ग्राउंड रिपोर्ट: 110 साल से रह रहे बाशिदों का डीडीए ने उजाड़ा आशियाना, सड़क पर रहने को मजबूर 29 परिवार

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नई दिल्ली। मार्च के महीने में दिल्ली हाईकोर्ट के एक फैसले ने एक परिवार को सड़क पर ला दिया। 15 मार्च को दिल्ली हाईकोर्ट की एक सिंगल बेंच की जज प्रतिभा एम सिंह ने एक फैसला सुनाते हुए मूलचंद बस्ती बेला एस्टेट राजघाट के पास के घरों को अतिक्रमण के नाम पर हटाने का आदेश दिया। जज ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि तीन दिन के अंदर मूलचंद बस्ती को खाली कराया जाए। यह जमीन यमुना के बाढ़ प्रभावित इलाके में आती है।

जज के इस फैसले के साथ ही 110 साल से रह रहे राजस्थान के एक परिवार के ऊपर से छत छिन गई। वर्तमान में इस परिवार की चौथी पीढ़ी यहां रह रही है। अब अचानक से इन्हें सबसे बड़ी चिंता अपने पुनर्वास की है। जज ने अपना फैसला सुनाते हुए पीड़ितों को शेल्टर होम में रखने की सलाह दी है।

1913 में राजस्थान से दिल्ली रहने आए थे

बद्री प्रसाद की उम्र लगभग 80 साल है। डीडीए का बुलडोजर चलने के बाद वह आसपास पड़े समान के साथ  एक खटिए बैठे हुए थे। मैंने सबसे पहले उनसे ही बातचीत की। सफेद बाल और थके शरीर वाले बुजुर्ग अपनी अब तक की पूरी कहानी बता रहे थे। बद्री प्रसाद मूलचंद बस्ती में रहने वाले दूसरी पीढ़ी के सदस्य हैं। वह कहते हैं कि हमारे बड़े बुजुर्ग साल 1913 में यहां आए थे। मेरा जन्म आजादी के पहले यहीं हुआ था।  

इसके बाद हमारा परिवार लगातार बढ़ता गया। अंग्रेज आए चले गए, देश में कई हलचलें हुईं। राजनीतिक पार्टियों का आना-जाना लगा रहा, लेकिन हम यहीं रहते आए हैं। पहले घोड़ों को लिए घास उगाते थे, फिर खेती करने लगे। हमारे सामने ही डीडीए बनी और बाद में इसी डीडीए ने हमें सड़क पर ला दिया।

बद्री प्रसाद ने मुझसे बात करते हुए आसपास की स्थिति को दिखाते हुए कहा कि मैं और मेरे बाकी भाईयों ने भी अपनी गृहस्थी की शुरुआत यहीं की थी। सभी किसान हैं। दूसरा कोई काम हमने कभी किया ही नहीं है। खेती-किसानी और पशुपालन का काम करते हैं। इन दोनों कामों से ही हमारा घर चलता है। बाकी किसी भी काम में हम निपुण नहीं हैं। वह मुझसे कहते हैं कि अब सवाल सिर्फ छत का नहीं है, सवाल यह भी है कि हम अपने जानवरों को कहां लेकर जाएं और जीवकोपार्जन के लिए क्या करें?  

वह कहते हैं कि अपनी जमीन को बचाने के लिए 1990 से ही कोशिश कर रहे हैं। सेंशन कोर्ट से लेकर दिल्ली हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट तक हर जगह का चक्कर लगाया। कानूनी प्रक्रिया की बात करते हुए वह कहते हैं कि हमें यह जमीन अंग्रेजों ने दी थी। आजादी से पहले जब यह जगह पूरी तरह से वीरान थी। यहां जंगल हुआ करता था, अंग्रेजों ने अपने घोड़ों के लिए घास उगाने के लिए हमें यह जमीन दी थी। इसके बाद जब देश आजाद हुआ तो अंग्रेजों ने हमें यह जमीन लिखित रुप से दी है। हमारे पास इसके पेपर हैं।

