जोतिबा फुले: सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के जनक

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जोतिबा फुले का आगमन भारतीय इतिहास को मोड़ देने वाली घटना है। सामाजिक क्रांति के जनक जोतिबा फुले ने समाज में सत्य, न्याय, समानता, स्वतंत्रता और मानव भाईचारे की स्थापना के लिए अनेक क्रांतिकारी कदम उठाए। क्रांतिकारी कार्यों के लिए रूढ़िवादी समाज की प्रताड़नाओं को सहन किया, लेकिन पूरी जिंदगी दृढ़ संकल्प के साथ कार्य करते रहे।

उन्नीसवीं शताब्दी में कई समाज सुधारकों ने समाज सुधार के अनेक आंदोलनों की शुरुआत की। राजा राम मोहन राय, केश्वचंद्र सेन, देवेंद्रनाथ ठाकुर, स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे महान सुधारकों ने भारतीय समाज की अनेक कुरीतियों पर कुठाराघात किया। इन समाज सुधारकों का संबंध मध्यवर्ग और उच्चवर्ण से था, इसलिए इनका प्रभाव भी इन्हीं वर्गों तक था। इन आंदोलनों का कार्यक्षेत्र स्त्री शिक्षा, बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह, अनमेल विवाह तक सीमित था।

फुले का संबंध समाज के निम्न-वर्ग से था और इनका प्रभाव समाज के निचले वर्गों शूद्रों-अतिशूद्रों और किसानों तक फैला था। जाति-व्यवस्था का खात्मा, छुआछूत का खात्मा, धार्मिक-पाखण्डों व अंधविश्वासों का निराकरण, भेदभावपूर्ण जातिगत व लैंगिक मूल्यों की सामाजिक जीवन से समाप्ति, धार्मिक आवरण में गरीबों का शोषण, सामाजिक विषमता, अज्ञानता, ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्चस्व के स्थान पर समाज में लैंगिक समानता, सामाजिक समानता, धार्मिक सहिष्णुता, वैज्ञानिक व तार्किकता की स्थापना इनके आंदोलनों का उद्देश्य था।

समाज में ब्राह्मणवादी (वर्ण-व्यवस्था और पितृसत्ता) विचारधारा के वर्चस्व ने शूद्रों-अतिशूद्रों को ज्ञान, सत्ता और संपति से वंचित किया जिससे उनके विकास के रास्ते बंद हो गए थे। जोतिबा फुले ने भेदभावकारी विचारधारा के विरूद्ध बगावत करने के लिए आंदोलन चलाया और लोगों को जागृत किया। पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथप्रताप सिंह ने सही कहा था कि “महात्मा फुले भारत की बुनियादी क्रान्ति के पहले महापुरुष थे। इसलिए वे आद्य महात्मा बुद्ध, महावीर, मार्टिन लूथर, नानक आदि के उत्तराधिकारी थे। उनका यह समर्पित जीवन आज के युग का प्रेरणास्रोत बना है।”

जोतिराव फुले जैविक बुद्धिजीवी थे। जिन्होंने अपने अनुभवों से ही अपने जीवन-दर्शन का निर्माण किया।जोतिबा फुले ने साहित्य में अपने समय के अन्तर्विरोधों को अभिव्यक्ति दी। तत्कालीन साम्राज्यवाद और राष्ट्रवाद के बीच संघर्ष, धर्मों की श्रेष्ठता की बीच संघर्ष, उच्च-वर्ग यानी भट्टजी-सेठजी तथा शूद्र-अतिशूद्र के बीच संघर्ष, पुरुष-वर्चस्व तथा स्त्री-मुक्ति के बीच संघर्ष, शास्त्रीय-वर्चस्वी भाषाओं तथा लोकभाषाओं के बीच संघर्ष, शास्त्रीय ज्ञान तथा अनुभवजन्य ज्ञान के बीच संघर्ष, विभिन्न सामाजिक वर्गों का सत्ता की निकटता के संघर्ष को यथार्थपरक ढंग से चित्रित किया।

