यह हादसा नहीं, हत्या है; एक तरह का सामूहिक नरसंहार!

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यह हादसा नहीं हत्या है, एक तरह का सामूहिक नरसंहार। और इसके लिए कुदरत नहीं सरकार जिम्मेदार है। यह लापरवाही की पराकाष्ठा है। एक साथ तीन-तीन ट्रेनें एक दूसरे से टकरा रही हैं। यह कोई सामान्य घटना नहीं है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में जब से जवाबदेह सरकारें काम कर रही हैं शायद ही देश में इस तरह की कोई घटना घटी हो। तीन सौ लोग एक साथ काल कवलित हो जा रहे हैं। यह अभूतपूर्व है।

यह आंकड़ा तो सरकारी है। संख्या अगर इसकी दुगुनी और तिगुनी हो तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। क्योंकि रेल प्रशासन केवल रिजर्वेशन वाले यात्रियों को ही अपने आंकड़े में शामिल करता है। बाकी जनरल बोगी को वह कैटिल क्लास का भी दर्जा नहीं देता। लावारिस पड़ी यात्रियों की लाशें कितनी उनके घरों तक पहुंचेंगी और कितनों के परिजन उनका आखिरी बार मुंह देख सकेंगे यह अभी भी एक रहस्य का विषय बना हुआ है। वरना उनके बड़े हिस्से का बगैर परिजनों की मौजूदगी के श्माशान घाट पहुंचना लगभग तय है। 

बहरहाल यहां सवाल है सरकार और उसकी लापरवाही का। जनाब रेलमंत्री का एक वीडियो सोशल मीडिया पर सुबह से घूम रहा है। जिसमें वह कवच जैसे किसी यंत्र के बारे में बाकायदा स्क्रीन पर अफसरों की एक टीम को बैठा कर बता रहे हैं। उसमें एक ट्रेन के इंजन के भीतर वह खुद बैठे भी दिख रहे हैं और किस तरह से किसी दुर्घटना की आशंका से पहले ही ट्रेनें उसका आभास कर लेंगी और अपने स्थान पर ही खड़ी हो जाएंगी। इसका सचित्र वर्णन कर रहे हैं।

इसमें दावा तो यहां तक किया गया है कि यह यूरोप से भी आगे की प्रणाली है। अब कोई पूछ सकता है कि कवच प्रणाली का क्या हुआ वैष्णव जी? अगर आप में थोड़ी भी नैतिकता और शर्म बची होती या फिर लोकतंत्र के प्रति न्यूनतम जवाबहेदी होती तो मौके पर जाने से पहले अपना इस्तीफा राष्ट्रपति को भेज चुके होते। और यह कोई नई बात नहीं होती। लोहिया ने अपने मुख्यमंत्री से जेल में रहते चिट्ठी लिखकर इस्तीफा ले लिया था जब केरल में उनकी सरकार के दौरान गोली चालन की एक घटना हुई थी। लेकिन मौजूदा बीजेपी-संघ से किसी के इस्तीफे की उम्मीद करना ही बेमानी है। चाहे वह कोई यौन उत्पीड़न का आरोपी हो या कि हादसे में सैकड़ों लोगों के जान लेने का कोई जिम्मेदार मंत्री। सभी नागपुरिया थेथरई के उत्पाद हैं। इन लोगों ने शर्म, लाज और हया को बाहर छोड़कर राजनीति के दरवाजे में प्रवेश किया है।

