मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आखिरकार अपनी साढ़े तीन महीने पुरानी मंत्रिपरिषद का विस्तार तो कर लिया, मगर वे इसे अपने मनमाफिक शक्ल नहीं दे पाने में पूरी तरह नाकाम रहे। मंत्रिपरिषद में शामिल 28 नए मंत्रियों में करीब आधे मंत्री वे पूर्व विधायक हैं जो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए हैं। अजब मध्य प्रदेश में कितना गजब नजारा होगा- जिन विधायकों ने महज 18 महीने पहले शिवराज सिंह को भ्रष्ट और घोटाले बाज मुख्यमंत्री तथा भाजपा को दंगाखोर पार्टी बताकर कांग्रेस के टिकट से विधानसभा का चुनाव जीता था, वे ही अब शिवराज की सरकार में मंत्री बनकर उनकी जय जयकार करेंगे और उपचुनाव में उनके लिए शिवराज जनता से वोट मांगेंगे।
बहरहाल साढ़े तीन महीने पहले कांग्रेस की सरकार गिराने और भाजपा की सरकार बनवाने के लिए कांग्रेस से भाजपा में गए ज्योतिरादित्य सिंधिया की भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से जो डील हुई थी, उसकी एक और बड़ी शर्त पूरी हो गई। राज्य मंत्रिपरिषद के दूसरे विस्तार में सिंधिया अपने 9 और समर्थकों को मंत्री बनवाने में कामयाब रहे। उनके दो समर्थकों को पहले ही मंत्री बनाया जा चुका है। इस प्रकार अब 34 सदस्यीय राज्य मंत्रिपरिषद में एक तिहाई मंत्री सिंधिया समर्थक हो गए हैं। सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़ने वाले जो पूर्व विधायक मंत्री नहीं बन पाए हैं, उन्हें अब निगम और मंडलों का अध्यक्ष बनाकर मंत्री का दर्जा दिया जा सकता है।
कांग्रेस से भाजपा में आए तीन अन्य पूर्व विधायकों को भी इस विस्तार में मंत्री बनाया गया है। यानी 34 सदस्यीय मंत्रिपरिषद में करीब 40 फीसद मंत्री ऐसे हैं, जो फिलहाल विधानसभा के सदस्य नहीं हैं। देश के इतिहास में संभवत: यह पहला मौका है जब किसी प्रदेश की मंत्रिपरिषद में इतनी बड़ी तादाद में गैर विधायक मंत्री हैं। हालांकि संविधान की रोशनी में तकनीकी आधार पर इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन नैतिक रूप से देखा जाए जो इसे हमारे लोकतंत्र की विडंबना भी कहा जा सकता है। अब इन सभी को अपना मंत्री पद बचाए रखने के लिए आने वाले तीन महीने में अनिवार्य रूप से विधानसभा का सदस्य बनना होगा।
शिवराज मंत्रिपरिषद के इस दूसरे विस्तार में सिंधिया समर्थकों को भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा किए गए वायदे के मुताबिक पर्याप्त जगह देने के चक्कर में भाजपा के कई वरिष्ठ विधायकों और पिछली सरकार में मंत्री रहे नेताओं को मायूस होना पड़ा है। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और पूर्व केंद्रीय मंत्री उमा भारती जैसे क्षत्रप ही नहीं बल्कि खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भी अपने वफादारों को मंत्रिमंडल में पर्याप्त जगह नहीं दिलवा सके। ये सारे महारथी ज्योतिरादित्य सिंधिया के मुकाबले बौने साबित हुए।
राजेंद्र शुक्ल, रामपाल सिंह, गौरीशंकर बिसेन, महेंद्र हार्डिया जैसे वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री भी शिवराज कैबिनेट का हिस्सा नहीं बन सके। ये सभी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के वफादार माने जाते हैं और उनकी सरकार में पहले भी मंत्री रह चुके हैं। इस बार भी इनकी दावेदारी मजबूत थी और शिवराज सिंह ने इन्हें मंत्री बनाने के लिए हर संभव कोशिश की, लेकिन पार्टी नेतृत्व ने सिंधिया समर्थकों से किए गए वायदे को पूरा करने को ही प्राथमिकता दी।
गौरतलब है कि बीते मार्च महीने में सिंधिया के 19 समर्थकों सहित कांग्रेस के कुल 22 विधायक विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गए थे, जिसके परिणामस्वरूप कमलनाथ के नेतृत्व वाली 15 महीने पुरानी सरकार अल्पमत में आकर गिर गई थी। बड़े पैमाने पर इस बगावत की बदौलत ही भाजपा सत्ता में वापसी कर सकी थी और शिवराज सिंह चौहान चौथी बार राज्य के मुख्यमंत्री बन सके थे। माना जाता है कि कांग्रेस से बगावत कर विधानसभा से इस्तीफा देने वाले विधायकों को भाजपा नेतृत्व की ओर से मंत्री पद और उपचुनाव में पार्टी का टिकट देने का आश्वासन दिया गया था।
कांग्रेस में बगावत करवा कर भाजपा प्रदेश में सरकार बनाने में तो कामयाब हो गई थी, लेकिन सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर गुटीय खींचतान इतनी अधिक थी कि कई दिनों तक मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अकेले ही सरकार चलाते रहे। फिर जब उन पर मंत्रिमंडल के गठन के लिए दबाव बढ़ा, तब भी उन्होंने महज पांच ही मंत्री बनाए, जिनमें दो सिंधिया समर्थक थे।
