पूर्वांचल के लोगों का अपमान और दिल्ली का चुनाव 

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दिल्ली विधानसभा चुनाव में पूर्वांचल के लोगों के अपमान के मामला को जोरदार तरीके से मुद्दा बनाने पर राष्ट्रीय और राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी आमादा है। इस मुद्दे की जड़ कहां है! असल में दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान मतदाता सूची में हेरा-फेरी किये जाने का मामला आम आदमी पार्टी ने उठाया था।

आम आदमी पार्टी के सर्वश्रेष्ठ और सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल ने कहा कि बिहार, उत्तर प्रदेश और आस-पास के राज्यों के लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल किये जा रहे हैं या शामिल किये गये हैं। मामला मतदाता सूची में फर्जीवाड़ा का था। लेकिन भाजपा के नेताओं ने अपनी ‘सूझ-बूझ’ से इसे दिल्ली में रहनेवाले पूर्वांचल के लोगों के अपमान से जोड़ दिया। 

‘भावनाओं का आहत होना’ और ‘मान-अपमान’ भारतीय जनता पार्टी की राजनीति के आकाश में हमेशा उड़नेवाले पतंग हैं। वे किसी भी मुद्दे को इस पतंग की पूंछ से जोड़ देते हैं। लोगों को आसमान में उड़नेवाले पतंग की कलाबाजियां दिखती हैं, जमीन पर मचा हाहाकार नहीं दिखता है।

भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक कुशलता से मतदाता सूची में गड़बड़ी का मामला दब गया और पूर्वांचल के लोगों के अपमान के मामले ने जोर पकड़ लिया है, ऐसा भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को लग रहा है। जमीन पर ‘शीशमहल’ और ‘राजमहल’ का मामला उलटा पड़ जाने के बाद अब ‘वोट-युद्ध’ आसमान में पहुंच गया है।

लगातार बढ़ती हुई महंगाई, बेकाबू बेरोजगारी, रहस्यमय जीएसटी चार्ज, शिक्षा, स्वास्थ्य समेत अधिकतर नागरिक सुविधाओं की निम्न गुणवत्ता से किसका अपमान होता है? किसी का नहीं।   

यहां से वहां तक और वहां से यहां तक भारत के अखंड होने का रात-दिन हो-हल्ला मचानेवाले अपमान के मामले में भारत के लोगों और पूर्वांचल के लोगों में फर्क करते हैं। जिन बातों से पूर्वांचल के लोगों का अपमान होता है उस बात से भारत के अन्य लोगों के मान-अपमान का कोई लेना-देना नहीं है? चूंकि अरविंद केजरीवाल खुद पूर्वांचली नहीं हैं।

इसलिए इस पूर्वांचली-अपमान के प्रसंग को भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रवाद की पतंग से जोड़कर बयानबाजी करने में लगे हुए हैं। 

भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को लगता है कि वे दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उनका ‘वोट-युद्ध’ जीत के जश्न के बहुत करीब पहुंच गया है। किन अपमानजनक परिस्थितियों में पूर्वांचल के लोगों को रोजी-रोजगार की तलाश में दिल्ली का रुख करना पड़ता है?

इन अपमानजनक परिस्थितियों का जिम्मेवार कौन है! बहरहाल, सॉफ्ट सवाल यह है कि मतदाता सूची में हेरा-फेरी हुई है या नहीं, इसका संतोषजनक जवाब कौन देगा! नहीं, नहीं यह सवाल करना गलत है, असल बात है इस मामले में पूर्वांचलियों के अंदर के नकली अपमान-बोध को गीदड़ से बाघ बनाने का है। 

दिल्ली चुनाव में तीन मुख्य पट्टीदार हैं। आम आदमी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस। आम आदमी पार्टी कांग्रेस के नेता डॉ मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान कथित भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंकते हुए बनी। नहीं, नहीं तब आम आदमी पार्टी नहीं थी। इंडिया अगेंस्ट करप्शन का आंदोलन था।

