Tuesday, April 23, 2024

न्यायिक संस्था नहीं! सरकार का हथियार बन गया है सुप्रीम कोर्ट

कोर्ट की ‘अवमानना’ हो गई है, न्यायाधीश ने यही माना है। ‘अवमानना’ मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे पर की गयी टिप्पणी से हुई है। प्रशांत भूषण को इसके लिए दोषी ठहराया गया। सर्वोच्च न्यायपालिका ने माननीय न्यायाधीश अरुण मिश्रा के नेतृत्व वाले बेंच के तहत न्यायालय को ‘न्याय’ दिला दिया है। न्याय के बदले सजा क्या होगी, यह 15 अगस्त के बाद 20 अगस्त को सुनाया जायेगा। ऐसा क्यों? अपने प्रति न्याय में इतनी देरी क्यों? क्या उनका एक ट्वीट न्यायपालिका की व्यवस्था को लोगों की नजर में इतना गिरा दिया? सर्वोच्च न्यायालय से हम भी सुनने के लिए बेताब हैं। हिंदी फिल्मों के संवाद लेखकों ने तो कानून अंधा है, कानून बिकता है आदि संवाद लिखकर खूब तालियां बटोरी और दर्शक कटघरे में ‘न्याय’ को होते हुए देखा।

इस बार यह ‘न्याय’ सर्वोच्च न्यायालय के प्रांगण में हुआ और भुक्तभोगी ने न्याय कर दिया है। लेकिन इसमें कुछ बात है जो मुझे खटक रही है। इसमें एक उभरता हुआ वह समीकरण दिख रहा है जो हमारी राजनीति में दिख रहा है। इस तरह के समीकरणों के परिणाम अक्सर दूरगामी होते हैं। यह बात मुझे ठीक वैसे ही लग रही है मानो न्यायाधीश, न्यायपालिका और न्याय एक मूर्ति में समाहित हो चुके हों। यह एक कल्ट बनने की प्रक्रिया है जिसमें मैं और तुम के विभाजन में मैं इतना बड़ा होता जाता है जहां से तुम एक तुच्छ अस्तित्व के सिवा कुछ रह ही नहीं जाता। यह तुच्छता इस कदर बढ़ती जाती है कि इसकी दवा करने के लिए ‘शत्रुओं ’ की पूरी फौज खड़ी होती जाती है। और, जो तुच्छ होने से ही इंकार कर देते हैं उनके लिए ‘न्याय’ की व्यवस्था की जाती है। तो, यह जो कल्ट है वह राजनीति में मुझे ठीक वैसे ही लग रही है मानो प्रधानमंत्री, कैबिनेट और सांसद एक मूर्ति में समाहित हो चुके हों।

एक सांसद का या उस व्यवस्था से जुड़ा कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री या कैबिनेट के खिलाफ जाता है तब उसे संसद से बहिष्कृत उस व्यक्ति की तरह देखा जा रहा है मानो संसद का अस्तित्व ही महज सरकार की एक मूर्ति के लिए है। जबकि हम जानते हैं कि भारत का संसदीय लोकतंत्र सिर्फ जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों से ही नहीं उसमें हिस्सेदार राजनीतिक पार्टियों से भी चलता है। संसदीय लोकतंत्र की आवाजों में मीडिया से लेकर संस्कृति की गतिविधियां चलाने वाले लोग शामिल होते हैं और बाकायदा उन्हें बतौर सांसद मनोनीत किया जाता है। लोकतंत्र एक राजनीतिक प्रक्रिया है जिसमें भागीदारी बहुस्तरीय है।

लेकिन जब संसद में विपक्ष, उसकी पार्टी ‘जयचंद’ घोषित हो रही हो, असहमति के स्वर ‘देशद्रोही’ बनाकर यूएपीए के तहत कैद किये जा रहे हों, समाज की विविध धार्मिक पहचानों पर पहरे लगा देना कानून बन गया हो, गरीब मजदूर और आम जन की चीख को ‘दंगा’ घोषित किया जा रहा हो, …तब आप क्या करेंगे? जब न्यायपालिका खुद का ही ‘न्याय’ करने लगे, …तब क्या करेंगे? संसद भी खुद की अवमानना के अन्याय का ‘न्याय’ कर चुकी है और दोषियों को संसद में खड़े होकर माफी मांगना पड़ा है। यह सर्वोच्चता चाहे जितनी वैधानिक हो, लेकिन न्यायपूर्ण हो यह जरूरी नहीं है।