आखिर भारतीय रेल मंत्रालय पिछले नौ सालों में इस नियति को क्यों पहुंचा? कोई कह सकता है कि यह हादसा कुदरती है। मानवीय गलती या भूल के हवाले करके भी इससे पीछा छुड़ाया जा सकता है। लेकिन इससे सच तो नहीं बदल जाएगा? पिछले नौ सालों में रेल मंत्रालय के साथ जो प्रयोग चल रहा है उसी के भीतर इस हादसे के बीज छुपे हुए हैं। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि देश के मंत्रालयों में रेल मंत्रालय सबसे बड़ा है जिसमें एक साथ तेरह से चौदह लाख लोग काम करते हैं। यह संख्या कभी 15-16 लाख हुआ करती थी। लेकिन सरकार ने नयी नियुक्तियों पर एक तरह से प्रतिबंध लगा रखा है। और नियुक्तियों के नाम पर कुछ परीक्षाएं ज़रूर समय-समय पर आयोजित की जाती हैं लेकिन वो होती नहीं हैं। और होती भी हैं तो उनके पर्चे लीक हो जाते हैं। और यह सब इतनी बार दोहराया जाता है कि नियुक्तियों की मियाद रबर की तरह खिंचती चली जाती है।

कभी इस मंत्रालय का संसद में अपना अलग से बजट पेश किया जाता था। सालाना कामकाज से लेकर भविष्य की नीतियों को बनाने और उसको लागू करने के लिए रेलवे बोर्ड से लेकर रेलवे के उच्चस्तरीय महकमे काम करते थे। और पूरे देश की यह लाइफ़ लाइन यात्रियों के जीवन की पटरी के साथ सुर में सुर मिलाते हुए आगे बढ़ती थी। लेकिन पीएम मोदी के आते ही पूरी तस्वीर बदल गयी। मोदी हैं तो मुमकिन है। जनाब ने आते ही रेल मंत्रालय के बजट को ही खत्म कर दिया। उसको सामान्य बजट के साथ शामिल कर उसकी अपनी विशिष्टता के साथ स्वतंत्र जरूरतों और उसको पूरा करने के तमाम उपायों का अपने इस एक फैसले से गला घोंट दिया। 

और फिर शुरू हुआ रेल को बेचने का खेल। कहीं स्टेशन नीलाम किए जा रहे हैं तो कहीं ट्रेन के रूट। कहीं प्लेटफार्म टिकट 50 रुपये का बिक रहा है तो कहीं रेलवे के किराए में दुगने की बढ़ोत्तरी। कहीं सीनियर सिटीजन की रियायत खत्म की जा रही है तो कहीं कोई दूसरा सरचार्ज लग रहा है। आईईआरसीटीसी के जरिये रेलवे के एक बड़े हिस्से का पहले ही निजीकरण कर दिया गया है। वैसे तो जनाब सब कुछ एक साथ बेच देना चाहते हैं लेकिन उन्हें ऐसा कोई ग्राहक ही नहीं मिल रहा है। क्योंकि न तो किसी पूंजीपति में यह कूवत है कि सब कुछ एक साथ खरीद ले न ही खरीदने से वह तत्काल ऐसा मुनाफा हासिल कर पाएगा जिसकी उसको दरकार है। लिहाजा सरकार का रेल बेचो अभियान धीमी गति का शिकार हो गया। लेकिन इन सारी कवायदों के बीच सरकार को खुद को सबसे बेहतर भी तो बताना है। और यह कैसे किया जा सकता है मोदी जी उसके सबसे बड़े खिलाड़ी हैं।

लिहाजा उन्होंने आते ही सबसे पहले बुलेट ट्रेन का शिगूफा छोड़ा। लेकिन जब देखा कि बुलेट ट्रेन से वह माहौल नहीं बन पा रहा है जिसकी उन्हें दरकार है। तब उन्होंने वंदे भारत ट्रेनों का देश में नया वितंडा खड़ा कर दिया। और कुछ जगहों पर उन ट्रेनों को हरी झंडी दिखा कर रेलवे के कायाकल्प का पूरा श्रेय लूटने का प्रबंध कर दिया। साहेब के भाषण और गोदी मीडिया की सुर्खियों में इसकी जो स्पीड बतायी गयी है वह हकीकत से बहुत दूर है। बताया गया कि इन ट्रेनों की स्पीड भी सामान्य ट्रेनों से बहुत ज्यादा नहीं है। और तमाम तामझाम के बावजूद यह उसी गति से चल रही है भले ही यात्रियों को इसके लिए अपनी जेबें कुछ ज्यादा ढीली करनी पड़े। अब कोई पूछ सकता है कि मोदी काल के पहले रेल बजट के दौरान नई ट्रेनों की घोषणाएं होती थीं और कई ट्रेनों का विस्तार होता था। कई ट्रेनों के रूट बदले जाते थे। क्या मोदी काल में उतनी नई ट्रेनें चलायी जा सकीं हैं। बिल्कुल नहीं। उल्टे तमाम ट्रेनों का संचालन बंद ज़रूर कर दिया गया है। और क्या इन कमियों को अकेली वंदे भारत पूरी कर सकती है?  