जोतिबा फुले के जीवन-संघर्ष और सामाजिक बदलाव के कार्य अविभाज्य हैं। महात्मा गांधी ने उनको ‘सच्चे महात्मा’ यूं ही नहीं कहा था। सत्य और न्याय के लिए संघर्षरत लोगों के लिए जोतिबा फुले का जीवन प्रेरणादायी है। फुले द्वारा किए गए संघर्ष मुक्तिदाता बाबा साहेब डॉ.भीमराव आंबेडकर के संघर्षों व चेतना की प्रेरणा बने। फुले के जीवन संघर्षों और चिंतन का भारतीय समाज- विशेषकर दलितों-वंचितों-शोषितों के आंदोलनों और जीवन- पर गहरा प्रभाव पड़ा है। फुले के बारे में पं. जवाहरलाल नेहरू की भविष्यवाणी सही साबित हो रही है कि “भारतीय लोकतंत्र में किसान और मजदूरों की जैसे-जैसे उन्नति होगी, वैसे-वैसे ही इतिहास में महात्मा फुले का व्यक्तित्व अधिकाधिक उभर कर सामने आएगा।”

जोतिबा फुले की सोच व व्यक्तित्व के निर्माण में स्टाकिश इसाई मिशनरी, वैज्ञानिक खोजों की जानकारी और अंग्रेजी शिक्षा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे अमेरीका के इतिहास और वहां अश्वेतों की गुलामी के विरुद्ध मुक्तिकामी संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज को देख पाए। फ्रांस की क्रांति से उपजे स्वतंत्रता-समता-बंधुता के मूल्यों ने जोतिबा फुले को इतिहास दृष्टि प्रदान की। तर्क प्रणाली के कारण ही वे शास्त्रों व धर्मग्रंथों में व्यक्त झूठ-अवैज्ञानिकता और उसमें छिपे शोषण को चिह्नित कर पाए। अन्य समाज सुधारकों की तरह ग्रंथों-शास्त्रों का हवाला देकर कुप्रथाओं पर प्रहार करना उनकी प्रमुख शैली नहीं है, बल्कि वास्तविक जीवन व तार्किक आधार ही मान्यताओं की कसौटी है।

फुले-दम्पति की दृष्टि में बराबरी एक मूल्य के तौर पर था। इसी कारण उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को शिक्षित किया और सार्वजनिक जीवन में भूमिका निभाने का अवसर दिया। जोतिबा फुले अपनी सफलता का श्रेय सावित्रीबाई को देते थे। ‘अपने जीवन में जो कुछ भी कर सका, इसके लिए मेरी पत्नी कारणीभूत है’ ऐसा कहते थे। सन् 1852 में अंग्रेज सरकार ने शिक्षा के प्रसार लिए फुले-दम्पति को सम्मानित किया था। उस अवसर पर गर्व के साथ जोतिबा ने सावित्रीबाई के कार्य का उल्लेख करते हुए कहा थाः

“यह गौरव तुम्हारा ही गौरव है। मैं स्कूल खोलने के लिए कारण मात्र बन गया। लेकिन मुझे इस बात पर गुमान है कि उन स्कूलों को सुचारू रूप से चलाने में तुम सफल रही हो।”

उन्होंने भेदभावकारी व स्त्री विरोधी मान्यताओं को मानने से इनकार किया। उनका दाम्पत्य-जीवन एक-दूसरे के प्रति आदर, विश्वास, सहयोग व समर्पण के साथ समतामूलक मूल्यों पर आधारित रहा। पति-पत्नी के संबंधों में बराबरी सामाजिक संबंधों में भी बराबरी की बुनियाद है।

जोतिबा फुले के विचार और आन्दोलन में तथा उच्च वर्ग के नेताओं-चिंतकों के विचारों में यही बुनियादी अन्तर है। वो ब्राह्मणी सत्ता के मुकाबले में अंग्रेजी शासन को सामाजिक तौर पर उत्पीडि़त लोगों के लिए हितकर मानते थे। अंग्रेजी शासन के उच्चवर्गीय चरित्र के कारण उसकी आलोचना भी करते थे। वे बार-बार अंग्रेजी शासकों को याद करवाते थे कि उनकी शासन नीति अन्तत: सामाजिक तौर पर उच्च वर्ग के लोगों के हक में ही है। शिक्षा पर किये जा रहे खर्च की बात हो, प्रशासन का पक्षपाती व्यवहार हो या फिर शासन में भागीदारी की बात हो। वे उद्घाटित करते हैं कि लोगों की गाढ़ी कमाई का धन अंग्रेज अफसरों की मिलीभगत से कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की मौज-मस्ती पर खर्च हो रहा है।

