जोशीमठ त्रासदी: यह दैवीय नहीं पगलाए विकास द्वारा आमंत्रित आपदा है

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साल, 2010 की 25 मई के करेंट साइंस के वॉल्यूम 98 अंक 10 में जोशीमठ की भौगोलिक और भूगर्भीय स्थित और आज जो आपदा दिख रही है उसके बारे में एक लेख छपा था। जोशीमठ पर विशेषज्ञों की रिपोर्टों को खंगालते खंगालते इस लेख पर नजर पड़ी तो पता चला कि, जिस तरह के पगलाए विकास का ताना-बाना जोशीमठ के इर्दगिर्द बुना जा रहा था, उससे तो यह आपदा आनी ही थी। बस समय का इंतजार था और दुर्भाग्य से वह समय आज इस भीषण सर्दी में आया है। आपदा प्रबंधन का काम जारी है। एनडीआरएफ, सेना तथा और भी राहत पहुंचाने वाली एजेंसियां अपना काम निष्ठा से कर रही है।

कितने परिवार, धंसती दीवारों और क्रैक होती छतों के घरों से सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाए गए, कितनों की जान बचाई गई और कितना धन इनके पुनर्वास पर खर्च हुआ, यह सब आंकड़े सरकार, खुद ही प्रधानमंत्री जी के नयनाभिराम फोटो के साथ विज्ञापन देकर बताएगी, पर यह कभी नहीं बताएगी कि, विशेषज्ञों की सलाह को क्यों और किस आधार पर नजरअंदाज किया गया और क्यों सुप्रीम कोर्ट में सड़क चौड़ी करने की जिद सुरक्षा की आड़ में की गई। दुर्भाग्य से, आज यदि जोशीमठ जमींदोज हो जाता है तो, चार लेन सड़क की तो बात ही छोड़ दीजिए, वर्तमान सड़क जो चीन सीमा तक लाव लश्कर पहुंचाती है, वह भी कहीं कहीं गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो सकती है।

‘करेंट साइंस’ के उक्त अंक के, इस लेख के लेखक हैं, एमपीएस बिष्ट और पीयूष रौतेला जो हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के डिजास्टर मिटिगेशन एंड मैनेजमेंट सेंटर से जुड़े हुए हैं। लेख में, जोशीमठ की भौगोलिक, भूगर्भीय और पर्यावरणीय परिस्थितियों की चर्चा करते हुए लिखा गया है कि, “मध्य हिमालय में कुंवारी दर्रे के आसपास का क्षेत्र कई धाराओं का स्रोत है, जिनमें ढकनाला, कर्मनासा, पातालगंगा, बेलाकुची और गरूणगंगा शामिल हैं। पहली (ढकनाला) धौलीगंगा की सहायक नदी है, जबकि बाकी नदियां, अलकनंदा में मिल जाती है। ये जलधाराएँ अतीत में हुई कुछ तबाही की घटनाओं के लिए भी जानी जाती हैं। भूस्खलन के कारण इन धाराओं में अवरोध के बाद, अक्सर इनमें बाढ़ आई है और जिसके कारण तबाही हुई है।”

वैज्ञानिकों के अनुसार पूरा हिमालय क्षेत्र ही भूस्खलन के दृष्टिकोण से, बेहद संवेदनशील है। जैसे ही हरिद्वार-बद्रीनाथ राजमार्ग पर देवाप्रयाग के आगे बढ़ेंगे तो, कई जगह भूस्खलन होता दिखेगा। इसी राजमार्ग पर एक स्थान है कालियासौंड, जहां पहाड़ बराबर खिसकता रहता है और यातायात बाधित न हो, इसलिए बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन (बीआरओ) की एक इकाई वहां बराबर तैनात रहती है।

