Saturday, April 20, 2024

महामारी और गोपनीयता की आड़ में लोकतंत्र को पंगु बनाने की साजिश

कोरोना महामारी की वैश्विक चुनौती के संदर्भ में हमारे समय के विद्वान-दार्शनिक और इतिहासकार युवाल नोहा हरारी का एक लेख करीब पांच महीने पहले ब्रिटेन के अखबार फाइनेंशियल टाइम्स में छपा था। अपने उस चिंतनपरक लेख में उन्होंने बताया था कि कोरोना वायरस फैलने के कितने दूरगामी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक असर दुनिया भर में हो सकते हैं।

युवाल ने भविष्यवाणी की थी कि कोरोना महामारी के चलते दुनिया भर में लोकतंत्र सिकुड़ेगा, अधिनायकवाद बढ़ेगा, सरकारें अपने आपको सर्वशक्तिमान बनाने के लिए नए-नए रास्ते अपनाएंगी और खौफनाक सर्विलेंस राज की शुरुआत होगी। उनकी यह भविष्यवाणी दुनिया के किसी और देश में तो नहीं, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले देश भारत में ज़रूर हकीकत में तब्दील होती दिख रही है। 

भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है, जहां सरकार ने कोरोना महामारी के इस दौर में जनता को उसके हाल पर छोड़कर इस आपदा को अपने लिए मनमानी का एक अवसर बना लिया है। इस अवसर के तहत लोकतंत्र को एक तरह से निलंबित कर दिया गया है। देश की संसद और उससे जुड़ी समूची संसदीय गतिविधियां पिछले पांच महीने से पूरी तरह ठप हैं। सरकार अध्यादेश के जरिए मनमाने फैसले ले रही है, जनविरोधी कानून बना रही है। कई राज्य सरकारें भी इस मामले में केंद्र सरकार के ही नक्श-ए-कदम पर चलते हुए मनमाने और जनविरोधी फरमान जारी कर रही हैं। लोगों के कई नागरिक अधिकार परोक्ष रूप से छीन लिए गए हैं। पूरा देश सर्विलांस पर है। 

कोरोना संक्रमण के बहाने लोक महत्व के मसलों पर संबंधित संसदीय समिति की बैठकें तक नहीं होने दी जा रही हैं। सरकार की सुविधा को ध्यान में रखते हुए अब जिन कुछ संसदीय समितियों की बैठक की अनुमति दी भी गई है तो राज्य सभा के सभापति और लोकसभा के अध्यक्ष ने फरमान जारी कर दिया है कि इन समितियों की बैठक में होने वाली चर्चाओं को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता और समिति का जो सदस्य ऐसा करेगा उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। सख्त कार्रवाई यानी विशेषाधिकार हनन का मामला चला कर उस सदस्य को संसद से निष्कासित किया जा सकता है। 

कोरोना महामारी की आड़ में इन सारी अलोकतांत्रिक कारगुजारियों पर न्यायपालिका तो आश्चर्यजनक चुप्पी साधे हुए है ही, मुख्यधारा का मीडिया भी खामोश है। विपक्षी दलों या नागरिक समूहों की ओर से कोई आवाज उठ भी रही है तो उसे यह कह कर दबाने की कोशिश हो रही है कि ऐसे मामलों में राजनीति नहीं की जानी चाहिए। राजनीति न करने की नसीहत सिर्फ टीवी चैनलों पर आने वाले डिजाइनर राजनीतिक विश्लेषक ही नहीं दे रहे हैं, बल्कि वे लोग भी दे रहे हैं जो राजनीति के जरिए ही इस समय बड़े संवैधानिक पदों पर पहुंचे हुए हैं। सवाल है कि ऐसे मामलों पर राजनीति की जा सकती तो फिर राजनीति कैसे मामलों पर होनी चाहिए? 