समाज का वंचित वर्ग, उच्च वर्ग की कपोल-कल्पित धार्मिक कथाओं को अपने आचार-व्यवहार के आदर्श के तौर पर स्वीकार करके सांस्कृतिक उपनिवेश का शिकार रहा है। धर्मशास्त्रों की कथाओं और ब्राह्मणवादी व्यवस्था की शूद्र व स्त्री समाज में स्वीकृति को सामाजिक गुलामी का कारण माना।

उनको सामाजिक शोषण और उत्पीड़न का कारण अज्ञानता व अविद्या में दिखाई दिया। अज्ञानता के कारण बुद्धि का विकास नहीं हुआ। बुद्धि के अभाव में नीति-योजना का अभाव रहा, नीति के अभाव में तरक्की नहीं हुई और तरक्की के बिना धन-संपति-संसाधनों का अभाव रहा और संसाधनों के अभाव में शूद्रों का विकास नहीं नहीं हुआ।

विद्या बिना मति गई।

मति बिना नीति गई।

नीति बिना गति गई।

गति बिना वित्त गया।

वित्त बिना शूद्र गए।

इतने अनर्थ, एक अविद्या ने किए।

जोतिबा फुले जनभाषा के समर्थक थे। भाषा का सवाल असल में सत्ता संघर्ष से जुड़ा हुआ है। लोकभाषा के लिए उन्होंने संघर्ष किया। मराठी के संत ने कहा था कि संस्कृत भाषा देवताओं ने बनाई, मराठी क्या चोर उच्चकों से आई? पेशवा शासन के समय से ब्राह्मणों को पुरस्कार देने के लिए संस्कृत ग्रंथों को अनुदान दिया जाता था। इसकी राशि काफी थी।

25 वर्ष तक सामाजिक जीवन में समाज-सुधार के अनेक कार्य करने के बाद जोतिबा फुले ने 24 सितम्बर, 1873 को पूना के जूनागंज के घर नंबर 527 में ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। सत्यशोधक समाज ही एकमात्र ऐसा समाज था जो वर्ण-मुक्त, जाति-मुक्त, लैंगिक शोषण-मुक्त, वैज्ञानिक चेतना संपन्न वर्गविहीन समाज की स्थापना के लिए कार्यरत था। जोतिबा फुले के नेतृत्व में सत्यशोधक समाज से जुड़े लोगों ने सामाजिक, धार्मिक, लैंगिक और आर्थिक शोषण के खिलाफ अनेक पहलकदमियां कीं।

सत्यशोधक समाज के काम की तीन दिशाएं थीं-

1- व्यक्ति और निर्मिक के मध्य किसी बिचौलिये की जरूरत नहीं। बिचौलियों द्वारा लादी गई धार्मिक गुलामी को नष्ट करना। अंधश्रद्धा अज्ञानी लोगों को उस गुलामी से मुक्त करना।

2- साहूकारों और जमींदारों के शिकंजे से किसानों को मुक्त करना।

3- सभी जातियों के स्त्री-पुरुषों को शिक्षा प्राप्त करा देना।

जोतिराव का मानना था कि मेहनतकश जनता का अधिकांश धन दान-पुण्य में चला जाता है। यदि इस धन को वह अपना जीवन स्तर सुधारने पर लगाता तो वह अच्छा जीवन जी सकता है। इस धन से अपने परिवार की बेहतरी के बहुत से काम कर सकता है। ब्राह्मण पुरोहित अनिष्ट का भय दर्शाकर आम लोगों का ठगा करते हैं। इस बात को समझाने के लिए उन्होंने तृतीय नाटक, ब्राह्मणों की चालाकी, किसान का कोड़ा तथा गुलामगिरी पुस्तक में विस्तार से लिखा।

शोषण से मुक्ति के लिए उन्होंने ब्राह्मणी कर्मकाण्डों का विकल्प तैयार किया, जिसमें न तो कर्मकाण्डों की प्रधानता थी और न ही दक्षिणा की आवश्यकता थी। जीवन के विभिन्न अवसरों पर पुरोहित की उपस्थिति पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए अपने समुदाय और भाईचारे को प्राथमिकता दी। महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरों-किसानों में सत्यशोधक समाज का गहरा प्रभाव पड़ा।

