झारखंड विधान सभा का चुनाव के अंतिम परिणाम क्या होंगे यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन इतना साफ़ होता लग रहा है कि इस बार किसी भी गठबंधन को पूर्ण बहुमत शायद ही मिल पाए। इस सूबे में विधानसभा की 81 सीटें हैं और बहुमत के लिए 41 सीटों की जरुरत होती है।
लेकिन इस बार के चुनाव में जिस तरह की राजनीति देखने को मिल रही है उससे साफ़ लगता है कि कोई भी गठबंधन बहुमत के करीब शायद ही पहुंच पाए। इसलिए इस बात की सम्भावना ज्यादा बढ़ती जा रही है कि चुनाव परिणाम के बाद छोटे दलों और निर्दलीयों की भूमिका अहम् हो सकती है।
एनडीए गठबंधन के साथ आजसू पार्टी है जिसके मुखिया सुदेश महतो हैं। सूबे की राजनीति में सुदेश पहले झामुमो के साथ ही थे, लेकिन बाद के वर्षों में वे झामुमों से अलग हो गए और बीजेपी के साथ चले गए। सुदेश की खासियत यही है कि उनके साथ आज भी बड़ी संख्या में छात्र जुड़े हुए हैं।
अजर स्कूल और कॉलेज के छात्रों में आजसू की अच्छी पकड़ मानी जाती है। इस पार्टी की जबसे राजनीति शुरू हुई उसमें एक बात काफी अहम् है कि हर चुनाव में इसके वोट प्रतिशत बढ़ते गए हैं और बड़ी बात तो यही है कि पिछले 2019 के चुनाव में आजसू के वोट प्रतिशत साढ़े दस फीसदी तक हो गए।
अब इस बार अगर इस पार्टी के वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी होती है तो जाहिर है कि यह पार्टी कोई कमाल दिखा सकती है और दस सीटों पर लड़ने वाली इस पार्टी ने अगर सात से आठ सीटों पर जीत हासिल कर लिया तो सरकार बनाने के लिए किसी भी गठबंधन के लिए सुदेश के भाव बढ़ जाएंगे।
इसके साथ ही कई इलाके में बहुत से ऐसे निर्दलीय मैदान में हैं जो सत्तारूढ़ पार्टी से लेकर एनडीए के उम्मीदवारों पर भारी पड़ते दिख रहे हैं।
यही वजह है कि जानकार भी मान रहे हैं कि यह चुनाव झारखण्ड के लिए ख़ास होने जा रहा है। बता दें कि सुदेश महतो झामुमो और बीजेपी के साथ रहकर उपमुख्यमंत्री बन चुके हैं और अब उनकी चाहत आगे की है।
कई लोग यह भी कह रहे हैं कि इस चुनाव में अगर जनता ने सुदेश का साथ दिया तो सत्ता के खेल बदल सकते हैं। खेल तो यह भी हो रहा है कि एक बार फिर से सुदेश झामुमो के भी कुछ नेताओं के संपर्क में हैं। इस बात की जानकारी बीजेपी को भी है और संघ के लोग भी इस खेल को नजदीक से देख रहे हैं।
बता दें कि 1980 के दशक में जब राष्ट्रीय स्तर पर झारखंड राज्य गठन के बारे में पहली बार विचार सामने आया, तब ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन की तर्ज पर आजसू को झारखंड मुक्ति मोर्चा के यूथ विंग के तौर पर 1986 में स्थापित किया गया।
झारखंड राज्य की मांग ने आजसू को एक राज्यस्तरीय पार्टी के रूप में पहचान दी। कभी आजसू में कार्यकर्ता के तौर पर काम करने वाले सुदेश महतो आज इसके मुखिया हैं।
