Saturday, April 20, 2024

पैसे के लिए अस्पताल कर रहे गर्भाशय निकालने का धंधा: अधिक जागरूक बनें महिलाएं!

सितम्बर 2022 में बिहार से एक दर्दनाक मामला सामने आया। बच्चेदानी निकालने के बहाने सुनीता देवी (दलित) के दोनों गुर्दे चुरा लिए गये और उसे पता ही नहीं चला। अब मुज़फ्फरपुर के श्री कृष्ण मेडिकल काॅलेज अस्पताल में 38 वर्षीय सुनीता पड़ी हर दूसरे दिन डायलिसिस से अपना खून साफ करवाती है। उसके तीन नाबालिग बच्चे भी उसी के साथ अस्पताल में रहते हैं, क्योंकि उसका पति उसे यह कहकर छोड़कर चला गया कि अब सुनीता के साथ उसका जीवन नहीं चल सकेगा। कारणः सुनीता के दोनों गुर्दे जिले के बरियारपुर इलाके के एक निजी क्लिनिक में इलाज के बहाने डा. आर के सिंह द्वारा निकाल लिए गए और अब उसे कोई किडनी डोनर नहीं मिल पा रहा है।

सुनीता का कहना है कि उसे ओवरी में कोई संक्रमण के कारण भीषण दर्द था। उसकी बच्चेदानी सहित दानों गुर्दे निकाल लिए गए। सुनीता का कहना है, “जबतक उस डाक्टर से मुझे उसके गुर्दे नहीं दिलाए जाते, न्याय नहीं होगा। वह तो फरार हो गया है पर हम जीवन-मौत के बीच झूल रहे हैं- बस अपने बच्चों की खातिर जीना जरूरी है। ऐसे डाक्टरों को बड़ी सज़ा नहीं मिलेगी तो यह धंधा कैसे रुकेगा; और लोगों में डर कैसे पैदा होगा।” यह था ‘किडनी कांड’! पर ऐसे सैकड़ों मामले बिहार में रोज़ होते हैं; यही नहीं, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से भी अखबारों की सुर्खियां रंगते रहते हैं। और भी कई राज्यों में ऐसा होता है पर केस दब जाते हैं। अब तक कई ऐसे डाक्टरों और उनके अवैध क्लिनिक/अस्पताल के खिलाफ अपराधिक मुकदमे दर्ज नहीं हुए। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?

कैंसर का भय दिखाकर गर्भाशय उच्छेदन

“गर्भाशय निकालने का धंधा बहुत पुराना है और इससे प्राइवेट क्लिनिक, नर्सिंग होम व अस्पताल करोड़ों की कमाई करते हैं। इस धंधे में गरीबों का ही शोषण होता है क्योंकि गांव से ही दलाल उन्हें ऐसी जगहों पर पहुंचाते हैं और कमीशन लेते हैं। कर्ज़ लेकर या जमीन बेचकर भी गरीब इलाज कराने को तैयार हो जाते हैं। बिहार में तो यह बहुत व्यापक पैमाने पर चल रहा है”, पटना में रहने वाले टाइम्स ग्रुप के पत्रकार प्रणव कुमार चौधरी ने बताया। 2008 से राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू हुई। अब वह प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के अंतर्गत आ गयी है, और इसके तहत गरीब परिवारों का 5 लाख रुपये तक का बीमा होता है। 55 करोड़ जनता को इसका लाभ प्राथमिक व तृतीयक देखभाल करने वाले एवं सूचिबद्ध अस्पतालों के ज़रिये मिलता है।