सौभाग्य से कोर्ट की अवमानना ‘देशद्रोह’ नहीं है। मैं कानून का जानकार नहीं हूं। लेकिन इतनी बात तो पता है कि कानून की व्याख्याएं चलती रहती हैं। संभव है यह ‘देशद्रोह’ के बराबर मान लिया जाए। क्योंकि, कानूनन यह ‘न्याय प्रक्रिया’ में बाधा पहुंचाता है और न्याय देशहित में है। प्रशांत भूषण का तर्क भी तो यही था। उन्होंने न्यायाधीश के व्यवहार पर सवाल उठाया था। उन्होंने न्याय के पूर्वाग्रहों की ओर लोगों का ध्यान खींचने का प्रयास किया था। और, बाद में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने प्रेस वार्ता कर ‘न्याय’ पर चल रहे हस्तक्षेप के बारे में बताने की पहलकदमी ली थी। उस समय उन्होंने खुद को न्याय की प्रतिमूर्ति घोषित नहीं किया था।

लेकिन, मैं इसे प्रतिमूर्ति क्यों कहूं। इसे कल्ट कहना ज्यादा ठीक है। एक पार्टी में जब कल्ट उभरता है तब उस पार्टी के भीतर का लोकतंत्र मरने लगता है। इंदिरा गांधी का कल्ट कांग्रेस को जितना बनाया, बचाया उतना ही उसे नष्ट किया। आज इस कल्ट का नाम बदलकर गांधी परिवार कर दिया गया जिसमें न तो कल्ट बचा है और न ही संगठन। लेकिन इस ‘कल्ट’ और इसके इतिहास पर उसी तरह हमला किया जा रहा है जिस तरह अंग्रेजों ने 1857 और उसके बाद के समय में मुगल सम्राटों और विद्रोही रजवाड़ों के बचे-अवशेषों पर किया था। कल्ट और कांग्रेस एक बना दिया गया है। जाहिर है विरोधी खेमे को भी यही रास्ता अख्तियार करना था। मोदी कल्ट में बदलकर और भाजपा के पर्यायवाची बन गये।

इसमें उनका प्रधानमंत्री होना और सरकार होना भी जुड़ गया। हालांकि देश के स्तर पर उनके नाम उपलब्धि गिनाने के लिए कुछ भी नहीं है। असफलताएं मुंह बाये खड़ी हैं लेकिन देश का नक्शा राजनीति और अर्थव्यवस्था की जगह हिंदू संस्कृति से जोड़ दिया गया। हालांकि इसको भी उपलब्धि कह पाना मुश्किल लगता है लेकिन डिजिटल दुनिया ने इसे ज्यादा चमकदार बनाया। जाहिर सी बात है इसके लिए ‘दुश्मन’ को ज्यादा खूंखार बताने के लिए प्रचार अभियान से लेकर जमीनी हमलों का पूरा रणक्षेत्र बनाना पड़ा जिससे लोगों को लगे कि कल्ट एक बड़ा युद्ध लड़ रहा है और एक के बाद एक जीत हासिल कर रहा है।

चूंकि कल्ट राजनीति और अर्थव्यवस्था, समाज से अलग एक सांस्कृतिक रणक्षेत्र में उतरा हुआ था जिसमें ईश्वर निर्णायक भूमिका अदा करता है। लेकिन वह कल्ट ही क्या जिसका निर्णायक कोई और हो जाये। या तो वह उसके बराबर होगा या उससे बड़ा। हम अपने उपनिषदों में इन झगड़ों को देख सकते हैं। आज भक्तों में झगड़ा इसी बात को लेकर चल रहा है। हम और आप इन देवतागणों के कारनामों में श्रोता और भोक्ता बने हुए। जनता, यह एक बहुत पुरानी बात जैसा लगने लगा है।

ऐसे में न्याय और न्यायपालिका से क्या उम्मीद कर रहे हैं? कल्ट यहां भी है। उसके खिलाफ बोला नहीं जा सकता है। बोलने से उसे ‘न्याय’ करने में बाधा पहुंचती है। यह अलग बात है कि न्याय की डेहरी पर लाखों न्याय की गुहारें दम तोड़ रही हैं। जो जेल गये वे मर रहे हैं। क्या फर्क पड़ता है कि वह शारीरिक तौर पर अक्षमता के शिकार हों, कवि हों, गायक हों, शोधकर्ता हों, ….कुछ भी हों! उसकी नजर में वह हाथ से न सही दिमाग से पिस्तौल चला ही सकता है? दिमाग से न सही विचार से चला ही सकता है? और विचार से न सही उसके खड़े होने के अंदाज से ‘सुरक्षा’ को खतरा हो सकता है?