अलग झारखंड राज्य की मांग को लेकर इनकी प्रतिबद्धता इतनी ज्यादा थी कि इन्होंने 1989 के लोकसभा चुनावों के बहिष्कार करने का फैसला किया। इसके लिए बिहार में हड़ताल और बंद का आह्वान किया गया। शिबू सोरेन के नेतृत्व वाली झारखंड मुक्ति मोर्चा ने आजसू का इस बहिष्कार का समर्थन नहीं किया।
यहीं से आजसू ने अपनी राजनीति को झामुमो से अलग कर लिया। आखिरकार 22 जून 1986 को झारखंड आंदोलन में प्रमुख चेहरे और झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रमुख नेता निर्मल महतो ने आजसू की स्थापना की। याद रहे सुदेश महतो रांची से सटे सिल्ली विधानसभा से चुनाव लड़ते रहे हैं।
इस बार भी महतो वहीं से लड़ रहे हैं और यदि सुदेश की जीत इस सीट से हो जाती है तो झारखण्ड की राजनीति में इस बार सुदेश कोई बड़ा खेल कर सकते हैं।
अब मुख्य बात तो यह है कि जिस तरह से बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टियां इंडिया गठबंधन के खिलाफ चुनावी मैदान में प्रचार कर रही है उस पर नजर डालने की जरुरत है। खासकर बीजेपी झामुमो और इंडिया गठबंधन के खिलाफ परिवारवाद ,घुसपैठिया और भ्रष्टाचार को आगे बढ़ाते हुए झामुमो और इंडिया गठबंधन पर हमला कर रही है।
जबकि इंडिया गठबंधन अपनी सरकार के विकास कामों को लेकर जनता के समीप पहुंच रही है। 13 और 20 नवंबर को दो चरणों में चुनाव होने जा रहे हैं लेकिन अभी तक कोई भी गठबंधन यह दावा नहीं कर सकता कि सूबे की जनता उसके साथ खड़ी है और उसकी सरकार बन रही है।
साफ़ तौर पर देखा जा रहा है कि शुरूआती दौरे में जहां बीजेपी चुनावी प्रचार में काफी पीछे थी और लग रहा था कि उसकी हालत पतली हो सकती है, अब ऐसा नहीं है। बहुत कुछ बदल सा गया है। बीजेपी की पहुंच आज भी शहरी इलाके में बनी हुई है।
झारखंड के अधिकतर शहरी इलाकों में बीजेपी आज भी काफी मजबूत दिख रही है लेकिन जब आप सूबे के गांव की तरफ जायेंगे तो बीजेपी के खिलाफ माहौल दिखने लगता है।
झारखंड के गांव में झामुमो की मजबूत पकड़ है और जहां तक आदिवासियों की बात है आज भी सूबे के अधिकतर आदिवासी झामुमो और शिबू सोरेन के साथ खड़े दिख रहे हैं।
कई इलाकों में कांग्रेस की भी मजबूत पकड़ दिख रही है और कुछ इलाकों में राजद और भाकपा माले के लोग अपने उम्मीदवारों को जीताने के लिए हर प्रयास करते नजर आ रहे हैं। लेकिन जो हालत दिख रही है उससे साफ़ लगता है कि किसी भी गठबंधन को 41 सीटों तक पहुंचना काफी मुश्किल है।
इस बात की सम्भावना अब बढ़ती जा रही है कि अगर दर्जन भर सीटों पर निर्दलीय और छोटी पार्टियों ने अपना प्रदर्शन ठीक कर दिया तो इंडिया और एनडीए की मुश्किलें बढ़ सकती है और फिर कोई निर्दलीय या फिर छोटी पार्टी के नेता सीएम के रूप में सामने आ सकते हैं।
बता दें कि अभी हाल में ही हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बड़ा झटका लगा था। झारखंड में लोकसभा की 14 सीटें हैं। बीजेपी को इस बार आठ सीटों पर जीत हासिल हुई थी, जबकि पिछले चुनाव में बीजेपी के हाथ अधिकतर सीटें लग गई थी। इस बार के लोकसभा चुनाव में झामुमो को तीन सीटों पर जीत मिली थी जबकि दो सीटों पर कांग्रेस की जीत हुई थी।
