साधनी होगी हिटलरशाही के प्रतिरोध की राजनीति

आज़ादी की 73वीं सालगिरह पर सभी मित्रों को हार्दिक बधाई । आज का दिन अपने देश की एकता और अखंडता के प्रति अपनी निष्ठा को दोहराने का दिन है। आज उन सभी देशवासियों को गले लगाने का दिन है जिनके मन वर्तमान शासन की विभाजनकारी नीतियों और अन्यायपूर्ण दमन के कारण दुखी है। आज खास तौर पर अपने कश्मीरी भाइयों के प्रति एकजुटता का संदेश देने का दिन है। उन्हें यह विश्वास दिलाने का दिन है कि शासन के किसी भी अन्याय के विरुद्ध लड़ाई में वे अकेले नहीं हैं।

उनके न्यायपूर्ण संघर्ष में भारत के सभी जनतंत्रप्रिय, शांतिप्रिय और देशभक्त लोग उनके साथ खड़े हैं। सिर्फ कश्मीर नहीं, पूरे देश में जिस नग्नता के साथ भाजपा पूरे राजनीति ढांचे पर ज़बर्दस्ती अपना एकाधिकार क़ायम करने की मुहिम में लगी हुई है, विपक्ष की सभी पार्टियों तक को तहस-नहस कर आत्मसात कर लेने के साम-दाम-दंड-भेद के तमाम उपायों का प्रयोग कर रही है और प्रतिवाद की हर आवाज़ को कुचल देने पर आमादा है, इसके बाद कम से कम इतना तो साफ़ हो जाना चाहिए कि भारत के इस कठिन काल में राजनीति का अब तक चला आ रहा स्वरूप अब कारगर नहीं रह गया है।

कश्मीर में बेलगाम ढंग से सेना के इस्तेमाल ने इस संकट को उसके बिल्कुल चरम रूप में सामने रखा है । कहना न होगा, यह भारत के संघीय ढांचे को पूरी तरह से रौंद कर वे एकात्मवादी ढांचे के निर्माण का अभियान है। एकात्मवादी राज्य, जो आरएसएस का हमेशा का साध्य रहा है, और जिसे भारतवासियों ने हमेशा ठुकराया है, सिर्फ संघीय ढांचे से जुड़ी सत्ता के विकेंद्रीकरण स्वरूप का अंत नहीं है, यह उस बहुलता का अंत है, जो किसी भी समाज में जनतंत्र से जुड़ी स्वतंत्रता की भावना और उसके रचनात्मक स्फोट का कारक माना जाता है । महात्मा गांधी स्वतंत्रता को मनुष्य का प्राण कहते थे। हमारे शास्त्रों में भी स्वातंत्र्य को ही शिव और मोक्ष कभी कहा गया है । इसका अभाव आदमी को अज्ञान के पाश से बाँधता है, उसे ग़ुलाम और तुच्छ बनाता है ।

सत्ता और पूंजी की इजारेदारी से डरा हुआ दमित समाज सिवाय उन्माद, विक्षिप्तता और पागलपन के अपने को व्यक्त करने की शक्ति को ही गंवा देता है । यही स्वतंत्रता का हनन ही शक्तिवानों में बलात्कार और ग़रीबों में ढोंगी बाबाओं के चमत्कार की काली फैंटेसी से जुड़ी सामाजिक संस्कृति का मूल है । आज की दुनिया में अमेरिका सबसे शक्तिशाली और संपन्न राज्य है तो इसीलिये क्योंकि अमेरिका एक आज़ाद-ख़याल संघीय गणराज्य है । वहां जिस हद तक इजारेदारी है, उसी हद तक वह राष्ट्र कमजोर भी है । अन्यथा, वहां इजारेदारी पर अंकुश का मोटे तौर पर एक सर्वमान्य विधान है । अमेरिकी जीवन में उन्मुक्तता, जो संसाधनों की भारी फ़िज़ूलख़र्ची के रूप में भी व्यक्त होती है, ही उस देश के लोगों की रचनात्मकता के मूल में भी है । इसीलिये वह दो सौ साल से भी ज़्यादा काल से दुनिया का नेतृत्वकारी राज्य है ।

रूस और चीन उसके कोई विकल्प नहीं हैं । स्वातंत्र्य चेतना के मामले में भारत रूस और चीन से कहीं आगे रहा है । हमारी यही आंतरिक शक्ति तमाम प्रतिकूलताओं के बीच भी हमें आगे बढ़ने और न्यायपूर्ण समाज के लक्ष्य को पाने का हौसला देती रही है । दुर्भाग्य है कि अब उसे भी योजनाबद्ध ढंग से नष्ट किया जा रहा है, अर्थात् हमारी अपनी तमाम संभावनाओं को ही ख़त्म किया जा रहा है ; हमें अपनी नाना-स्तरीय ग़रीबी से निकलने के रास्तों को और भी सख्ती से बंद कर दिया जा रहा है । आज भारतीय अर्थ-व्यवस्था और जीवन जिस प्रकार के मूलभूत संकट में फंसा हुआ दिखाई दे रहा है, अगर कोई इसका समाधान समय की मरहम में देख कर शुतुरमुर्ग की तरह बालू में सिर गड़ाये बैठा हुआ है, जैसा अभी की केंद्रीय सरकार बैठी हुई है, तो वह कोरी आत्म-प्रवंचना का शिकार है ।

आज का दिन भारतीय संघ की रक्षा की प्रतिज्ञा का दिन है । एकात्मवादी हिटलरशाही निज़ाम के प्रतिरोध की राजनीति में ही भावी ख़ुशहाल भारत की संभावनाएं निहित हैं । आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है, प्रतिरोध की नई राजनीति को साधने की ।

जय हिंद ।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं और आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

अरुण माहेश्वरी
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अरुण माहेश्वरी