गौरतलब है कि राज्य सभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने हाल ही में सूचना एवं तकनीक मंत्रालय से संबंधित संसदीय समिति की बैठक में दो सदस्यों के बीच हुई बहस की खबर मीडिया में आने पर नाराज़गी जताते हुए सभी संसदीय समितियों के अध्यक्षों को पत्र लिख कर कहा है कि समितियों की बैठक में उठने वाले विषय बेहद गोपनीय होते हैं, लिहाजा उन्हें किसी भी सूरत में सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। पत्र में कहा गया है कि इस निर्देश का उल्लंघन करने वाले सदस्यों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के तहत विशेषाधिकार हनन का मामला चलाया जा सकता है। 

उल्लेखनीय है कि सूचना एवं तकनीक मंत्रालय की संसदीय समिति ने पिछले सप्ताह फेसबुक प्रतिनिधियों को समन जारी कर समिति के समक्ष पेश होने का निर्देश दिया है। फेसबुक पर कुछ भाजपा नेताओं के सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले बयानों को नजरअंदाज करने का गंभीर आरोप है। अमेरिकी अखबार ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के जरिए यह मामला सामने आने के बाद भाजपा के कई नेता और यहां तक कि सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद भी खुल कर फेसबुक के बचाव में कूद पडे हैं, जबकि फेसबुक की भारत स्थित जिस अधिकारी पर यह आरोप है, उसने अपनी गलती कुबूल करते हुए माफी मांग ली है। 

फेसबुक के जरिए सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाली गतिविधियों के प्रति उदासीनता बरतने अथवा ऐसी गतिविधियों को संरक्षण देने का मामला चूंकि बेहद गंभीर है, लिहाजा इस पर विचार करने के लिए सूचना एवं प्रौद्योगिकी मामलों की संसदीय समिति की बैठक आगामी दो सितंबर को बुलाई गई है। इसी बैठक में फेसबुक प्रतिनिधियों को भी तलब किया गया है। समिति के अध्यक्ष कांग्रेस सांसद शशि थरुर हैं। समिति की बैठक के एजेंडा में नागरिक अधिकारों की सुरक्षा, जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट सेवा बंद किए जाने, सोशल मीडिया के मंचों के दुरुपयोग पर रोक लगाने तथा डिजिटल जगत में महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित मामले भी शामिल हैं।

इस समिति में शामिल भाजपा के सदस्यों ने पहले तो समिति की बैठक बुलाए जाने का विरोध किया और जब बैठक अधिसूचना जारी हो गई तो बैठक के एजेंडा में शामिल विषयों पर आपत्ति जताई जा रही है। कहा जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर में बंद इंटरनेट सेवा का मसला बैठक में नहीं उठाया जा सकता। बैठक में फेसबुक प्रतिनिधियों को तलब किए जाने का भी विरोध किया जा रहा है।

समिति के सदस्य और भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने तो इस सिलसिले में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को पत्र लिखकर शशि थरुर को समिति के अध्यक्ष पद से हटाने की मांग ही कर डाली। उन्होंने आरोप लगाया कि थरुर गैर पेशेवर तरीके से काम करते हुए इस समिति के माध्यम से अपना राजनीतिक एजेंडा आगे बढ़ा रहे हैं, इसलिए उन्हें हटा कर उनके स्थान पर किसी दूसरे सदस्य को समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया जाए।

सवाल है कि जब सरकार यह दावा कर रही है कि जम्मू-कश्मीर में हालात बिल्कुल सामान्य हैं तो फिर सामान्य हालात में वहां इंटरनेट सेवा बाधित करने का क्या औचित्य है? वहां के बाशिंदों को इंटरनेट सेवा निर्बाध रूप से क्यों नहीं मिलना चाहिए और इस मसले पर संसदीय समिति की बैठक में चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए? इसी तरह सवाल है कि देश में फेसबुक के जरिए सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने वालों और उनका सहयोग करने वाले फेसबुक अधिकारियों से जवाब तलब क्यों नहीं होना चाहिए और भाजपा के नेता इस तरह की आपराधिक मानसिकता वाले अपनी पार्टी के लोगों और फेसबुक अधिकारियों का बचाव क्यों कर रहे हैं? 