एक सीट आजसू जीतने में सफल हो गई थी। अगर वोटों के हिसाब से इस जीत को देखा जाए तो बीजेपी को जहां 45 फीसदी वोट मिले थे वहीं झामुमो को करीब 15 फीसदी वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस करीब 20 फीसदी वोट पाने में सफल रही थी।
आजसू को करीब ढाई फीसदी वोट मिले थे। इस मत प्रतिशत के हिसाब से अगर विधान सभा के चुनाव में जनता का रुख देखा जाए तो बीजेपी को बढ़त दिख रही है लेकिन विधान सभा चुनाव में ऐसा होता नहीं दिख रहा।
झारखंड मूलतः पांच इलाकों में बनता हुआ है और हर इलाके की अपनी कहानी है और अपनी राजनीति भी। झारखंड का कोल्हान इलाका काफी अहम् रहा है किसी भी पार्टी के लिए। यह इलाका सम्पूर्ण रूप से आदिवासी बहुल है और कभी इस इलाके में बीजेपी की मजबूत पकड़ हो गई थी।
लेकिन पिछले चुनाव में झामुमो अजर कांग्रेस ने इस इलाके से बीजेपी को खदेड़ ही दिया था। इसी इलाके से चम्पई सोरेन आते हैं जो कभी गुरु जी के ख़ास रहे हैं।
लेकिन अब वे बीजेपी के साथ चले गए हैं। कोलझान इलाके में कुल 14 सीटें आती हैं जिसमें से अधिकतर सीटों पर पिछले चुनाव में इंडिया गठबंधन की जीत हो गई थी। बीजेपी की कोशिश इस बार झामुमो और कांग्रेस को कमजोर करने की है और यही वजह है कि चम्पई सोरेन के जरिये बीजेपी पूरा जोर भी लगा रही है।
लेकिन हालत को देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है कि कोल्हान इलाके में अगर बीजेपी दो से चार सीटों पर भी जीत हासिल कर ले तो बड़ी बात हो सकती है। झामुमो और कांग्रेस ने इस इलाके की बड़ी घेराबंदी कर रखी है और उसकी कोशिश इस इलाके की सभी सीटों पर जीत हासिल करने की है।
झारखंड का दूसरा बड़ा इलाका संथाल का है। इस इलाके में विधान सभा की 18 सीटें आती है। पिछले चुनाव में इंडिया गठबंधन को 14 सीटों पर जीत मिली थी। यह इलाका शिबू सोरेन परिवार का गढ़ भी रहा है। हालांकि समय के साथ बहुत कुछ बदला है और बीजेपी अब इस इलाके में मजबूत पहुंच भी बना ली है।
लेकिन इस इलाके में आज भी बीजेपी कोई बड़ा खेल कर पाने की स्थिति में नहीं है। शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन अब बीजेपी के साथ चली गई है और वह भी संथाल से ही राजनीति कर रही है।
ऐसे में कहा जा सकता है कि बीजेपी संथाल में तीन से चार सीटों तक ही कमाल दिखा सकती है और ऐसा हुआ तो बीजेपी का खेल और भी ख़राब हो सकता है। बीजेपी को अगर सत्ता तक पहुंचना है तो उसे संथाल अजर कोल्हान में बड़ा खेल करना होगा और उसे बड़ी जीत भी हासिल करनी होगी लेकिन ऐसा दिख नहीं रहा है।
पलामू इलाके में कुल 9 सीटें आती है। इस इलाके में बीजेपी की पहुंच काफी मजबूत बनी हुई है। पिछले चुनाव में बीजेपी को यहां से पांच सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार बीजेपी यहां कितनी सीटें लाती है यह देखने की बात होगी।