सरकार हमारे रहने का इंतजाम करे

बद्रीप्रसाद की बहू रेखा  हमें साल 1939 के कुछ पेपर दिखाती हैं। वह कहती हैं कि हमने यहां तक सब्र किया है कि अगर सरकार को हमारी जमीन ही चाहिए तो ले लें। लेकिन हमारे रहने का तो कोई इंतजाम करके दे। यहां 29 घर हैं। सबके घर में बच्चे हैं। कोर्ट ने हमें कह दिया है कि हम शेल्टर होम से चले जाएं, वह कहती हैं कि मेरी बेटी 21 साल की है और दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ती है। रेखा की सबसे बड़ी चिंता यह है कि जवान बहू-बेटियों को लेकर कहां जाएं।

रेखा ने मुझसे बात करते हुए कहा कि 15 मार्च को हाईकोर्ट का फैसला आया। 16 मार्च को दोपहर के वक्त डीडीए के अधिकारी बुलडोजर लेकर आए और हमारी जगह को घेर लिया, और हमें घर खाली करने को कहा। हमारे देखते-देखते ही बुलडोजर चलना शुरू हो गया।

जब मैं वहां गई तो उस वक्त भी वहां लगातार बुलडोजर चल रहा था। सभी घरों का सामान बाहर पड़ा हुआ था। रेखा कहती हैं कि कोर्ट की तरफ से हमें तीन दिन का समय दिया गया था। लेकिन डीडीए तो दूसरे दिन ही आ गया। अब आलम यह है कि हमें लगातार यह जगह खाली करने को कहा जा रहा है। हमें सामान भी नहीं रखने दिया जा रहा है।

रेखा बड़े दुखी मन से कहती हैं हम लंबे समय से यहां रह रहे हैं, इसी पते से हम वोट देते हैं। हमारे विधायक भी हमें यहीं मिलने आते रहे हैं। आज हमें कहा जा रहा “भले ही सड़क पर रहो हमें इससे कोई लेना-देना नहीं है। डीडीए की जगह खाली करो।”

रेखा और उसके पति दोनों ही मुझसे बात करते हुए कई तरह के पेपर दिखाते हैं। रणधीर कहते हैं कि 1991 में यह केस चला। जिसमें एसएन कपूर जस्टिस थे। उस वक्त जस्टिस कपूर ने दोनों पक्षों को 15 दिन का समय देते हुए बैठकर बात करने की सलाह दी। जिसके बाद डीडीए के चेयरमैन ने उस वक्त हमसे कहा कि हमें अभी इस जमीन की कोई जरुरत नहीं है। जिस वक्त होगी तब बात कर लेगें। लेकिन आजतक कभी डीडीए की तरफ से कोई बात करने नहीं आया।

रणधीर कहते हैं कि हमारे साथ धोखा हुआ है। हमारे साथ बात करने की बजाए हमें आईएनए (इंडियन नेशनल एयरबेज्स) से नोटिस भेजा गया। जहां उन्होंने हम लोगों से कोरे कागज पर साइन करवाकर यह साबित कर दिया कि हम सोसाइटी के मेंबर हैं, जबकि वह सोसाइटी पहले ही डिफॉल्टर हो चुकी है। जिसके आधार पर न्यायपालिका ने अपना फैसला सुनाया है।

वह कहते हैं कि हम गरीब किसानों के साथ न्यायपालिका ने भी इंसाफ नहीं किया है। एक झटके में घर को तोड़ दिया गया है। सरकार ने हमारे बारे में जरा भी नहीं सोचा। इतनी बड़ी बस्ती उजाड़ने के बाद हमारा पुनर्वास तो करवाते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।

पीड़ितों के साथ धोखा हुआ है

हमने इस बारे में पीड़ितों का केस लड़ रहे दिल्ली हाईकोर्ट के वकील कमलेश मिश्रा से बातचीत की। उन्होंने इस पूरे 110 साल के प्रकरण पर बात करते हुए हमसे कहा कि राज्य ने इस केस में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन न करते हुए लोगों के सिर से छत छीन ली। यह राज्य की जिम्मेदारी है कि जब वह घर तोड़ रहे थे तो उन्हें रहने के लिए भी कोई जगह दें। लेकिन सरकार ने तो साफ कह दिया है कि यह जमीन हमारी है आप अपने रहने का कहीं इंतजाम कर लें।

