बख्तियार के मानस पुत्रों! यह मध्य युग नहीं 21वीं सदी है

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बख्तियार खिलजी जब नालंदा विश्वविद्यालय को तहस-नहस किया होगा तो नजारा कुछ जामिया जैसा ही रहा होगा। वह तो आक्रांता था लेकिन दिल्ली में बैठे मौजूदा बख्तियारों के बारे में क्या कहा जाए? जामिया की लाइब्रेरी में बिखरी किताबें। रैक के टूटे शीशे। फर्श पर पड़े खून के धब्बे। अंधेरी रात में घटी पूरी कहानी बयां कर रहे थे। जान और इज्जत बचाने के लिए गुसलखानों में घुसकर सांस रोकी लड़कियों की दहशत उनके चेहरों पर देखी जा सकती थी। इन खाकीधारियों ने इमाम तक को नहीं बख्शा। न केवल उन्होंने मस्जिद में घुसने की जुर्रत की बल्कि बच्चों को बचाने की कोशिश पर मस्जिद के इमाम पर भी लाठियां भांजीं।

पुलिस का गोली चलाते वीडियो वायरल है लेकिन प्रशासन उससे इंकार कर रहा है। अस्पातल से दो लोगों को गोली लगने की रिपोर्ट है लेकिन पुलिस मानने के लिए तैयार नहीं है। आपराधिक तत्वों को साथ लेकर छात्राओं को पीटने का वीडियो है। बावजूद इसके पुलिस उन्हें खारिज कर रही है। सबसे ज्यादा विवाद बसों में लगायी गयी आग को लेकर है। क्योंकि उसी को सामने कर पुलिस ने इस बर्बर हमले को अंजाम दिया है।

दरअसल यह अपने तरह का एक छोटा गोधरा मोमेंट था। जिसमें उसे आगे कर पूरे गुजरात दंगों को अंजाम दिया गया था। हमें नहीं भूलना चाहिए कि इस समय गृहमंत्रालय में एक शख्स ऐसा बैठा है जिसने इस तरह के अपराधी तत्वों के साथ न केवल काम किया है बल्कि सरकार में रहते उनका कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है। इस बात को बखूबी जानता है। सीबीआई अपनी चार्टशीट में उसे फिरौती गैंग का सदस्य बता चुकी है। जामिया में भी लगता है कि वही माडस आपरेंडी अपनायी गयी। जिसमें इलाके के अपराधियों को जरिये सबसे पहले हिंसा फैलायी गयी। इसमें बसों को जलाने की बात प्रमुख तौर पर शामिल थी। एक बस जिसमें आग नहीं लगी थी वह सबसे ज्यादा चर्चे में है।

सामने से एक पुलिसकर्मी को गैलन में कुछ ले जाते देखा जा सकता है। जबकि एक दूसरा पुलिसकर्मी एक दूसरे शख्स से उसमें कोई चीज अंदर डलवाते दिख रहा है। अब प्रशासन और मीडिया के एक हिस्से का कहना है कि यह पानी था जिसे पुलिस बस के भीतर डाल रही थी। तब सवाल यह उठता है कि अगर बस में आग लगी ही नहीं थी तो फिर उसमें पानी डालने की क्या जरूरत थी? इसी बस का एक और वीडियो सामने आया है जिसमें एक पुलिसकर्मी को बोतल में रखा कोई द्रव सीटों पर डालते देखा जा सकता है। अब कोई पूछ ही सकता है कि आखिर जब आग नहीं लगी है या फिर उसमें इस तरह का कोई खतरा नहीं है तो फिर यह पानी क्यों? अगर यह बस नहीं भी जली तो इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरी बसें इसी तरीके से नहीं जलायी गयीं। इन सारी चीजों को देखते हुए इस बात की आशंका और गहरी हो जाती है कि बाकी बसों में भी यही मॉडस आपरेंडी अपनायी गयी होगी।

इन पंक्तियों के लेखक के पास इसको कहने के कई पुख्ता कारण हैं। दरअसल इलाके के एक प्रत्यक्षदर्शी से फोन पर हुई बात के जरिये यह सामने आया कि पुलिसकर्मियों ने अपने साथ कुछ ऐसे आपराधिक तत्व रखे थे जो इन सारी चीजों को अंजाम दे रहे थे। उनका कहना था कि जहां बसें खड़ी थीं उससे कुछ दूर पर प्रदर्शनकारी थे। और इस बीच आग लगाकर बदमाश प्रदर्शनकारियों की तरफ जाने के बजाय दूसरी तरफ से भाग निकले। उनकी मानें तो प्रदर्शनकारियों की तरफ जाने पर उनकी खुद पिटाई हो जाती। क्योंकि प्रदर्शनकारियों को भी पता था कि वे आंदोलन को ध्वस्त करने की साजिश में लगे हैं।

