Tuesday, March 19, 2024

भारत में कोरोना: 600 से 600000 यानी 1000 गुना की बढ़ोत्तरी!

आज फिर से भारत में कोविड-19 मामले में हमने एक नए मील के पत्थर को छू लिया है। भारत में कोरोनावायरस कन्फर्म मरीजों की संख्या 6 लाख को पार कर चुकी है 6,05,216 की संख्या को इसने 1 जुलाई को जाकर प्राप्त कर लिया है।

आज से ठीक 1 महीने पहले 1 जून 2020 को हम 2 लाख के आंकड़े पर पहुंचे थे, और हर 15 दिन पर यह आंकड़ा दो गुना हो रहा था, जो अब देखते हैं तो डेढ़ गुना होता दिख रहा है। अगर इस लिहाज से देखें तो हम कह सकते हैं कि भारत ने वाकई में काफी प्रगति की है, और कोविड-19 के प्रसार को काफी हद तक रोक कर रख दिया है। लेकिन ऐसा करने का अर्थ है सब कुछ जानते बूझते भी खुद को धोखा देना। 

अगर हम आज के आंकड़ों के हिसाब से कोरोनावायरस की प्रगति को देखें तो इस महीने के अंत तक इसे 18 लाख हो जाना चाहिए। लेकिन हो सकता है कि अंतिम निष्कर्षों तक पहुंचते समय वास्तविक तौर पर हम 20 लाख के आंकड़ों को ही छू पाएं। लेकिन कई तथ्य हैं जिन्हें नंगी आँखों से तो नहीं देखा जा सकता, लेकिन पूरी तरह से महसूस किया जा सकता है कि मामला काफी हद तक गड़बड़ है। 

भारत वाकई में अनेकताओं को लिए हुए है। एक ही काम के लिए देश में एक ही केन्द्रीय सरकार है, जिसका रुख कोविड-19 के प्रसार के नियन्त्रण को लेकर अलग-अलग हो सकता है। कुछ राज्य कोविड-19 की बढ़ती संख्या को लेकर पहले से ही सचेत थे, साधन संपन्न थे, और दो-दो हाथ के लिए भी तैयार कर रहे थे खुद को। लेकिन आज पसीने पसीने हैं। जी हाँ, यह बात दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे मेट्रो की है। 

89,014 की संख्या के साथ दिल्ली देश का सबसे बड़ा हॉटस्पॉट बना हुआ है।

दिल्ली की तस्वीर।

79,145 के साथ मुंबई अब दूसरे स्थान पर चल रहा है। लेकिन कुल मिलाकर राज्यस्तर पर ही आंकड़े आ रहे हैं तो उस लिहाज से वह शुरू से ही रेस में सबसे आगे नजर आता है, जबकि हकीकत तो ये है कि महाराष्ट्र में मुंबई के अलावा भी दो बड़े हॉटस्पॉट हैं। ठाणे जिले में यह संख्या 39,316 और पुणे में 23,317 पहुँच चुका है।

वहीं चेन्नई 60,533 की संख्या के साथ देश में तीसरा सबसे बड़ा हॉटस्पॉट बना हुआ है। ये तीन शहर ही अकेले भारत के 40% कोविड-19 के संक्रमितों का प्रतिनिधित्व करते दिखते हैं।

क्या यह तथ्यात्मक तौर पर सही है? 

88,26,585 टेस्टिंग अब तक की जा चुकी हैं देशभर में। अर्थात कोविड-19 से लड़ने के नाम पर जो लॉकडाउन लगाया गया था, उसे 100 दिन होने को हैं। और उस लिहाज से देखें तो देश में औसतन 1 लाख से कम ही टेस्टिंग रोजाना की जा सकी है। 