उसके ढेर सारे आरोप थे। आज तो सरकार से  कोई सवाल पूछना भी गुनाह है; तब जमाना और था। सवाल पूछे जा सकते थे। सवाल पूछने और सूचना पाने के अधिकार को पुख्ता बनाने के लिए कानून बना दिया गया था। सरकार के गिरने की परवाह किये बिना घटक दल के नेताओं और मंत्रियों को जेल का रास्ता दिखाया जा सकता था।

यह अलग बात है कि आज किसी को याद नहीं है कि उन आरोपों का क्या हुआ जिस के चलते डॉ मनमोहन सिंह की सरकार को जबरदस्त चुनावी हार तक  ही नहीं, कांग्रेस को निर्णायक राजनीतिक पराभव तक पहुंच गया। 

जिन कारणों से कांग्रेस राजनीतिक पराभव की स्थिति में पहुंच गई उन्हीं कारणों से आम आदमी पार्टी एक राजनीतिक शक्ति बन गई। 26 नवंबर 2012 में गठित आम आदमी पार्टी चुनाव में 28 सीटों पर जीत हासिल की। कांग्रेस को केवल 8 सीटों पर जीत हासिल हुई।

70 सीटों की दिल्ली विधानसभा में सरकार के गठन के लिए  कम-से-कम 36 का समर्थन होना जरूरी था। कांग्रेस ने राजनीतिक ‘दिलेरी और दिलदारी’ से काम लिया और आम आदमी पार्टी को अपना समर्थन दे दिया। गजब! आम आदमी पार्टी की सरकार बन गई।

दिल्ली के सातवें मुख्यमंत्री के रूप में अरविंद केजरीवाल ने 28 दिसंबर 2013 को शपथ ली। सरकार 49 दिनों तक चली और 14 फरवरी 2014 तक लोकपाल के मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया।

उसके बाद हुए दिल्ली चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को अपराजेय बहुमत मिल गया। तब से आम आदमी पार्टी लगातार दो बार अपराजेय बहुमत की सरकार बनाने में सफल रही है। 

दिल्ली विधानसभा का चुनाव का महत्व इसलिए है कि यहां के मतदाताओं के फैसले से पूरे देश की मनःस्थिति का संकेत मिलता है। दिल्ली विधानसभा का चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आम आदमी पार्टी लगातार भारी बहुमत से सत्ता में बनी हुई है।

भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को बहुमत के आस-पास भी फटकने नहीं देती है। देखा इस तरह भी जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की सरकार के समय किसन बाबूराव हजारे यानी अण्णा हजारे के नेतृत्व में हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ चले आंदोलन से ही दोनों सरकारें, अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी की सरकार, बन पाई। 

भले ही अरविंद केजरीवाल इंडिया गठबंधन के घटक दल के नेताओं में महत्वपूर्ण हैसियत रखते हैं, लेकिन उनकी हर राजनीतिक पहल कांग्रेस को क्षति पहुंचने की परवाह नहीं करती है। इतना ही नहीं भारतीय जनता पार्टी को मिलनेवाली बढ़त से उन्हें कोई परेशानी होती नहीं दिखती है।

इंडिया गठबंधन के घटक दलों में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ कि राजनीतिक विचारधारा से अरविंद केजरीवाल की जरा भी असहमति नहीं दिखती है। 

अभी डॉ मनमोहन सिंह के निधन के बाद आकस्मिक रूप से लोगों को डॉ मनमोहन सिंह की सरकार की नीतियों की याद हो आई। आकस्मिकता में प्रासंगिकता का संयोग बहुत दुर्लभ होता है। दिल्ली विधानसभा के चुनाव से उभरी डॉ मनमोहन सिंह सरकार की नीतियों की प्रासंगिकता अगर स्थाई बनी रह सकी तो भारत की राजनीति में यह महत्वपूर्ण घटना बहुत प्रभावी साबित हो सकेगी।

डॉ मनमोहन सिंह की सरकार संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-I (UPA-I) की सरकार थी, जिसमें वामदल शामिल थे। न्यूनतम साझा कार्यक्रम (CMP) था। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) थी। इन सब का प्रभाव था कि कांग्रेस पहले से अधिक सीटों पर जीत हासिल कर पाई।