जरूर इसका लाभ गरीब महिलाओं को मिलना चाहिये, क्योंकि ऐसी कई बीमारियां हैं जो खास तौर पर महिलाओं को ही होती हैं। और वे परिवार की धुरी होती हैं। प्रजनन तंत्र संबंधी समस्याएं, ऑस्टियोपोरोसिस की वजह से हड्डियों का कमज़ोर होते जाना, यूटीआई, अंडकोशिका या ओवरी में गांठ होना, एन्डोमेट्रिओसिस, एन्डोमेट्रियल हाइपरप्लासिया, बच्चेदानी में गांठ बनना और स्तन, सर्विक्स या यूटरस के कैन्सर- ये सारी बीमारियां औरतों को होती हैं और उनका इलाज भी महंगा होता है। नसबंदी का दबाव भी औरतों पर ही होता है।

पर महिलाओं के साथ जो सबसे बड़ी दिक्कत है कि उनके स्वास्थ्य, खासकर प्रजनन स्वास्थ्य को रहस्य बनाकर रखा गया है और उस पर पति और घर वालों से तक बात नहीं होती है। इसके बारे में तब तक किसी को चिंता भी नहीं होती है जब तक महिला काम काज में लगी रहती है। जब समस्या जटिल हो जााती है और गाड़ी रुक जाती है, तब उनके पति या घरवाले अस्पताल ले जाते हैं। तब तक काफी देर हो चुकी होती है। क्योंकि ग्रामीण परिवारों और शहरी गरीब परिवारों को प्रजनन के बारे में कुछ पता ही नहीं होता, उन्हें डाक्टरों द्वारा डराकर मूर्ख बनाना काफी आसान होता है।

मसलन यदि मासिक में रक्तस्राव अधिक हो रहा हो, या पेट में दर्द रहता हो, या यूटीआई जैसी समस्या हो, उन्हें सबसे पहले बता दिया जाता है कि कैंसर का खतरा है और बच्चेदानी को निकाल देना (गर्भाशय उच्छेदन) ही एकमात्र उपाय है, जिसके माध्यम से महिला को बचाया जा सकता है। भारतीय जनमानस में कैंसर का जबरदस्त खौफ है, क्योंकि उसके फैल जाने के बाद इलाज में पैसा पानी की तरह बहता है और इलाज के बावजूद बचने की कम संभावना रहती है। तुरन्त निर्णय ले लिया जाता है कि बच्चेदानी को निकाल दिया जाए। उसके बाद बीमा कम्पनी से इलाज के खर्च का भुगतान भी हो जाता है, जो 25-35 हज़ार के बीच होता है। दवा और टेस्ट मिलाकर 50,000 रुपये आसानी से मिल जाते हैं। तो अस्पतालों के लिए मामला काफी आसान हो जाता है।

गोरखपुर के पत्रकार मनोज कुमार सिंह ने बताया कि “यह धंधा तो काफी समय से कई जिलों में चल रहा है और सबसे अधिक तो प्राइवेट क्लिनिकों और अस्पतालों में, जो गोरखपुर, महाराजगंज और खुशीनगर में तो कुकुरमुत्तों की भांति पनप रहे हैं। यहां फ़र्जी डिग्रीधारी डाॅक्टर भी होते हैं और बिना जांच के क्लिनिक/अस्पताल को मंजूरी मिल जाती है।” मनोज बताते हैं कि “छोटी-मोटी दिक्कत के लिए पास के प्राइमरी हेल्थ सेन्टर में चिकित्सक और इलाज उपलब्ध न होने के कारण मरीजों को पास के झोला-छाप डाॅक्टर पकड़ लेते हैं और किसी ऐसे डाक्टर के अस्पताल में ले जाते हैं, जो पैसे खिलाकर क्लिनिक का लाइसेंस जुटाया होता है।”