इसे कहते हैं कि न होगा बांस और न बजेगी बांसुरी 

जब टेस्टिंग ही नहीं होगी, तो कोरोना के मरीज ही कहाँ से नजर आयेंगे? आप अपने मित्रों, रिशेदारों से बात करके देखिये यूपी, बिहार और उत्तराखंड में। सबका एक ही जवाब होगा कहां है कोरोना, हमारे यहां तो भगवान की कृपा से मई के जाते-जाते ही कोरोना भी मर खप गया। ये वही समय है, जब भारत सरकार अपने कोरोना वायरस से लड़ी जा रही जंग से बुरी तरह से उबिया चुकी थी। पुलिसकर्मी भी अपनी लाठियों से भारतीय आम जन को पीट-पीट कर हाथों में छाले महसूस कर रहे थे। देशभर में कहा जा रहा था कि कोरोना अब हमारे जीवन का अंग बन चुका है, अब हमें इसी के साथ जीना सीखना आना चाहिए। सोशल डिस्टेंसिंग का कड़ाई से पालन करते रहिये, अपने बाल-बच्चों की जिम्मेदारी तो आप ही के कंधे पर है। हां, जब आप अपने बाल-बच्चों की जिम्मेदारी के लिए अपने घर से ऑफिस या फैक्ट्री जायेंगे तो अवश्य ही बिना सार्वजनिक वाहनों के आपको स्कूटर, बाइक, कार का सहारा लेना ही पड़ेगा। यहीं पर हमारे लिए इस आपदा में अवसर भी निर्मित होता है। इससे पहले शराब के लिए तो केंद्र और राज्य सरकारों दोनों ने ही बेहद अधीरता से दुकानें ही नहीं खोलीं, बल्कि अब तो शराब को घर-घर पहुंचाने के लिए मोबाइल एप्प जैसी सेवा भी देशभर में शुरू करवा चुकी है।

यूपी की तस्वीर।

लेकिन इन सब विभिन्न पहलुओं के भीतर में कई पहलू छिपे हैं। जिसे साधारण भारतीय जन जरा भी गच्चा खाया नहीं कि उसे लग सकता है कि सब कुछ ये जो हो रहा है, उसकी भलाई के लिए ही तो हो रहा होगा।

आखिर किस प्रकार से हम देश में ट्रम्प के स्वागत, दिल्ली में भयानक दंगे और उसके बाद होली खेल रहे थे, सरकारें अदल-बदल रहे थे और अचानक से ही मोदी जी ने देखा कि चीन से कितना भयानक वायरस भारत की सीमा पर प्रवेश कर चुका है। उन्होंने आव देखा न ताव झट से 21 दिन का देशव्यापी लॉकडाउन लागू कर दिया, ठीक उसी तरह जैसे देश में नोटबंदी की सर्जिकल स्ट्राइक की थी। क्योंकि उस समय भी अचानक से ऐसा महसूस हुआ था कि देश में लाखों करोड़ काला धन इधर से उधर रोज हो रहा है, जिसका उपयोग मोदी सरकार देश हित में बिल्कुल नहीं कर पा रही। झट से रात 8 बजे की घोषणा हुई, लोग नोटों को अपने हाथों से सिर्फ अलटते पलटते रह गए। और अगले 50 दिनों में जो भी घर में 10-20 हजार थे जमा किये, आधे पेट रहे, और भीड़ में धक्के खाते हुए 2000 रुपये के नोट को एक बार में निकाल पाते थे। देश में नकदी की अर्थव्यवस्था को एकाएक निचोड़कर फिर अगले 50 दिनों में धीरे धीरे करके उल्टा खून चढ़ाया जाता रहा। इसमें इंसान तो जिन्दा रह गये, लेकिन व्यापार और छोटे-मझोले उद्योग धंधे हमेशा-हमेशा के लिए काल-कवलित हो चुके थे।

इस कोरोनावायरस से सम्बन्धित लॉकडाउन को अर्थव्यवस्था पर सर्जिकल स्ट्राइक के लिहाज से नोटबंदी से 10 गुना घातक माना जाना चाहिए। क्योंकि इसमें नोट तो आपके पास ही थे, लेकिन आप उसे कहीं भजा नहीं सकते थे। अर्थात कोई काम धंधा ही नहीं कर सकते तो लक्ष्मी स्थिर न रहती।