यहां हर सीट पर कांटे की टक्कर है और यहां कई सीटों पर मजबूत निर्दलीय भी खड़े हैं। कई छोटी पार्टियां भी यहां अपना प्रभाव दिखाती नजर आ रही हैं, ऐसे में बीजेपी कितना कुछ कर पाएगी यह समय ही बताएगा।
दक्षिण छोटानागपुर इलाके में 13 सीटें है। पिछले चुनाव में बीजेपी को पांच सीटें मिल गई थी लेकिन इस बार बीजेपी को पांच सीटें भी मिलती है यह नहीं यह बड़ी बात हो सकती है। झामुमो और कांग्रेस ने बीजेपी के पांचो सीटों पर मजबूत उम्मीदवारों को खड़ा कर दिया है और बीजेपी के उम्मीदवारों की मुश्किलें बढ़ी हुई है।
बीजेपी के सामने बड़ी चुनौती यही है कि वह अपनी पांच सीटों पर भी जीत हासिल कर ले। यही हाल झामुमो और कांग्रेस वालों की भी है।
झारखंड के उतरी छोटानागपुर बेल्ट में विधान सभा की 25 सीटें आती है। सीटों के लिहाज से यह बड़ा इलाका है और इस इलाके में बड़ी संख्या में गैर आदिवासी भी रहते हैं। अभी तक ये गैर आदिवासी बीजेपी के साथ ही खड़े रहे हैं, लेकिन इस बार इस इलाके में बीजेपी को काफी बड़ा टक्कर मिलता दिख रहा है।
पिछले चुनाव में बीजेपी को यहां 11 सीटों पर जीत मिली थी जबकि 12 सीटों पर झामुमो और कांग्रेस के उम्मीदवार जीत पाए थे। इस बार बीजेपी यहां कितनी मजबूती से चुनाव लड़ती है और कितने उम्मीदवार उसके जीत पाते हैं यह बड़ा सवाल है।
कह सकते हैं कि इस बार के चुनाव में केवल 20 सीटों पर ही बीजेपी और झामुमो, कांग्रेस के उम्मीदवार सेफ लड़ाई लड़ रहे हैं जबकि 60 सीटों पर कड़ा मुकाबला है। यह ऐसा मुकाबला है जिसमें कोई भी यह कह पाने की हालत में नहीं है कि किसकी जीत हो पायेगी।
ऐसे में सभी की निगाहें निर्दलीय और छोटी पार्टियों पर जा टिकी है। छोटी पार्टियां जितनी सबल होंगी और निर्दलीय जितनी सीटें लेकर आएंगे उसी पर सत्ता सरकार बनने की सम्भावना प्रबल होगी। झारखंड के लोग बी ही कहते नजर आते हैं कि अभी तक कोई भी इस प्रदेश के साथ न्याय नहीं कर पाया।
इस प्रदेश की जो मौलिक समस्या है वह आज भी वहीं हैं। जिस मांग को लेकर इस सूबे का निर्माण किया गया था वह मांग आज भी कायम है। सूबे के कई ऐसे इलाके आज भी हैं जहां भले ही सरकार की पहुंच नहीं हो पाई है लेकिन हर पार्टियों के डंडे, झंडे और बैनर पहुंच गए हैं।
लोकतंत्र वहां पहुंच गया है लेकिन लोगों की हालत में कोई सुधार नहीं हो पाया है। ऐसे में झारखंड का यह चुनाव कई मायने में अहम है।
यही वजह है कि झारखंड का यह चुनाव लोगों के लिए चाहे जितना भी अहम क्यों न हो यह चुनाव पार्टियों के लिए भी काफी अहम है। अगर इस चुनाव में कई पार्टियों की कहानी ख़राब हुई तो साफ़ है कि झामुमो और बीजेपी के लिए फिर से नए दरवाजे शुरू हो सकते हैं और ऐसा नहीं हुआ तो बीजेपी और झामुमो के सामने कोई नयी चुनौती भी सामने आ सकती है।
(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं)
+ There are no comments
Add yours