मनोज सिंह कहते हैं कि “ऐसे अस्पताल केवल लिंग परीक्षण और हिस्ट्रेक्टोमी करके अपने क्लिनिकों में भारी मुनाफा कमाते हैं। मरीज भी संतुष्ट रहता है कि डाॅक्टर ने मर्ज का पता लगाने के लिए कई टेस्ट करवाए, अल्ट्रासाउंड और स्कैन करवाए तथा ऑपरेशन की सलाह दी; यानि डाॅक्टर काफी जानकार है।” मैंने जब कहा कि अब तो गाइडलाइन आ गए हैं, गड़बड़ हुई तो पैसा नहीं मिलेगा और नर्सिंग होम का लाइसेंस जब्त हो जाएगा, मनोज ने कहा कि “बीमा के पैसे मिलने में झंझट होगा तो डाक्टर इलाज करने से मना कर देगा। नतीजा होगा मरीज अपने जेब से पैसे देकर ऑपरेशन करवाएंगी।”

सुप्रीम कोर्ट ने माॅनिटरिंग समितियां बनाने को कहा है, कहने पर वो कहते हैं कि “ऐसी कई समितियां पहले भी बनाई गई हैं, मसलन अल्ट्रासाउंड के लिए और हीमोफीलिया के लिए। यह ज्यादातर खानापूर्ति करती हैं, पर थोड़ा बहुत फर्क तो आता ही है।” बात सही लगती है, डर भले ही हो, धंधा छिपे तौर पर चलेगा, क्योंकि डाॅक्टर मरीज के मनाविज्ञान को बेहतर समझता है।

2013 में दायर हुई जनहित याचिका

दस वर्ष पूर्व, यानि 2013 में राजस्थान के डॉ नरेन्द्र गुप्ता द्वारा एक जनहित याचिका दाखिल की गई थी (डॉ नरेन्द्र गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2013, रिट पेटिशन 131), जिसमें यह कहा गया था कि कई राज्यों में, खासकर बिहार, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कई एसे मामले सामने आए हैं, जिनमें बिना किसी ज़रूरत के महिलाओं की बच्चेदानी निकाल दी गई है। यह संविधान की धारा 21 के विरुद्ध है क्योंकि बेहतर स्वास्थ्य का अधिकार जीने के अधिकार का अभिन्न अंग है। याचिका में कहा गया कि यह काम निजी अस्पतालों में सबसे अधिक हो रहा है और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं को इस अवैध धंधे का सबसे अधिक शिकार बनाया जा रहा है।

डॉ नरेन्द्र से ‘जनचौक’ की ओर से संपर्क किया गया तो उन्होंने बताया कि “2011 में राजस्थान के दौसा जिले के बांदीकुई कस्बे (जयपुर से 56 किमी) में 226 महिलाओं का 3-4 निजी अस्पतालों में छोटी-मोटी समसयाओं के लिए आना हुआ तो उन्हें गम्भीर बीमारी का भय दिखाकर बच्चेदानी का ऑपरेशन कर दिया गया। उस समय कोई बीमा नहीं था तो उन्होंने चिकित्सा जननी सुरक्षा योजना के तहत की थी। लगभग सभी महिलाएं समाज के सबसे उत्पीड़ित जातियों व पिछड़ी जाति की थीं। एडवा ने जांच टीम भेजी और यह बड़ा मुद्दा बना था।”

डॉ नरेन्द्र गुप्ता ने बताया कि “सर्वोच्च न्यायालय में मैंने याचिका 2013 में दायर की थी और फैसला भी आ गया। अब तो 40 या उससे कम उम्र की महिला का हिस्ट्रेक्टोमी से पहले एक अन्य डाॅक्टर की राय लेना अनिवार्य हो गया है। जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर की माॅनिटरिंग कमेटियां बनाने की बात आई है और राष्ट्रीय समिति तो बन भी गई हैं। इसका काम होगा नई नीतियां बनाना ताकि महिलाओं को सबसे बेहतर स्वास्थ्य सेवा उनके दरवाज़े पर उपलब्ध हो सके। राज्यों को भी अपने आंकड़े देने को कहा गया है। अब लोगों में एक जागरूकता भी आ गई है।”