ऊपर उल्लिखित, जल धाराओं का विन्यास विशिष्ट संरचनात्मक नियंत्रण को प्रदर्शित करता है। जैसे, कर्मनासा और ढकनाला क्रमशः मुनस्यारी और वैकृता के साथ जुड़े हुए हैं। लेख के अनुसार, “मुनस्यारी थ्रस्ट, मुनस्यारी फॉर्मेशन की निम्न से मध्यम श्रेणी की चट्टानों को लघु हिमालयी मेटासेडिमेंट्री के साथ मिलाता है। भूगर्भ विज्ञान में मेटासेडिमेंट्री चट्टान वे चट्टान होती हैं जो किसी अन्य चट्टान पर आकर टिक जाती है। उनके कठोर होने की प्रक्रिया चलती रहती है। यह सिलसिला, हेलोंग के लगभग 900 मीटर दक्षिण में देखा जा सकता है। मुनस्यारी थ्रस्ट के आसपास के क्षेत्रों में क्वार्टजाइट्स और ऑगेन गनीस के काफी मोटे सारणीबद्ध निकायों के साथ गार्नेटिफेरस माइका शिस्ट एक दूसरे से गुंथे दिखाई देते है। झारकुल के पास इस खंड में आगे, सफेद क्वार्टजाइट की एक मोटी निरंतर पट्टी नीस और शिस्ट के भीतर होती है।

यह लघु हिमालय के बेरीनाग क्वार्टजाइट जैसा दिखता है। क्वार्टजाइट्स, ऑगेन गनीस, गार्नेटिफेरस, क्वार्टजाइट, आदि विभिन्न प्रकार के पत्थरों के नाम और प्रकार हैं। मुनस्यारी संरचना के भीतर इस क्वार्टजाइटिक संकुल की उपस्थिति, एक तरह के समीकरण, यानी इम्ब्रिकेशन के कारण है। क्वार्टजाइट अत्यधिक विकृत नीस से ढका हुआ है। मुनस्यारी संरचना अनिवार्य रूप से गार्नेट युक्त अभ्रक के इक्ट्ठे हो जाने से बनी है। विकृत एम्फीबोलाइट्स, कैल्क-सिलिकेट लेंस, क्वार्टजाइट्स, माइलोनाइटिक बायोटाइट समृद्ध महीन दानेदार गनीस, ऑगेन गनीस और फाइलोनाइट्स आदि की वहां बहुतायत है।” धीरे धीरे, यह स्तर, वैकृता थ्रस्ट (MCT) की ओर बढ़ता रहता है। मुख्य रूप से गनीस और शिस्ट्स से बना जोशीमठ फॉर्मेशन वैकृत थ्रस्ट के साथ मुनस्यारी फॉर्मेशन की चट्टानों पर अपना दबाव देता है। जबकि, धौलीगंगा, धौलीघाटी में स्थित तपोवन के गर्म झरने से उद्गमित होती हैं।

जोशीमठ धौलीगंगा और धौलीगंगा के साथ, क्रमशः पश्चिम और पूर्व में कर्मनासा और ढकनाला से बंधी पहाड़ी के मध्य ढलानों में स्थित है एक छोटा सा कस्बा था, जो अपने सामरिक महत्व और बद्रीनाथ धाम, हेमकुंड साहिब जैसे तीर्थों और औली जैसे हिम स्पोर्ट्स का केंद्र बन जाने के कारण, एक अच्छे खासे शहर में बदल गया है। इसके दूसरी ओर अलकनंदा है जो, नीचे जाकर मंदाकिनी, भागीरथी अन्य नदियों के साथ मिल कर गंगा के रूप में प्रवाहित होती रहती है। जोशीमठ शहर के अतिरिक्त, अन्य कई छोटी छोटी बस्तियाँ, जोशीमठ पहाड़ के, निचले और मध्य ढलानों में स्थित हैं, जिनमें चमी, शेलोंग, खनोती चट्टी, अनिमठ, विष्णुप्रयाग, खान, परसारी, गणेशपुर, सुनील, गौका, दादन, रेगांव, औचा, औली, खरोरी, कुनी शामिल हैं।

