रांची। झारखंड के अलग राज्य बनने से पहले यानी सन् 2000 के पहले रेल मार्ग से बोकारो स्टील सिटी से रांची जाने के रास्ते में मुरी स्टेशन के बाद सिल्ली, कीता, गौतमधारा, गंगाघाट और टाटीसिलवे हाल्ट हैं। कीता हाल्ट और टाटीसिलवे हाल्ट के बीच दोनों तरफ लहलहाते जंगल और गर्व से सीना ताने पहाड़ को देखकर एक सवाल दिमाग में कौंधता रहता है कि आखिर इन इलाकों में रेल लाइन बिछी कैसे?
पहाड़ को काटा कैसे गया होगा? इन क्षेत्रों में रेल पटरी को लाया कैसे गया होगा? क्योंकि 1908 में पुरुलिया-रांची रेल लाइन बनी थी, जिस वक्त आने जाने के लिए घोड़े और पैदल चलना ही विकल्प था।
खासकर जंगल और पहाड़ों के लिए बहुत कठिन हालात रहे होंगे। दूसरी बात यह कि कीता हाल्ट के बाद टाटीसिलवे तक जाने के रास्ते अलग थे और आने के रास्ते अलग थे। जाहिर है बड़ी मुश्किलों के बाद पहाड़ और जंगल काटकर एकतरफा सिंगल लाइन बनी होगी।
कीता के बाद रास्ते के दोनों तरफ घने जंगलों और सीना ताने पहाड़ो में कुछ-कुछ परिवर्तन दिखने लगे। झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद ये क्रम लगातार जारी रहा। आज हालात ये है कि जंगल की औकात जहां सिमट गई है, वहीं पहाड़ के गर्व से उठे हुए सिर कहीं नजर नहीं आते हैं। खनन माफियाओं ने झारखंड के पहाड़ों को पैसा बनाने का जरिया बना लिया है।
कहना ना होगा कि कोयलांचल का कोयला हो या नदी की बालू या गर्व से खड़े पहाड़, ये सभी खनन माफियाओं, भ्रष्ट अफसरों और नेताओं की मिलीभगत से इनका अवैध खनन करके झारखंड को खोखला किया जा रहा है।
पूरे राज्य की बात करें तो आज पहाड़ों को जड़ से खोदकर बेच दिया जा रहा है। नियम-कानून की धज्जियां उड़ाते हुए इन पहाड़ों की खुदाई बदस्तूर जारी है। पहाड़ों में खनन के लिए बेहिसाब पेड़ काटे गये। काटे गये पेड़ों की जगह नये पेड़ नहीं लगाये गये।
इनमें कई पहाड़ वनक्षेत्र में भी हैं। दुर्भाग्य यह है कि वन विभाग अवैध खनन को जान बूझकर नजर अंदाज करते हुए पत्थर माफियाओं को एक तरह से जंगल और पहाड़ उजाड़ने में अघोषित मदद कर रहा है।
वहीं रोजगार के नाम पर गांव के भोले भाले लोगों से माफिया पहाड़ तुड़वा रहे हैं। जो मजदूर पत्थर तोड़ने के काम में लगे हैं, उनमें कईयों की मौत सिलकोसिस जैसी बीमारियों से हो रही है।
पलामू जिले के छतरपुर अनुमंडल क्षेत्र सहित अन्य इलाकों में अवैध खनन से दो दर्जन से ज्यादा पहाड़ियां गायब हो गयी हैं। जिन पहाड़ों के बनने में करोड़ों साल लग जाते हैं, उनमें से कई पहाड़ों को पत्थर माफियाओं ने पिछले दो दशक में मटियामेट कर दिया है।
अवैध खनन की वजह से पलामू के चैनपुर क्षेत्र के बुढ़ीबीर पहाड़, चोटहासा पहाड़, करसो पहाड़ी, खोरही, सेमरा, बिसुनपुरा, मुनकेरी, ढकनाथान, मुकना, गानुथान, महुअरी, रसीटांड़, गोरहो, सलैया, हड़ही, लाम्बातर, सिलदाग के आसपास की तीन पहाड़ियां, साथ ही हुटुकदाग, चेराईं और बरडीहा इलाके की कई अन्य पहाड़ियां, छतरपुर और नौडीहा प्रखंड क्षेत्र के कई पहाड़ियों का अस्तित्व खतरे में है। इनमें कई पहाड़ियां वनक्षेत्र के तहत आती हैं।