डॉ गुप्ता ने यह भी बताया कि “राज्य स्तर की कमेटी को निगरानी करनी होगी कि विभिन्न जिलों में कोर्ट के निर्देश कैसे लागू किये जा रहे हैं। उन्हें इस लिहाज से प्रशिक्षण और संवेदीकरण के कार्यक्रम भी चलाने होंगे। जिलों को देखना होगा कि अस्पतालों में 40 या कम उम्र की महिलाओं की बच्चेदानी निकालने के पहले उनके स्वास्थ्य व चिकित्सा का क्या इतिहास रहा। उन्हें हिस्ट्रेक्टोमी की जरूरत किस वजह से पड़ी? क्या कोई वैकल्पिक चिकित्सा के प्रयोग से महिला की समस्या का समाधान नहीं हो सकता था? महिला की हिस्ट्रेक्टोमी आवश्यक हो तो वह किस तरीके से की जा रही थी, इसकी जानकारी भी रिकॉर्ड में दर्ज करना होगा।

कोर्ट के निर्देश लागू करना आसान नहीं

काफी लम्बे अंतराल के बाद, यानि 13 दिसम्बर 2022 को कोर्ट ने स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को निर्देशित किया कि वह याचिका में उठाए गए सवालों की जांच करते हुए समस्त सूचनाओं को एकत्र व समन्वित कर अपनी प्रतिक्रिया न्यायालय के समक्ष पेश करे। राज्यों द्वारा जो जवाबी हलफनामें दायर किये गए उनमें स्वीकार किया गया था कि शिकायतों में सच्चाई तो है। बिहार के कई जिले, जैसे मधुबनी, समस्तीपुर, सारन और किशनगंज में सर्कुलर जारी हुए हैं कि योजना के तहत सूचीबद्ध अस्पतालों को बच्चेदानी निकालने के पूर्व बीमा प्रदान करने वाली संस्था से अनुमति लेनी पड़ेगी और यदि कोई अस्पताल इस मामले में दोषी पाया जाता है, उसे सूची से हटा दिया जाएगा।

कई अस्पतालों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज की गई और उनके नाम योजना के पैनेल से हटाए भी गए। पर अभी तो शुरुआत है। एआईसीसीटीयू की राष्ट्रीय नेता शशि यादव बताती हैं कि आशा वर्करों से बात करने पर पता चलता है कि सरकारी अस्पतालों में तो ऐेसे मामले नहीं दिखते। वैसे उनके अनुसार “अभी इस संबंध में जागरूकता कम है, केवल अखबारों में जब सुर्खियां बनती हैं, तब मामला सामने आता है, और इसको घोटाला भी नहीं कहा जा सकता हैं क्योंकि नीचे से ऊपर तक लूट का पैसा जाता है और यह भ्रष्टाचार संस्थाबद्ध है।”

राजस्थान में 2013 में ही नियम बनाया गया था, जिसको राजस्थान गवरमेंट क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट्स रेजिस्ट्रेशन ऐण्ड रेगुलेशन्स रूल्स 2013 के नाम से जाना जाता है। पर जब एक महिला ऐक्टिविस्ट से पूछा गया, वह बोलीं कि इस विषय में उन्हें खास जानकारी नहीं है। छत्तीसगढ़ में एक हाई पावर्ड समिति बनी पर उसकी जांच से यह पाया गया कि जो ऑपरेशन किये गए थे वे पूरी तरह नाजायज़ भी नहीं कहे जा सकते। यह तो लीपापोती जैसा ही लगता है।

कुछ दिशा-निर्देश जिन्हें पूरे देश में प्रचारित करें

इस मामले में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 2022 में कुछ दिशा-निर्देश या गाइडलाइन्स जारी किये हैं जिन्हें जबरन गैर जरूरी बच्चेदानी निकालने के ऑपरेशन को रोकने हेतु बनाया गया। यह सभी स्टेक-होल्डर्स के साथ राय-मशविरा करने के बाद किया गया। सभी राज्यों को ये दिशा-निर्देश भेज दिये गए हैं और उन्हें तीन महीने, यानि जुलाई तक अपने राज्य में स्वीकृत कराना है ताकि उन्हें जल्द से जल्द लागू किया जाए। फिर भी क्या कारण हैं कि महिलाओं को आज भी इनके बारे में जानकारी नहीं हुई। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की जिम्मेदारी बनती है कि इन्हें गांव-गांव, गली-गली तक प्रचारित करें, चाहे आशा कर्मियों के माध्यम से अथवा पोस्टरों और महिला स्वास्थ्य शिविरों के जरिये।