आखिरकार कानून है, कानून की व्याख्याएं हैं और उससे भी अधिक न्याय करने का कार्यभार जो है! जिसके लिए उन्हें तनख्वाह दी जाती है। लेकिन तनख्वाह तो बहुत ओछी बात हो गयी। तनख्वाह लेकर न्याय? न्यायाधीश न्याय करता है और जिंदगी चलाने के लिए उसे मिलती है तनख्वाह। सवाल मेरे जेहन में अब भी बना हुआ है न्याय और तनख्वाह के बीच क्या रिश्ता है? क्योंकि बहुत सारी बातें इसके आसपास की जा रही हैं और इस पर मुख्य न्यायाधीशों के रुख पर काफी विवाद भी रहा है। क्योंकि, इसका सीधा रिश्ता सरकार से जुड़ जाता है। वह सरकार जिससे न्यायधीशों की पर्याप्त नियुक्तियों के लिए गुहार लगाई गई जिससे न सिर्फ मुकदमों में फंसे लोगों को मुक्त कर दिया जाए बल्कि न्याय की उम्मीद में बैठे लोगों को सिर्फ निराशा हाथ न लगे। जस्टिस ठाकुर जब यह बात उठा रहे थे तब उन्हें यह उम्मीद नहीं रही होगी कि बहुत से न्याय सड़क पर होने लगेंगे और बहुत से न्याय की डेहरी से बाहर प्रशासन और कल्ट पर आधारित व्यवस्था में कर दिये जाएंगे। 

न्यायधीशों की नियुक्ति एक प्रशासनिक और व्यवस्थागत प्रक्रिया है। यह न्याय की प्रक्रिया में बाधा होने के बावजूद ‘अवमानना’ की श्रेणी में नहीं आता है। लेकिन प्रशांत भूषण का एक ट्वीट जरूर एक बाधा बन जाता है क्योंकि इससे कोर्ट पर सवाल खड़ा हो गया। मुझे पूरब की चलने वाली पंचायतें और, एक बार की देखी हुई खाप पंचायत के दृश्य याद आ रहे हैं। हम कहां खड़े हैं? देश की राजधानी में या उसके बाहर, सुदूर। देश में बहुत कुछ बदला है, बदल रहा है, दूरियां मिट रही हैं, ….आप ट्रेन की दो बोगियों के बीच बैठे यात्रा कर रहे हैं, शंटिंग टूटने का अर्थ आप भी जानते हैं और मैं भी…।

एक चिंतक हैं जिनका नाम अमी सिजायर है। उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष में और वैचारिकी में उनकी एक अहम भूमिका है। उन्होंने उपनिवेशवाद के खात्मे के दौर को भी देखा और उसकी चुनौतियों के बारे में लिखा। उनकी लिखी एक अहम बात पेश कर रहा हूंः ‘‘एक ऐसी सभ्यता जो समस्या को हल करने में अक्षम हो चुकी है, एक पतनशील सभ्यता बनाती है। एक ऐसी सभ्यता जिसने एकदम जरूरी समस्याओं से मुंह फेरकर आंख बंद कर लेना चुना है, वह एक रोगग्रस्त सभ्यता है। एक ऐसी सभ्यता जो अपने सिद्धांतों का प्रयोग झूठ और कपट के लिए कर रही हो वह मरती हुई सभ्यता है।’’ हम उम्मीद करें कि हम खुद भी यही न हो जायें। आवाज उतनी ही साफ और ऊंची हो जितनी हमारे मूल्य और नैतिकता।

मरती हुई सभ्यताओं को जीवन हमेशा ही नागवार गुजरा है। वे अक्सर ही इसे अवमानना और खुद पर खतरा समझते रहे हैं। इतिहास को वे अक्सर ऐसा ही लिखते हैं और वर्तमान को नष्ट करने पर तुले होते हैं जिससे कि जीवन उनके छल कपट में फंस कर उलझ जाये और अपना भवितव्य उस मरती सभ्यता के अनुरूपता में ढल जाये। छल और कपट से, दमन और बंदूक से, न्यायालय की खुद के बारे में ‘न्याय’ की पेशगी से इतिहास को नापसंदगी उतनी ही है जितनी जीवन को मौत से। इस खेल में ‘अवमानना’ प्रकरण एक प्रहसन की तरह है, उसका एक फुटनोट भी। पूरे टेक्स्ट की तरह यह फुटनोट भी याद रखा जाएगा। आप कह सकते हैं, पूरा टेक्स्ट कहां है, यहां तो खाली जगह है, केवल फुटनोट है। हां, यह खाली जगह का फुटनोट है। फिलहाल, न्याय तो नहीं है।

(अंजनी कुमार लेखक और एक्टिविस्ट हैं।)

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