वह कहते हैं कि राज्य ने बिना किसी डेटा के लोगों को वहां से हटाते हुए उन्हें नाइट शेल्टर में रहने की सलाह दे दी। जबकि उसे खुद भी नहीं पता है कि वहां कितने लोगों की जगह है। वह परिवार के लिए हैं या नहीं? इन सारी प्रक्रिया को पूरा किए बिना ही तोड़-फोड़ शुरू कर दिया गया। जो पूरी तरह से गलत है। उन्होंने बताया कि कोर्ट का रूख भी पीड़ितों के लिए अच्छा नहीं था। इसलिए अब इस अतिक्रमण हटाओ के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रूख करेंगे।

जब मैंने उनसे पूछा कि उनके पास पिछले सौ साल के जमीन का डॉक्यूमेंट भी हैं फिर इसे क्यों तोड़ा गया? इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि इसमें कानूनी दावे बहुत ही पेचीदा हैं। लेकिन अगर इसे एक शब्द में कहा जाए तो यह कानूनी सलाह की असफलता है। उचित समय पर उन्हें सही सलाह नहीं दी गई थी। जिसके कारण आज पीड़ित सड़क पर आ गए हैं।

इस केस के इतिहास पर बात करते हुए वह कहते हैं जिस जमीन पर पीड़ित लंबे समय से खेती कर रहे हैं। वह जमीन उन्हें दिल्ली इंप्रूवमेंट ट्रस्ट द्वारा मिली थी। इस ट्रस्ट ने यह जमीन ‘पिजेन्ट कॉपरेटिव सोसाइटी’ को दी और इसी सोसाइटी ने इनके परदादा को यहां खेती करने के लिए जमीन दी थी। जिसके बदले इनके पूर्वज सोसाइटी को किराया देते थे। यही किराया सोसाइटी डीआईपी (दिल्ली इन्प्रूवमेंट ट्स्ट) को देती थी।

वह कहते हैं कि साल 1985 में डीआईपी की जगह डीडीए (दिल्ली डेवलमेंट अथॉरिटी) एक्ट आया। उसके बाद डीआईपी की सारी जमीन डीडीए के पास आ गई।

डीडीए के आने के बाद से ही दिल्ली में जमीनों को लेने का सिलसिला शुरू होने लगा। जिस पर कोर्ट ने पब्लिक प्रिमाईसेस एक्ट के तहत काम करने की सलाह दी। दूसरी बात यह भी थी कि ये किसान लंबे समय से यहां रह रहे थे यह इसके विपरीत रहने का दावा भी कर सकते थे। जिसमें से कुछ किसानों ने ऐसा किया भी था।

वह कहते हैं कि पब्लिक प्रिमाईसेस एक्ट में स्टेट ऑफिसर अधिकारी डीडीए का ही होता है और यह बहुत ही स्वाभाविक सी बात है जब स्टेट ऑफिसर डीडीए का है  तो वह जमीन जनता को तो नहीं मिलेगी। अब के केसों में ऐसा देखा भी गया है।

मूलचंद बस्ती वासियों के साथ भी यही हुआ। पब्लिक प्रिमाईसेस एक्ट के तहत डीडीए ने उन्हें जमीन खाली करने का ऑर्डर दे दिया। जिस पर सेशन कोर्ट में केस किया गया। वहां यह सही तरह से पेश नहीं किया गया। इसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी गया। जहां इसकी सुनवाई भी नहीं हुई है और डीडीए हमें कह रही है कि हम केस हार चुके हैं।

बद्री प्रसाद ने भी हमसे कहा कि जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया तो वहां जज ने कहा यह मामला सेशन कोर्ट का है। इसलिए आप वहीं जाएं। सुप्रीम कोर्ट में कोई सुनवाई भी नहीं हुई।

इस पर वकील कमलेश मिश्रा का कहना था कि पीड़ितों को किसी भी जगह सही जानकारी और सुविधा नहीं दी गई। फिलहाल अब हम लोग इस मामले में सुप्रीम कोर्ट जाएंगे। 

(जनचौक संवाददाता पूनम मसीह की रिपोर्ट।)

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