वैसे तो श्रमिकों के बारे में बात करना भारतीय मीडिया में ऑउट ऑफ फैशन हो गया है, लेकिन कभी कभार कुछ तथ्य सामने आ जाते हैं। ऐसे ही कुछ आंकड़े द हिंदू अखबार ने आज (11मई) को प्रकाशित किया है। इस आंकड़े के अनुसार विभिन्न औद्योगिक संस्थानों में 2020 में श्रमिकों के साथ 32,413 दुर्घटनाएं हुईं। इन दुर्घटनाओं में 1,050 श्रमिकों की मौत हो गई और 3,882 श्रमिक बुरी तरह घायल हो गए। यह आंकड़े डाइरेक्टरेट जनरल फैक्ट्री एडवाइस सर्विस एंड लेबर इंस्टीट्यूट (DGFASLI) ने जारी किए।
ये आंकड़े औद्योगिक दुर्घटना, उसमे श्रमिकों की मौत और उनके घायल होने की वास्तविक संख्या को उजागर नहीं करते हैं। इसके कई कारण हैं। पहला कारण यह है ये आंकड़े स्थानीय इंस्पेक्टर की सहायता से चीफ इंस्पेक्टर ऑफ स्टेट जारी करता है। इस समय 500 फैक्ट्रियों पर सिर्फ एक इंस्पेक्टर है। एक इंस्पेक्टर इतनी सारी फैक्ट्रियों के आंकड़े नहीं जुटा सकता है। इसके साथ आंकड़े यह बता रहे हैं कि सेफ्टी इंस्पेक्टर, मेडिकल इंस्पेक्टर, हाइजिन इंस्पेक्टर और केमिकल इंस्पेक्टर के 50 प्रतिशत पद खाली हैं। इन पदों के खाली होने से सही तरीके से जांच कर पाना असंभव है और आंकड़े इकट्ठा कर पाना बहुत मुश्किल है।
दूसरा कारण यह है कि कानूनी तौर पर अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में डाल दिया गया है। बहुत सारे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों को (MSMEs) को अनौपचारिक क्षेत्र में डाल दिया गया है, ये भारत की जीडीपी( GDP) के 90 प्रतिशत दायरे को अपने में समेटते हैं। इसका परिणाम यह है कि सिर्फ 22 प्रतिशत रजिस्टर्ड फैक्ट्रियां हैं और सिर्फ 35 प्रतिशत खतरनाक फैक्ट्रियों की जांच-पड़ताल हो पाती है। सूक्ष्म, लघु और मध्यम फैक्ट्रियों के अधिकांशे हिस्से जांच के दायरे से बाहर हो चुके हैं। कोई भी इंस्पेक्टर उनकी जांच नहीं कर सकता है। पिछले 10 सालों में खतरनाक दुर्घटनाएं और उनमें श्रमिकों की मौत की घटनाएं लगातार बढ़ी हैं। औद्योगिक दुर्घटनाओं में श्रमिकों की मौत की घटनाओं में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हुई है और बुरी तरह से घायल श्रमिकों की संख्या में 27 फीसदी की वृद्धि हुई है।
सबसे अधिक मौत की घटनाएं गुजरात, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में हुई हैं। इन प्रदेशों में देश के सबसे अधिक उद्योग धंधे केंद्रित हैं। इतनी सारी औद्योगिक दुर्घटनाओं और श्रमिकों की मौत के बावजूद भी सिर्फ 10 लोगों को फैक्ट्रिज एक्ट के नियमों का उल्लंघन करने के लिए सजा हुई और श्रमिकों को सिर्फ 3 करोड़ रूपए की क्षतिपूर्ति मिली। श्रमिकों के नियोक्ता और ठेकेदार दोनों लगातार इन श्रमिकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से बचते रहते हैं। वे नहीं के बराबर के मामलो में इंस्पेक्टर या सरकार को श्रमिकों के घायल होने या मौत की सूचना देते हैं। वे घायल श्रमिकों का निजी अस्पताल में इलाज कराने या उन्हें कुछ पैसे देकर मामले को रफा-दफा करने का प्रयास करते हैं।
इन सब बातों के अलावा भारत में श्रमिकों की सुरक्षा के संदर्भ में संरचनागत और संस्थागत समस्याएं भी हैं। बहुत सारी कानूनी कमियां भी हैं। अनौपचारिक क्षेत्र में श्रमिकों की काम की परिस्थितियां खतरनाक और बहुत ही असुरक्षित हैं। जो कानून हैं, उनका पालन नहीं होता है। औद्योगिक संस्थानों में काम करने वाले श्रमिकों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं और इलाज के लिए पर्याप्त उपाय नहीं हैं। नियोक्ता पैसा बचाने के लिए सबसे पहले श्रमिकों की सुरक्षा और स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करना चाहते हैं। पैसा बचाने की शुरूआत श्रमिकों के जीवन और स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ के साथ शुरू होती है।
( द हिंदू ( 11 मई) में प्रकाशित हितेश पोतदार और सुशोवन धर की रिपोर्ट पर आधारित।)
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