इसी बात की एक दूसरे शख्स ने जो दिल्ली सरकार में मंत्री हैं, दूसरे तरीके से पुष्टि की। उन्होंने व्यक्तिगत बातचीत में बताया कि गृहमंत्रालय ने खुफिया विभाग के जरिये अपने पूरे देश के नेटवर्क से अल्पसंख्यकों का ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शन करवाने का निर्देश दिया था। और इस काम में अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े आपराधिक तत्वों की मदद लेने की सलाह दी गयी थी। दरअसल ऐसे अपराधिक तत्व न तो किसी धर्म के होते हैं और न ही उनका इंसानियत से कोई रिश्ता होता है। और आमतौर पर हमेशा पुलिस के चंगुल में होते हैं। और उन्हीं के इशारे पर काम करते हैं। इलाहाबाद में अतीक अहमद इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। उस शख्स को बीजेपी ने जैसे चाहा वैसे इस्तेमाल किया। यह बात किसी से छुपी नहीं है।

और इन सबसे आगे जब देश के प्रधान ने झारखंड की एक चुनावी सभा में यह बात कही कि प्रदर्शनकारी कौन हैं यह उनके कपड़ों को देखकर पहचाना जा सकता है। तब फिर ऊपर जितनी बातें कही गयी हैं उनके पीछे तर्क देने के लिए कुछ बचता भी नहीं है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आखिर दिल्ली की सत्ता इसके जरिये क्या हासिल करना चाहती थी।

दरअसल जामिया की घटना के तीन तत्काल फायदे मिलने जा रहे थे। पहला उसे असम में हो रहे आंदोलन को डिफोकस करना था। क्योंकि उसमें न केवल असम और सूबे की बीजेपी सरकार का उससे नुकसान हो रहा था बल्कि पूरे देश में यह संदेश जा रहा था कि हिंदू-मुस्लिम सभी मिलकर इस कानून का विरोध कर रहे हैं। जबकि बीजेपी को इस मामले को हिंदू बनाम मुस्लिम बनाना था। लिहाजा इस तरह की साजिश रचकर ही इस दिशा में मोड़ा जा सकता था। यह बात और ज्यादा इसलिए पुख्ता हो जाती है कि जामिया के खिलाफ जैसे ही एएमयू में रात में विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ तो पुलिस ने परिसर में घुसकर लाठीचार्ज कर दिया। और फिर जमकर हंगामा हुआ जिसके बाद विश्वविद्यालय को बंद कर दिया गया। इसके बाद देश में अपने पालतू मीडिया के जरिये जामिया और एएमयू करना शुरू हो जाता। लेकिन संयोग से दिल्ली हेडक्वार्टर के सामने जामिया के समर्थन में खड़े राजधानी के लोगों ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया।

दूसरा उसके पास दिल्ली में आने वाले चुनावों के लिए भी एक बड़ा मौका था क्योंकि उसे अपनी जमीन तैयार करनी थी। जो किसी काम के बजाय अब हिंदू-मुस्लिम के सहारे ही खड़ी हो सकती है। और तीसरा था झारखंड में जारी चुनाव में इसका फायदा लेना। जहां मोदी और अमित शाह किसी रोजी-रोजगार की जगह मंदिर और लोगों के कपड़ों की पहचान पर ही वोट मांग रहे हैं। कल ही एक चुनावी सभा में शाह ने कहा है कि चार महीने के भीतर अयोध्या में गगनचुंबी मंदिर बन जाएगा।

और इस मामले में एक आखिरी बात। पुलिस के इन हमलों में पहले दिल्ली पुलिस के साथ सीआरपीएफ को शामिल किया गया जो एक अर्धसैनिक बल है। और बेहद ही इमरजेंसी के मौके पर या फिर अतिरिक्त फोर्स की जब जरूरत होती है तब नागरिक कामों में उनका इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि उनको आम नागरिकों के साथ व्यवहार की ट्रेनिंग नहीं दी गयी है। लेकिन इस बीच देखा गया है कि हर प्रदर्शन में दिल्ली पुलिस के साथ सीआरपीएफ के लोगों को लगा दिया जा रहा है। अब इसमें एक नया तत्व जुड़ गया है। आम ड्रेस में युवाओं का होना। जैसा कि जामिया और दिल्ली विश्वविद्यालय में हुआ। जामिया में तो कुछ तस्वीरें बाकायदा उनके बुलेट प्रूफ जैकेट के साथ आयीं।

दरअसल ये आरएसएस के गेस्टापो के तौर पर काम कर रहे हैं और इन्हें इसके जरिये वैधता दिलाने के बाद इस बात की पूरी आशंका है कि ये स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू कर देंगे। और कल अगर ये आपके दरवाजे पर आपसे पूछताछ करने भी पहुंच जाएं तो आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

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