हालांकि जनसंघर्ष का सफर भी जारी है। पिछले दिसंबर 2021 में पलामू के धजवा पहाड़ के खनन के खिलाफ धजवा पहाड़ बचाओ संघर्ष समिति के बैनर तले गांव वालों समेत कई राजनीतिक और सामाजिक संगठनों ने 6 महीने तक आंदोलन किया गया।
इस आंदोलन का सुखद परिणाम भी निकला और 5 अप्रैल 2022 को धजवा पहाड़ पर हुए अवैध पत्थर खनन मामले में एनजीटी कोर्ट (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल अर्थात ‘राष्ट्रीय हरित अधिकरण) में सुनवाई हुई।
पलामू उपायुक्त की ओर से एनजीटी के सामने सौंपी गयी जांच रिपोर्ट और अधिवक्ता अनूप अग्रवाल की ओर से रखे गए सबूतों के आधार पर एनजीटी कोर्ट ने धजवा पहाड़ पर हुए माईनिंग को अवैध करार दिया। साथ ही झारखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को ये आदेश दिया कि वह अवैध माईनिंग से पर्यावरण को पहुंच रहे नुकसान की दो सप्ताह के भीतर रिपोर्ट दी जाए। इस फैसले के बाद समिति के पक्ष में आए एनजीटी के फैसले के बाद आंदोलनकारी 6 महीने से चल रहे आंदोलन को फिलहाल स्थगित कर दिया।
मजे की बात यह है कि जिन पत्थर खदानों को प्रशासनिक महकमा वैध बताता है, उनमें ज्यादातर पत्थर खदान फर्जी रिपोर्ट पर हासिल किये गए हैं। ऐसे पत्थर खदान जमीनी रूप से पूरी तरह अवैध हैं।
इन पत्थर खदानों की लीज लेने के लिए फर्जी ग्राम सभाएं की गयीं। कृषि योग्य भूमि, देव स्थल, स्टेट या नेशनल हाइवे, जलाशय, आबादी, विद्यालय, श्मशान घाट आदि की तय निर्धारित दूरी को गलत लिखकर लीज दिया गया।
दूसरी तरफ वक्त पड़ने पर प्रशासनिक महकमा इन पत्थर खदानों को वैध बताने में अपनी जी जान लगा देता है, ताकि प्रशासन और उनके अधिकारियों का असली चेहरा सामने न आ जाए।
कहना ना होगा कि अगर निष्पक्ष जमीनी जांच हो, तो आज भी झारखंड के आधे से अधिक कथित वैध पत्थर खदान पूरी तरह अवैध मिलेंगे। दूसरी तरफ खनन करनेवाले लोगों ने पहले पहाड़ खोदकर जमीन से मिला दिया और अब जमीन खोदकर पाताल से मिला रहे हैं
बता दे कि अवैध खनन के धंधे में हर तबके के लोग शामिल हैं। नेताओं, पुलिस और प्रशासनिक महकमे से लेकर कई नौकरशाह तक, कइयों के तो उनके चहेतों या पारिवारिक सदस्यों या रिश्तेदारों के माइंस और क्रशरों में हिस्सेदारी भी हैं। जिनके नहीं हैं, उन्हें बाकायदा मंथली हिस्सेदारी बंधी है।
कोई राजनीतिक दल भी अवैध खनन को मुद्दा नहीं बनाता है। बीते महीनों में छतरपुर अनुमंडल क्षेत्र में खनन और क्रशर से जुड़ी कई अजीबोगरीब कार्रवाई हुई है। जहां एक कार्रवाई में सीओ ने स्थल जांच कर जो जांच रिपोर्ट दी, उसके बाद में दर्जन से अधिक क्रशरों को सील कर दिया गया।
वहीं फिर से कुछ महीने बाद दोबारा जांच की गयी और सीओ की जांच रिपोर्ट को खारिज करते हुए सभी क्रशरों को चलाने की हरी झंडी दे दी गयी। इस सवाल का कोई जवाब ही नहीं अगर सीओ की जांच रिपोर्ट गलत थी, तो कार्रवाई क्यों हुई और अगर सही थी, तो फिर क्रशर चालू कैसे हुए?