लक्ष्मी तो उन्हीं के घरों में निवास करती हैं, जो आपदा में अवसर ढूंढने में उस्ताद हों। इसके बारे में आप अधिक जानकारी के लिए शेयर बाजार से उसकी पहचान कर सकते हैं। जब लाखों पापी मरते हैं, तो एक महा राक्षस पैदा होता है। यह डॉयलाग शायद फ़िल्मी है, लेकिन शेयर बाजार में तो यही सबसे फिट बैठता है। आज देश में कई जगहों पर जब लोगों को लॉकडाउन से राहत मिली, लोग अपनी दुकानों, गोदामों के शटर को खोले तो पता चला कि उनका लाखों करोड़ों का माल ही सड़, जंग खा रहा है। लेने वाला तो वैसे भी कोई नजर नहीं आता लेकिन आ भी जाए तो उसे बेचें क्या?

लेकिन जिनके पास हाथ में कुछ न हो लेकिन आपदा में अवसर ढूंढने की कला हो तो उनके तो वारे न्यारे हैं। देश भर में इस लॉकडाउन काल में भी टैक्सी, ट्रक वालों की चांदी रही, जिन्हें लूटने की कला का पता था। लेकिन यह काम उन्होंने अकेले ही नहीं किया, बल्कि अथॉरिटी से पास बनते थे। टैक्सी ड्राइवर चिंदी चोर निकले, चार दिन की चांदनी, फिर अँधेरी रात उनके लिए साबित हुई। लेकिन जो हमेशा ही देश को अवशोषित करने की मुद्रा में रहते हैं, वे धंधे बदल-बदलकर सिर्फ अवसर की तलाश में ही रहते हैं, उनके सर ऐसे संकट के समय पूरी तरह से कढ़ाई में हैं। 

गुजरात की तस्वीर।

इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मुंबई में अडानी पॉवर बिजली वितरण के काम को संभाल रहा है। बिजली की दरें तो पहले से ही वहाँ काफी हैं, लेकिन मई और जून के बिल में जो अंतर देखने को आया है उससे वहाँ के आम जन की खबर तो हमें कहाँ मिल पाती, लेकिन भला हो अडानी पॉवर का जिसने कई गुना बिल मई में भेजने के बाद उसे जून में भी दुगुना तिगुना कर नत्थी कर भेज दिया।

फ़िल्मी हस्तियों में रेणुका शहाणे से लेकर तापसी पन्नू सहित कई नामचीन लोगों ने अपने ट्विटर हैंडल से इस आपदा में अवसर ढूंढने वाली कंपनी के बारे में बताना शुरू किया है, तब जाकर यह मामला प्रकाश में आया है। ऐसे कई मामले हर जगह आपको देखने को मिल सकते हैं। यूपी में तमाम दुकानों, माल और व्यावसायिक केन्द्रों, कारखानों में इसी तरह फिक्स्ड रेट वाले बिल आये हैं, जबकि लॉकडाउन ठोकते समय कहा गया था कि भाइयों और बहनों, आप तो सिर्फ अपने कर्मचारियों का ख्याल रखना, किरायेदारों का ख्याल रखना, हम आपके बिजली के बिलों, ऋण की किश्तों का ख्याल रखेंगे। रो रहे हैं आज के दिन ऐसे व्यापारी जिन्होंने इसका अक्षरशः पालन किया। या मार्च अप्रैल तक तो किसी तरह किया, लेकिन मई आते आते बेदम हो गए। 

आंकड़ों की बाजीगरी और कोरोना वायरस से जंग की हालत 

दिल्ली, मुंबई, चेन्नई की तुलना में जिन प्रदेशों में ये प्रवासी मजदूर गिरते पड़ते गए, वे अब लगभग कोरोना मुक्त हो चुके हैं। जून में ही बिहार में कोई क्वारंटाइन सेंटर नहीं बचा था। सब बिना किसी भय और संकोच के प्रेम से घुलमिल रहे हैं, जिसे देखकर वाकई में ऐसा लगता है जैसे बिहार में ही बहार है। सिवाय नीतीश कुमार के, जो अपने सरकारी बंगले में दुबके हुए हैं पिछले 3 महीने से। लेकिन बिहार में आप कहीं भी चले जाइए, आपको लगेगा ही नहीं कि कोई वायरस भी आज के दिन कहीं है।