इसके अतिरिक्त, पैइयां, खांचा, बरगांव, पैनी, विष्णुपुरम, मारवाड़ी, बिलागढ़, मिराग, करछीगांव, तुगासी, चमटोली और झारकुला चट्टी भी है। करेंट साइंस के उक्त लेख के अनुसार, ‘इन बस्तियों की कुल आबादी लगभग 18,000 (साल 2009 में) है। ऊंचाई समुद्र तल से 1440 और 3797 मीटर के बीच जगह जगह है, और पहाड़ी के ऊपर, एक कोमल ढाल और पुरानी भूस्खलित सामग्री का एक मोटा आवरण है। सर्दियों के दौरान, ऊपरी इलाकों में काफी हिमपात होने लगता है और, उसी हिमपात के कारण, आसपास के झरनों, और जलधाराओं का प्रवाह, बारहमासी बना रहता है।

जोशीमठ की यह हालिया त्रासदी, प्रमुख टेक्टोनिक प्लेट्स के जुड़ाव बिंदु के निकट स्थित होने के कारण, जोशीमठ, पर बढ़ते मानवजनित दबाव का परिणाम है। लंबे समय से, इस क्षेत्र में लगातार भू-धंसाव की घटनाएं होती रही हैं। इन्ही घटनाओं के कारण 1976 में गठित एमसी मिश्रा कमेटी ने सिफारिश की थी, कि जोशीमठ के आसपास के क्षेत्र में भारी निर्माण पर रोक लगा दी जाए। लेकिन ऐसा किया नहीं गया। ‘करेंट साइंस’ जर्नल के लेख में लिखा गया है, “क्षेत्र की भौगोलिक/पर्यावरणीय भेद्यता से पूरी तरह अवगत होने के बावजूद, जोशीमठ और तपोवन के आसपास कई जलविद्युत योजनाओं को मंजूरी दे दी गई है। विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना ऐसी ही एक योजना है। परियोजना की प्रमुख सुरंग जोशी मठ के नीचे भूगर्भीय रूप से नाजुक क्षेत्र से होकर गुजरती है।”

लेख एक और रोचक तथ्य को उजागर करता है। एनटीपीसी की इस परियोजना से संबंधित भूवैज्ञानिक जांच करने के लिए, पहले, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) की टीम को, लगाया गया था। बाद में एनटीपीसी ने, जीएसआई, के बजाय, यह दायित्व एक निजी कंपनी को सौंप दिया। ज़ाहिर है जीएसआई भी एनटीपीसी की ही तरह, भारत सरकार का एक विभाग है, और वह एनपीटीसी के लिये, मनमाफिक रिपोर्ट नहीं बना सकता था, और यह काम किसी निजी कंपनी से आसानी से कराया जा सकता था, इसलिए, निजी कंपनी को, प्राथमिकता दी गई। निजी कंपनी ने, अपनी क्लियरेंस देते समय पहले की गई भूवैज्ञानिक जांचों का संज्ञान लिया था या उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया था, इसके बारे में इस लेख में कोई उल्लेख नहीं है।

हेड रेस टनल की खुदाई के लिए, टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) का प्रयोग किया गया था। 24 दिसंबर 2009 को, इस टीबीएम ने शेलोंग गांव के पास, अलकनंदा के बाएं किनारे से लगभग 3 किमी अंदर स्थित एक जल-वाहक स्तर को पंचर कर दिया। परियोजना अधिकारियों के अनुसार, यह साइट औली के नीचे, सतह से लगभग एक किलोमीटर से अधिक नीचे थी। बताया गया कि, पानी का डिस्चार्ज, 700 और 800 लीटर प्रति सेकंड के बीच था।