दूसरा प्रकरण यह है कि छतरपुर एसडीओ ने छतरपुर में संचालित दर्जनों क्रशरों को वनक्षेत्र की परिधि में बताया था।
मामले की जांच वन विभाग ने की। उस वक्त पाया गया कि ज्यादातर क्रशर मशीन वनक्षेत्र की परिधि में आए थे, तो उन्हें चंद दिनों तक बंद रखा गया। लेकिन, कुछ ही दिनों बाद ये क्रशर फिर चलने लगे। बीते दिनों एक और गजब का प्रकरण हुआ। डीएमओ और सीओ ने पिपरा प्रखंड क्षेत्र के आधे दर्जन क्रशर मशीनों की जांच की और बयान जारी किया कि इन क्रशरों के संचालन के लिए इनके पास पर्याप्त कागज नहीं थे। मजेदार तथ्य यह है कि इन पर कार्रवाई न करके इन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।
बताना जरूरी हो जाता है कि जिले के छतरपुर में फर्जी आमसभा और जाली खतियान के दम पर कई पत्थर माइंस स्वीकृत कराये गये है। सरकारी खतियान में जिस पहाड़ को जंगल झाड़ी बताया गया है, पत्थर माफियाओं ने उन्हें पैसे के दम पर परती (समतल) पहाड़ साबित कर दिया। क्षेत्र में कई झोलाझाप अमीन जाली खतियान बनाते हैं। इसे लेकर मुखिया से लेकर हलका कर्मचारी, अमीन और अंचल कार्यालय की हिस्सेदारी बंधी हुई है।
बता दें कि जिनको कल तक सिर्फ दो जून की रोटी ही नसीब हुआ करती थी आज उनकी दौलत पिछले कुछ सालों में ही बेशुमार हो गई है। बताया जा रहा है कि पलामू जिले में क्रशर से लेकर माइंस के संचालन, भंडारण और परिवहन में हर दिन करोड़ों रुपयों के सरकारी राजस्व की चोरी होती है। चोरी का यह राजस्व कई हिस्सों में बंटता है, लेकिन तीन हिस्सा संबद्ध लोगों के पास रह जाता है।
छत्तरपुर की सिलदाग पंचायत के बसडीहा गांव में 0.951 डिसमिल जमीन पर वर्ष 2015 में लीज लिया गया था। आज तक उक्त लीज वाली जमीन से उत्खनन नहीं हुआ, लेकिन विभाग की वेबसाइट पर माइंस चालू दिख रहा है। इसका ऑनलाइन चालान भी निकल रहा है। सीओ ने इसकी जांच रिपोर्ट भी दे दी, लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई।
सवाल यह है कि जब माइंस में उत्खनन नहीं किया जा रहा, तो सरकार को राजस्व क्यों दिया जा रहा है? इसी माइंस की आड़ में अवैध उत्खनन किया जा रहा है। उक्त माइंस के नाम पर बड़ी मात्रा में जिलेटिन व बारूद का उठाव भी किया जाता है, जिसे खुलेआम ऊंचे दामों पर आमलोगों को बेचा जाता है।
पत्थर माफिया गांववालों को ट्रैक्टर और जेसीबी खरीदने में मदद भी करते हैं। गांववाले आसपास के पहाड़ों व टोंगरी में विस्फोट कर काले ग्रेनाइट पत्थर का उत्खनन करते हैं। ऐसे में उक्त क्रेशर मालिक सीधे तौर पर पकड़ा नहीं जाता है।
(वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)