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-II (UPA-II) की नीतियों में स्वाभाविक  तौर पर वामतत्वों का प्रभाव समाप्त हो गया था। भ्रष्टाचार के आरोप पर डॉ मनमोहन सिंह की सरकार बुरी तरह से फंस गई। 

2014 में भारतीय जनता पार्टी भारी बहुमत से ‘अकेले दम’ पर सरकार बनाने में कामयाब रही। पुराने दिनों की बात याद करें तो कोलकाता में 1963 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अधिवेशन में गैर-कांग्रेसवाद की घोषणा की, ‘जिंदा कौमें, पांच साल इंतजार नहीं करती’।

अब जब पिछले 11 साल से गैर-कांग्रेसी सरकार भारत में चल रही है तब गैर-कांग्रेसवाद का मतलब साफ-साफ समझ में आने लगा है। फिर भी, बीच-बीच में गैर-कांग्रेसवाद का झोंका भारत की राजनीति में उठता रहता है। हालांकि यह झोंका अब बहुत कमजोर पड़ता जा रहा है। 

दिल्ली विधानसभा के चुनाव में पूर्वांचलियों के अपमान की बात बार-बार कही जा रही है। इसका वास्तविक अर्थ कब और कैसे समझ में आने लायक बनेगा। पूरे भारत में तरह-तरह-तरह की विषमताओं का बोलबाला बढ़ा है। इन विषमताओं का सबसे विषैला प्रभाव पूर्वांचल पर पड़ा है।

हुआ यह कि भारत को अमीर होने का चस्का लग गया। इसमें कोई खास बुराई नहीं है। लेकिन इसमें बुरी बात यह है कि अमीर बनने के इस चस्के ने करोड़ों भारतीयों को अपराजेय गरीबी और दरिद्रता की तरफ धकेल दिया। इसके चलते करोड़ों भारतीय दासता से भी बदतर अमानवीय जिंदगी के दुश्चक्र में फंसते चले गये हैं।

इस बदतर अमानवीय जिंदगी के दुश्चक्र में फंसनेवालों में जातिवार सामाजिक-समूह का पैटर्न भी सहज ही लक्षित किया जा सकता है। जातिवार जनगणना और आर्थिक सर्वेक्षण इस पैटर्न को भावना के स्तर आगे बढ़कर बौद्धिक स्तर पर समझने का उपाय है। 

अधिकार की लाश पर कृपा का भव्य-दिव्य महल खड़ा करने का ऊपरी चेहरा जितना भी मानवीय और सम्मोहक क्यों न दिखे इसकी आत्मा लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के विरुद्ध ही सक्रिय रहती है। 

ऐसे में राहुल गांधी दिल्ली विधानसभा के चुनाव को संबोधित करते हुए भी पूरे देश के नागरिकों, मतदाताओं को संबोधित कर रहे हैं। दिल्ली विधानसभा का चुनाव क्या नतीजा सामने लाता है वह तो महत्वपूर्ण होगा ही, लेकिन अधिक महत्वपूर्ण यह होगा कि इंडिया गठबंधन के घटक दलों में इस नतीजे का क्या संकेत जायेगा।

इतना ही नहीं महत्वपूर्ण यह भी है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के गैर-भाजपा घटक दलों के नेताओं को भी इस संकेत के क्या मतलब समझ में आते हैं।

ऐसा भी हो सकता है कि इंडिया गठबंधन ही नहीं कांग्रेस में भी राहुल गांधी अकेले पड़ जायें। अकेले तो एक समय महात्मा गांधी भी पड़ गये थे। यह सच है कि महात्मा गांधी को चुनावों से बहुत लेना-देना नहीं था, राहुल गांधी भी चुनावी नतीजों की बहुत परवाह करते नहीं दिख रहे हैं। उनके सामने तो बड़ी चुनौती सरकार बनाने की नहीं बल्कि उस भारत को बचाने-बनाने की है जिसके लिए पुरखों ने जान की बाजी लगाई थी। फिलहाल तो, निश्चित रूप से दिल्ली विधानसभा का चुनाव ही मुद्दा है।     

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)  

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