जलभृत या एक्विफ़ायर का लगातार, होने वाला पूरा डिस्चार्ज, लगभग 60-70 मिलियन लीटर प्रतिदिन था, जो बीस तीस लाख की आबादी के लिये पर्याप्त था। एक्विफ़ायर या जलभृत वह क्षेत्र होता है जहां पर विभिन्न भूतलीय जल धाराओं से आकर पानी एकत्र होता रहता है। यह एक समृद्ध जलभृत क्षेत्र था, जो एक माह बीत जाने के बाद भी, सूख नहीं पाया था। यह एक जल स्रोत की बर्बादी थी, जो टनल बोरिंग मशीन के लापरवाही पूर्ण प्रयोग के कारण हो गई।

इस घटना पर टिप्पणी करते हुए, उक्त लेख में लिखा है कि, “जलभृत से पानी के अचानक बह जाने के, कई तरह के प्रभाव, आगे चल कर होंगे, लेकिन इसके पूर्ण प्रभावों पर, फिलहाल कोई निष्कर्ष निकालना अभी जल्द बाजी होगी। यह भी आशंका जाहिर की गई थी कि, “सुरंग के माध्यम से डिस्चार्ज होने वाले पानी के परिणामस्वरूप आसपास के, कई झरने, सूख जाएंगे। जोशीमठ के आस-पास की बस्तियों को गर्मी के मौसम में पीने के पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा।”

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि, जल प्रवाह में निरंतर कमी होते रहने और कुछ झरनों के असामयिक रूप से, सूखते जाने की सूचना, सरकार को, पहले ही दी जा चुकी थी। इस अचानक और बड़े पैमाने पर जल डिस्चार्ज से, इस क्षेत्र में भू धंसाव शुरू होने का खतरा है, जिससे क्षेत्र में रहने वाले लोगों की समस्याएं बढ़ सकती हैं। जमीन की नमी कम होने से, बायोमास, छोटी वनस्पतियां, प्रभावित होंगी और इसका दुष्प्रभाव, फसल उत्पादन में कमी के रूप में सामने आएगा, जो जनता के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। साथ ही यह फ़्लोरा और फाउना यानी जैव और वनस्पति की विविधिता को भी प्रभावित करेगा।

“जोशीमठ में जितनी स्थिर आबादी है, उसकी तुलना में वहां अस्थायी यानी आने, रुकने और चले जाने वाली फ्लोटिंग आबादी कहीं अधिक है। ऐसी ही आबादी को, शरण देने के लिये विभिन्न आय वर्ग को ध्यान में रखकर, यहां, नए नए होटल खोले गए। बद्रीनाथ और हेमकुंट साहिब तीर्थों का प्रवेश द्वार होने के कारण, जोशीमठ की फ्लोटिंग आबादी, अपने स्थिर आबादी की तुलना में, सामान्यतया, कई गुना बढ़ जाती है।

इस कारण, स्थानीय प्रशासन को आगंतुकों के साथ-साथ स्थानीय निवासियों को भी पानी उपलब्ध कराने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी।” यह निष्कर्ष है करेंट साइंस के लेख के विशेषज्ञों का। 2009 में दिए गए ये विशेषज्ञ मशविरे हों या, 1976 की मिश्र कमेटी की रिपोर्ट, इसके अलावे, गढ़वाल विश्वविद्यालय, आईआईटी कानपुर, के विशेषज्ञ, भू-धंसाव को लेकर अलग-अलग, निष्कर्ष और मशविरे देते रहे है। आज भी, वैज्ञानिकों के कई, समूह, इस भूगर्भीय गतिविधियों के अध्ययन और शोध में लगे हुए हैं।

आईआईटी कानपुर के भू वैज्ञानिक प्रो. राजीव सिन्हा, पिछले दो सालों से इस क्षेत्र की भूगर्भीय उथल पुथल पर अध्ययन कर रहे है। उनका बयान आज कई अखबारों में छपा है। उन्होंने बताया कि, “उत्तराखंड का, जोशीमठ और कर्ण प्रयाग वाला इलाका लैंड स्लाइडिंग, (भू स्खलन) जोन में है। यहां दशकों से, लगातार, भू स्खलन होते रहने से पत्थर कमजोर हो गए हैं। इन दोनों स्थानों स्थानों पर, अधिकतर घर व होटल इसी भूस्खलित मलबे पर खड़े हैं। पहाड़, ऊंचे हो रहे हैं, जिससे मलबा खिसक रहा है।”