भाजपा सांसद निशिकांत दुबे के पत्र लिखे जाने के बाद लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति द्वारा संसदीय समितियों के अध्यक्ष को पत्र लिखकर समितियों की बैठकों की कार्यवाही को गोपनीय बनाए रखने संबंधी निर्देश जारी किया जाना यह बताता है कि पारदर्शिता से परहेज सिर्फ सरकार को ही नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था यानी संसद के दोनों सदनों के मुखिया भी जाने-अनजाने इस काम में सरकार की मदद कर रहे हैं।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि राज्य सभा के सभापति और लोकसभा अध्यक्ष कुछ दिनों पहले तक तो इन समितियों की बैठक आयोजित करने की अनुमति भी नहीं दे रहे थे। गौरतलब है कि हमारे यहां विभिन्न मंत्रालयों से संबंधित 24 स्थायी संसदीय समितियां हैं, जिनमें से इस समय 20 समितियों के अध्यक्ष सत्तारूढ़ दल के सांसद हैं। संसद के प्रति सरकार की उदासीनता को देखते हुए सत्तारूढ़ दल के सांसदों ने भी अपनी अध्यक्षता वाली संसदीय समितियों की बैठक आयोजित करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जिन विपक्षी सांसदों ने अपनी अध्यक्षता वाली समितियों की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बुलाने की पहल की थी, उन्हें भी राज्य सभा और लोकसभा सचिवालय ने रोक दिया था। 

राज्यसभा में कांग्रेस के उप नेता आनंद शर्मा गृह मंत्रालय से संबंधित मामलों की संसदीय समिति के अध्यक्ष हैं। वे तीन महीने से अपनी अध्यक्षता वाली समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए करना चाह रहे थे पर राज्यसभा सचिवालय की ओर से अनुमति नहीं मिल रही थी। इसी तरह सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी संसदीय समिति के अध्यक्ष शशि थरुर ने भी अपनी समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए कराने की अनुमति मांगी थी, जो लोकसभा सचिवालय से नहीं मिली। दोनों सदनों के सचिवालयों की ओर से दलील दी गई कि संसदीय समिति की बैठकें गोपनीय होती हैं, लिहाजा वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बैठक करना नियमों के विरुद्ध है। 

अभी भी इन संसदीय समितियों की बैठक की अनुमति महज इसलिए दी गई है, क्योंकि अगले महीने संसद का मॉनसून सत्र बुलाया गया है। संसद का यह सत्र भी संवैधानिक बाध्यता के चलते बुलाया जा रहा है। चूंकि संसद के दो सत्रों के बीच छह महीने से ज्यादा का अंतराल नहीं हो सकता है और पिछला सत्र 23 मार्च को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया था, लिहाजा संवैधानिक बाध्यता के चलते सरकार ने संसद का बेहद संक्षिप्त अधिवेशन अगले महीने की 14 तारीख से बुलाने का फैसला किया है।

14 सितंबर से 1 अक्टूबर तक आयोजित होने वाले इस सत्र में सरकार को लगभग एक दर्जन उन अध्यादेशों पर संसद की मंजूरी की मुहर लगवानी है, जो पिछले पांच महीने के दौरान जारी किए गए हैं। इसके अलावा कुछ मंत्रालयों से संबंधित और विधेयक हैं, जिन्हें सरकार इस सत्र में पारित कराएगी। इस सत्र की एक खास बात यह भी होगी कि इसमें प्रश्नकाल और शून्यकाल नहीं होंगे। यानी सदस्य सरकार से किसी भी मामले में कोई जानकारी नहीं मांग सकेंगे।

देश की सीमाओं पर पड़ोसी देशों के चल रहे तनाव, देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था, लगातार बढ़ रही बेरोजगारी और कोरोना महामारी से निबटने में सरकार की नाकामी जैसे लोक महत्व के किसी ज्वलंत मसले पर भी शायद कोई चर्चा नहीं हो सकेगी। कहा जा सकता है कि महज संवैधानिक खानापूर्ति के लिए ही यह सत्र बुलाया जा रहा है, जिसमें सिर्फ सरकार पिछले पांच महीने में लिए गए अपने फैसलों पर अपने भारी-भरकम बहुमत के बूते संसद की मंजूरी की मुहर लगवाएगी।

कोरोना महामारी की आड़ में सरकार की लगातार बढ़ रही मनमानी कारगुजारियां और संसद तथा संसदीय गतिविधियों को इस तरह महत्वहीन बनाया जाना इस बात का संकेत है कि हमारा लोकतंत्र खतरे में है और देश गंभीर संकट की तरफ बढ़ रहा है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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