पलायन के बाद रिवर्स पलायन दो महीने चला, जिसे देश ने ही नहीं सारी दुनिया ने देखा। आज फिर उन लाखों लोगों को मालूम चल रहा है कि जो भी जिन्दगी बचानी है तो उनके लिए ठिकाना उनकी पैतृक निवास में नहीं हो सकता, वह मुंबई, सूरत, लुधियाना, गुरुदासपुर और दिल्ली एनसीआर की अट्टालिकाओं को बनाते समय उसके सामने पड़ी खाली जमीन में टूटे आशियाने के बीच ही हो सकता है। 

केरल की तस्वीर।

किसी की मजबूरी से महल आशियाने बनाने अर्थात पेट की भूख से ही आपदा में अवसर को चीन्हने की कला जिसमें आ गई, वही हमेशा मुकद्दर का सिकन्दर कहलाया जाता है। पिछले दिनों जून के महीनों में नदियों पहाड़ों से रेता, बजरी खनन का जो रेला उमड़ा था, उसका लाभ वहाँ के स्थानीय लोग नहीं पाते हैं। ये खनन माफिया कोई और नहीं सत्ताधारी और विपक्ष के ही परिवारों या उनके लगुये भगुए होंगे, सब मिल बांटकर देश को खा रहे हैं, और उन्होंने खा कमा लिया तो समझिये कि देश भी खा कमा तो लिया ही।

प्रवासी मजदूरों, किसानों की दुर्दशा को एक क्षण के लिए भूल भी जाएँ, भूल जाएँ कि मध्य वर्ग में से भी लाखों लोगों को बिना कोई शोर किये निकाल बाहर कर दिया गया है। लेकिन जो जा भी रहे हैं अपने-अपने काम धंधों में उनकी क्या गति है? तनख्वाह आधी हो चुकी है। स्कूटर ऑटो, ओला या अपनी कार से ऑफिस जाना है। रोज-रोज डीजल-पेट्रोल के बढ़ते दामों को पीठ पर नहीं अभिमन्यु की तरह सीने पर झेलना है। कौरवों की सेना इस महाभारत के युद्ध में मायावी इंद्रजाल के साथ अनेकों रूपों में आपको आभासी राम, कृष्ण नजर आ सकते हैं, आप बीच बीच में ताली, थाली, लोटा बजा सकते हैं लेकिन अकेले, अँधेरे कोनों में हम सब असल में सिर्फ अपना सिर पीट रहे हैं।

बाहर से हम सभी हाय हेलो और टिक टॉक हो रहे हैं, लेकिन मन के अन्तस्तल में एक हूक लगातार उठती जा रही है।  तुम देश, अपनी माटी और परिवार तक को न संभाल सके, आज तिल-तिल कर तुम्हें मरने के लिए छोड़ दिया गया है। कोरोना से अधिक से अधिक कितने मारे जाते? 10 लाख, 20 लाख, लेकिन यहाँ तो जीते जी कुछ लोगों को बचाने की खातिर देश को ही भूखे प्यासे बंद कर दिया गया, और अब फिर उन्हीं को जिलाने के लिए कहा जा रहा है कहाँ है कोरोना? ज्यादा तकलीफ में हो तो कोरोनिल खा ले बच्चा, कल्याण होगा। जबकि 24 मार्च को जो मात्र 600 था वह आज 6,00,000 हो चुका है। यानि 1000 गुना। आइये इसके लिए श्रेय भी उन्हीं को दें, जिनके मन की बात से यह देश सांसें ले रहा है।

(रविंद्र सिंह पटवाल सोशल मीडिया के सक्रिय सदस्यों में हैं। और स्वतंत्र लेखन का काम करते हैं।)

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