीं तो इतनी चौड़ी सड़क की भी जरूरत नहीं है।

विरोध प्रदर्शन में नुक्कड़ नाटक के माध्यम से भी जंगल बचाने का संदेश दिया गया। मुक्ति का मार्ग नाटक माध्यम से दर्शकों को बताया गया कि वनों से मनुष्य को पुनर्जीवित भी किया जा सकता है। इसीलिए असाध्य बीमारी की चपेट में आये मरीजों को डाॅक्टर कुछ दिन पहाड़ों में जाकर आबोहवा बदलने को कहा जाता है। कलाकारों ने नाटक के बाद वहां मौजूद दर्शकों को कथित विकास और आग से वनों की रक्षा करने, वनों को बचाने के आंदोलन हरसंभव हिस्सा लेने का प्रयास करने की और सतत विकास का समर्थन और अंधे विकास का विरोध करने की शपथ भी ली। नाटक में हिमांशु चौहान, शैलेन्द्र पंवार, सत्यम आदि कलाकार शामिल थे।

जनगीत गाकर किया जंगल काटने का विरोध।

यह आंदोलन आगे क्या मोड़ लेगा, कटते जंगलों को बचा पाएगा या नहीं, यह तो फिलहाल साफ नहीं है। सरकारें हाल के वर्षों में जिस तरह से जिद्दी हुई हैं और इस आंदोलन में भी जिस तरह से अब तक कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ है, उसे देखते हुए फिलहाल इन जंगलों की सुरक्षा दूर की कौड़ी ही लगती है। आंदोलनकारियों का कहना है कि आंदोलन हर हाल में शांतिपूर्ण तरीके से ही किया जाएगा। हाईवे जाम करने जैसा कदम उठाने का फिलहाल उनका कोई इरादा नहीं है। 10 अप्रैल को हुए प्रदर्शन में भी सैकड़ों की संख्या में लोगों के जुटने के बावजूद यातायात में किसी तरह की बाधा पैदा नहीं हुई। आंदोलनकारी तख्तियां लेकर हाईवे के दोनों तरफ लंबी कतार में खड़े हो गये और जंगलों को बचाने के लिए नारे लगाने के साथ ही जनगीत गाये। आंदोल की आगे की रणनीति क्या होगी, इसके लिए सिटीजन फाॅर ग्रीन दून को अधिकृत किया गया है।

संस्था का कहना है कि अगला प्रयास यह होगा कि आंदोलन सिर्फ खानापूर्ति बनकर न रह जाए और इसके कुछ सकारात्मक नतीजे निकलें, इस बारे में सोचना होगा। कानून विशेषज्ञों और पर्यावरण से जुड़े लोगों के साथ बातचीत करके आगे के लिए रणनीति तैयार की जाएगी। संस्था की जया सिंह के अनुसार यदि यह आंदोलन असफल रहा तो आने वाले समय में देहरादून के चारों तरफ के जंगल किसी न किसी रूप में काटे जाएंगे। इसलिए इस आंदोलन को सफल बनाने के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को जुटना पड़ेगा, ताकि इस शहर की आबोहवा और यहां की सुन्दरता को बनाये रखा जा सके। महिला मंच की कमला पंत ने कहा कि हर परिवार के एक सदस्य को इस आंदोलन से जुड़ना चाहिए, क्योंकि यह सिर्फ पेड़ बचाने का आंदोलन नहीं है, यह हमारी भावनाओं से जुड़ा मामला है और हमारी पीढ़ियों के अस्तित्व को बचाने का मामला है।

(देहरादून से वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोचन भट्ट की रिपोर्ट।)

त्रिलोचन भट्ट
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