आगे उन्होंने इस इलाके की भूगर्भीय स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा कि, “सबसे पहले तो आपको यह समझना होगा कि जोशीमठ और कर्णप्रयाग जैसे इलाकों की जो जियोलॉजिकल सेटिंग है वह क्या है? तीन बातें समझनी होगी। पहली बात तो यह है कि, भूकंप की दृष्टि से, यह बहुत ही, संवेदनशील जोन है और यह पूरा हिमालयी इलाका जोन फाइव में आता है। इसलिए भूकंप यहां बहुत आता है। दूसरे, कच्चे पहाड़ होने के कारण, लैंडस्लाइड्स यहां, सामान्यतया होती रहती हैं। तीसरे, यहां की टोपोग्राफी, (भूतल संरचना) ऐसी है कि, पत्थरों के गिरने की संभावना हमेशा बनी रहती है। सबसे अहम बात यह है कि, यह पूरा इलाका ही, पुराने, स्खलित हुए, भूमि पर टिका हुआ है।”

इस इलाके में विकास परियोजनाओं पर टिप्पणी करते हुए, प्रोफेसर सिन्हा ने कहा कि, “यहां जितने भी विकास कार्य हुए हैं वो सब, अनप्लान यानी अनियोजित तरीके से किए गए हैं और, बहुत ही कमज़ोर नींव पर खड़े हुए हैं। भू धंसाव की यह घटना अचानक नहीं हुई है। बल्कि, काफी पहले से, जोशीमठ के घरों में हल्की-हल्की दरारें आ रहीं थीं। पर आज की तारीख में, घरों में, बहुत ही ज्यादा दरारें आ गई हैं। यहां पर एनटीपीसी का बिजली प्रोजेक्ट चल रहा है। आशंका है कि इन टनल में बहुत सारे आंतरिक क्षेत्र हैं, जिनसे पानी का लगातार रिसाव हो रहा है।”

भविष्य की संभावनाओं पर उन्होंने कहा कि, “भू धंसाव की यह प्रक्रिया, अभी और बढ़ेगी क्योंकि, बहुत जगह से पानी का रिसाव शुरू हो गया है। अगर पानी का रिसाव शुरू हो गया है तो, पहाड़ों के अंदर पानी का जमाव होने लगेगा। इससे पानी का भूमिगत दबाव बढ़ने से भी घरों में दरारें और भूस्खलन जैसी स्थिति बन गई है। अंदर की जो जमीन है वो खिसकती जा रही है।”

उन्होंने बताया कि “ऊपरी और निचले इलाकों में वैज्ञानिकों ने टेस्टिंग की। अलकनंदा और धौलीगंगा नदी में एनटीपीसी प्रोजेक्ट चल रहा है। हमने वहां भी जाकर, कई घाटियों का परीक्षण किया। वहां पर स्लोप (ढलान) बहुत है और लैंड स्लाइड के बहुत ज्यादा चांसेज हैं।”

भू धंसाव की इस त्रासदी का क्या दीर्घकालिक परिणाम होगा, इस पर अभी कोई भविष्यवाणी करना जल्द बाजी होगी, लेकिन यह तो निश्चित है कि, इसके परिणाम पूरी गढ़वाल घाटी के लिये चिंताजनक रूप से गंभीर होंगे। दुर्भाग्यपूर्ण है कि, इस संवेदनशील क्षेत्र में, राजमार्ग, ऑल वेदर रोड, चार लेन की सड़क, तीर्थों का मूर्खतापूर्ण पर्यटन स्थलों में बदलने की सनक, इस सीमावर्ती और संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र के लिये घातक बनेगी।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस हैं और कानपुर में रहते हैं।)

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