दरअसल मोदी इस बात को जानते हैं कि किसी एक चीज को इतनी बड़ी बना दो कि दूसरी चीजें उसके पीछे ढंक जाएं। और इस तरह से उपलब्धियों के तौर पर उसका डंका बजा कर पूरा श्रेय लूट लिया जाए। क्योंकि सामान्य तौर पर चौतरफा और सतत प्रगति के लिए बहुत कुछ ऐसा करना होगा जिसके लिए धैर्य के साथ दीर्घकालीन योजना और समय की दरकार होगी। बहुत समय बाद उसके नतीजे आएंगे। ऐसे में किसी सरकार के लिए उसको उपलब्धि के तौर पर पेश कर पाना मुश्किल हो जाएगा। और उस श्रेय से भी वह वंचित हो जाएगी जो उसे चाहिए। मोदी जी इस बात को जानते हैं। इसीलिए वह शार्टकट में विश्वास करते हैं। लेकिन मोदी का यह शार्टकट बहुत चीजों पर भारी पड़ रहा है। मसलन अगर नियुक्तियां नहीं होंगी तो मैनपावर की कमी कई जगहों पर संकट पैदा कर सकती है। और मौजूदा मैनपावर के बड़े हिस्से को सरकार के मनचाहे प्रोजेक्ट में लगा दिया जाएगा तो महकमे के बाकी हिस्से उससे प्रभावित हो जाएंगे।

लेकिन मोदी जी को इससे क्या लेना-देना। उन्हें तो अपने उस भाषण के लिए कुछ मैटिरियल तैयार करना है जिसमें वह कह सकें कि पिछले सत्तर सालों में रेलवे में जो होना चाहिए था, नहीं हो पाया। लिहाजा उन्हें इस जिम्मेदारी को उठाना पड़ रहा है। अब जुमलों के इन बादशाह को भला कौन बताए कि आपकी बुलेट ट्रेन और वंदे भारत को अगर रेल की पटरियों पर ही चलना है तो उसके लिए सबसे पहले रेलवे के इंफ्रास्ट्रक्चर को दुरुस्त करने के साथ उसका उन्नयन करना पड़ेगा। और अगर ऐसा नहीं करते हैं तो इस तरह के हादसे रेलवे की नियति बन जाएंगे। अनायास नहीं जिस 26 मई, 2014 को मोदी जी ने पहली बार पीएम पद की शपथ ली थी उसी दिन एक ट्रेन हादसा हुआ था। यूपी के संत कबीर नगर में हुए इस हादसे में 25 लोगों की मौत हो गयी थी। इसी तरह से 2016 में कानपुर के पास पुखराया में एक हादसा हुआ जिसमें 150 लोगों की जान चली गयी थी। और 150 से ज्यादा लोग घायल हो गए थे।

लेकिन इन हादसों से भी मोदी साहब ने कोई सबक नहीं सीखा। और एक ऐसा रेलमंत्री ले आए जो न केवल देखने में माडर्न हो बल्कि रेलवे को बेचने के उनके सपने को मंजिल तक पहुंचा सके। लिहाजा रेलमंत्री जी कवच और कुंडल जैसी तमाम टुटपुंजिया किस्म की जुमलेबाजी उछालते रहे और रेलवे को सही मायने में सुरक्षित करने और यात्रियों के लिए उसको सुविधा संपन्न बनाने की अपनी बुनियादी जिम्मेदारी का उन्हें कभी ख्याल नहीं रहा।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडिंग एडिटर हैं।)

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