महिला संगठनों को भी करना होगा हस्तक्षेप

यह आज तक स्पष्ट नहीं है कि बड़े-से-बड़े महिला संगठनों ने महिला स्वास्थ्य के मुद्दे को कभी केंद्रीय मुद्दा क्यों नहीं बनाया। औरतों को कंधे पर लादकर अस्पताल ले जाने की खबरें आती हैं, अस्पताल के बरामदे में डिलिवरी की तस्वीरें तक छपीं, महिलाओं के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में सस्ते पैड न मिलना, गांव के प्राइमरी हेल्थ सेंटर में ऐम्बुंलेंस सेवा और आवश्यक दवाओं का अभाव- ये ढेर सारे ऐेसे ज़रूरी सवाल हैं जिनकी वजह से लोगों की जानें जाती हैं। पिछले साल जब सुनीता का मामला सामने आया, उसके बाद समस्तीपुर की गुड़िया देवी और पिंकी देवी के केस सामने आये।

रामविलास पासवान ने सीबीआई जांच की मांग की और फ़र्जी हिस्ट्रेक्टोमी और किडनी चोरी का मामला राज्य मानवाधिकार आयोग के पास पहुंचा था। आयोग ने 1 दशक में 708 पीड़ित महिलाओं को 18 करोड़ रुपये मुआावज़ा दिया था। 2021 में राज्य के लगभग साढ़े पांच हज़ार प्राइवेट क्लिनिक व अस्पतालों को नोटिस भेजी गई थी। पर आज भी ‘यूटरस स्कैम’ के 33 अभियुक्त जमानत पर बाहर हैं और कई के अस्पताल धड़ल्ले से चल रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या मोटी रकम देकर काम बन जाता है? आखिर क्या कारण है कि ये धांधली नहीं रुकती?

प्रणव कुमार कहते हैं कि “यह बिज़नेस डाक्टरों को करोड़पति बना देता है। फिर ये राजनीतिक दलों में जुड़ जाते हैं और टिकट भी पा जाते हैं। तो आखिर राजनेता क्यों इस पर बोलें।” बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और स्वास्थ्य मंत्री तेजस्वी यादव बयान तो देते हैं और वायदे भी करते हैं, पर अब तक कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया। आज जब निजी अस्पताल मरीजों को लूट रहे हैं और किसी प्रकार की जवाबदेही से मुक्त रहते हैं, क्या यह जरूरी नहीं है कि महिला संगठनों की ओर से जबर्दस्त दबाव बनाकर प्राइवेट स्वास्थ्य संस्थानों की अवैध गतिविधियों को बन्द करवाएं।

महिला संगठनों को चाहिए कि वो सरकारी अस्पतालों की दशा में सुधार के लिए लड़ें और स्वास्थ्य अधिकारियों व डाॅक्टरों को ईमानदार और जवाबदेह बनाने के लिए सख्त नियम बनवाएं? ईमानदारी से काम करने वाले चिकित्सकों को सम्मानित कर उनके अस्पतालों को प्रोत्साहन स्वरूप मुफ्त मशीनें व आईसीयू बेड दिये जाएं। दूसरी ओर जनसंख्या के अनुपात में डाक्टरों की संख्या बढ़ायी जाए और महिला चिकित्सकों को प्रोत्साहित करने के लिए योजनाएं तैयार की जाएं।

(कुमुदिनी पति, सामाजिक कार्यकर्ता हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ की उपाध्यक्ष रही हैं।)

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