गुरूवार को हुए मंत्रिपरिषद के विस्तार से अनिश्चितता और अटकलों का दौर तो अब खत्म हो गया लेकिन इस विस्तार में सिंधिया को मिले महत्व ने प्रदेश भाजपा में एक नए गुटीय तनाव को जन्म दे दिया है। अपने करीबी और पुरानी सरकार में मंत्री रहे नेताओं को इस सरकार में जगह न दिला पाने का मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को बेहद अफसोस है, जिसे उन्होंने छुपाया भी नहीं। नए मंत्रियों की सूची को दिल्ली से हरी झंडी मिलने के बाद बुधवार शाम को ही उन्होंने मीडिया से कह दिया था कि समुद्र मंथन में जो अमृत निकलता है वह सभी में बंटता है और विष अकेले ‘शिव’ को पीना पड़ता है। उनका यह बयान इस बात का ही संकेत था कि मंत्रियों के चयन में शीर्ष नेतृत्व ने उनकी सिफारिशों को तवज्जो नहीं दी है।
मंत्रियों के चयन में सिंधिया की इच्छा या जिद को तवज्जो मिलने से आहत शिवराज ने कल ही एक ट्वीट के जरिए भी अपने दर्द का इजहार किया था। शायराना अंदाज में किए अपने ट्वीट में उन्होंने कहा था, ”आए थे आप हम दर्द बनकर, मगर रह गए सिर्फ रहजन बनकर। पल-पल रहजनी की है आपने इस कदर कि आपकी यादें रह गई हैं दिल में जख्म बनकर।’’ शिवराज का यह ट्वीट परोक्ष रूप से सिंधिया को संबोधित करते हुए ही माना गया।
बहरहाल, कहा जा सकता है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने मंत्रिमंडल विस्तार में पूरा जोर सिंधिया को संतुष्ट करने पर दिया है और आने वाले दिनों में 24 विधानसभा सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव को ध्यान में रखा है।
मंत्रिपरिषद के इस विस्तार में सिंधिया अपने समर्थकों को भरपूर जगह दिला कर कांग्रेस से बगावत की बड़ी कीमत वसूल करने में सफल रहे हैं। संभव है कि वे अपने समर्थकों को महत्वपूर्ण विभाग दिलाने में भी सफल हो जाएं। इससे पहले वे खुद राज्यसभा में पहुंच ही गए हैं और माना जा रहा है कि जल्दी ही केंद्र में मंत्री भी बन जाएंगे। लेकिन उनके लिए अब बड़ी चुनौती है अपने साथ कांग्रेस से आए सभी पूर्व विधायकों को उपचुनाव में भाजपा का टिकट दिलाना और जिताना। सवाल है कि क्या वे ऐसा कर पाएंगे?
माना जा रहा है कि भाजपा नेतृत्व वायदे के मुताबिक सिंधिया समर्थक सभी पूर्व विधायकों को उपचुनाव के लिए टिकट भी दे देगा, लेकिन ऐसा करके वह भाजपा के उन नेताओं को कैसे संतुष्ट करेगा जो पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से आए इन पूर्व विधायकों के मुकाबले मामूली अंतर से हारे गए थे? पिछले दिनों अधिकांश क्षेत्रों से असंतोष के स्वर उभरे हैं और भाजपा के पुराने उम्मीदवारों ने उपचुनाव के लिए अपनी दावेदारी पेश की है। माना जा रहा है कि अगर उनकी दावेदारी को अनदेखा कर कांग्रेस से आए सभी सिंधिया समर्थकों को टिकट दिया गया तो उन्हें चुनाव में पुराने दावेदारों की ओर भारी भीतरघात का सामना करना पड़ सकता है।
खबर यह भी है कि पिछले दिनों भाजपा ने उपचुनाव वाले सभी क्षेत्रों में संगठन के स्तर पर सर्वे कराया था, जिसमें कांग्रेस से आए ज्यादातर पूर्व विधायकों के बारे में नकारात्मक रिपोर्ट मिली है। ज्यादातर क्षेत्रों में आम मतदाता इन विधायकों के दल बदल किए जाने को लेकर नाराज हैं। यही नहीं, भाजपा के स्थानीय कार्यकर्ता इन पूर्व विधायकों को टिकट देने के खिलाफ हैं। ऐसे में यदि पार्टी नेतृत्व उपचुनाव में इन्हें ही उम्मीदवार बनाता है तो इन सभी के सामने नाराज पार्टी कार्यकर्ताओं, मतदाताओं और टिकट के दूसरे दावेदारों को मनाने की खासी चुनौती होगी।
सवाल यह भी है कि अपने मनमाफिक मंत्रिमंडल विस्तार न कर पाने से आहत मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भी इन सिंधिया समर्थकों को चुनाव में जिताने के लिए किस हद तक प्रयास करेंगे?
राज्य विधानसभा में अभी जो संख्या बल है, उसके मद्देनजर उपचुनाव में अगर भाजपा आधी से ज्यादा सीटें हार भी जाती है तो उसके बहुमत पर कोई असर नहीं पड़ेगा। कांग्रेस और खासकर पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ भी ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने और फिर से सत्ता हासिल करने की पूरी कोशिश करेंगे। इसलिए आने वाले दिनों में सबसे ज्यादा कठिन चुनौती ज्योतिरादित्य सिंधिया के सामने होगी- अपने समर्थकों को उपचुनाव में जिताने की और अपना जनाधार साबित करने की।
कुल मिलाकर आने वाले तीन महीने मध्य प्रदेश की राजनीति के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण और दिलचस्प रहने वाले हैं।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं। मध्य प्रदेश के रहने वाले हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)