जोतिबा ने स्त्री और पुरुष के बीच मौजूद खाई को पाटने की कोशिश की तथा इसके कारणों को तलाश करते हुए पाया कि धर्म का आधार लेकर स्त्री और पुरुष में भेदभाव को वैधता दी गई है। धर्म-ग्रंथों का लेखन पुरुषों द्वारा किया गया है इसीलिए धर्मों में स्त्री को दोयम दर्जे पर रखा गया है। इस संबंध में उन्होंने लिखा कि-

“किसी नारी ने आज तक यदि किसी धर्म किताब की रचना की होती तो पुरुषों द्वारा सभी नारियों के अधिकारों के बारे में आपत्ति करके अपने पुरुष जाति के अधिकारों के बारे में वे बकवास न करते। क्योंकि नारियां यदि ग्रंथ लिखने योग्य होतीं तो पुरुषों ने इस तरह से उनका शोषण करके भेदभाव किया ही नहीं होता”।

इस संबंध में जोतिबा फुले ने सरकार से विधवाओं के मुंडन पर कानून बनाने की मांग करते हुए लिखा कि “मैं प्रस्ताव रखता हूं कि अभागी ब्राह्मण विधवाओं का मुंडन करने पर नाइयों पर प्रतिबंध लगाया जाए। जो पक्षपातपूर्ण आर्य व्यवस्था विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं देती, वह विधुरों पर वह नियम क्यों नहीं लागू करती? यह बात तो साफ है कि अगर विधुरों को यह अनुमति दी जाती है, तो गरीब विधवाओं को भी आवश्यकता पड़ने पर पुनर्विवाह की अनुमति मिलनी ही चाहिए। इसमें कोई आशंका नहीं है कि स्वार्थी तथा दुष्ट विधिवेत्ताओं ने औरत जाति के खिलाफ द्वेषभावना के कारण ही अपने शास्त्रों में ऐसे अन्यायपूर्ण तथा अटपटे प्रावधान किये हैं।”

जोतिबा स्त्री और पुरुष के समान अधिकारों के समर्थक थे। उन्होंने स्त्री और पुरुष में भेद करने की आलोचना की। उन्होंने कहा कि “नारी और पुरुष दोनों समान रूप से सभी मानवीय अधिकारों का उपभोग करने के लिए हकदार हैं फिर नारियों को एक अलग प्रकार का नियम और लोभी, अंहकारी पुरुषों के लिए दूसरे प्रकार का नियम व्यवहार में लाना पक्षपात के अलावा और कुछ नहीं है। ऐसे कुछ अंहकारी पुरुषों ने अपनी जाति के स्वार्थ के लिए नकली, स्वार्थ-प्रेरित धर्म किताबों में नारियों के बारे में इस तरह के स्वार्थी लेख लिखे हैं।”(जोतिबा फुले, रचनावली भाग-2, पृ.-111)

जोतिराव धार्मिक तौर पर खुले विचारों के व्यक्ति थे। विचार-स्वतन्त्रता के कितने हिमायती थे, इसका अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है। सन् 1875 में स्वामी दयानन्द सरस्वती पूना पहुंचे, उन्होंने वहां कई व्याख्यान दिए। आयोजकों ने 5 सितंबर 1975 को स्वामी दयानंद की शोभा-यात्रा निकालने की योजना बनाई, लेकिन पूना के कट्टरपंथी पुराणपंथियों ने दयानंद की शोभा-यात्रा न निकालने देने की धमकी दी। यद्यपि जोतिबा फुले स्वामी दयानन्द के विचारों से पूर्णत: सहमत नहीं थे, क्योंकि स्वामी दयानंद तो वेद समर्थक व प्रचारक थे, जबकि जोतिबा फुले की वेदों में आस्था व मान्यता नहीं थी। परंतु उनका मानना था कि सबको अपने विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता है इसलिए उन्होंने स्वामी दयानन्द की शोभायात्रा में मदद की।

विचारों की स्वतंत्रता व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के वे इस हद तक समर्थक थे कि वे एक ही परिवार में कई धर्मों के मानने वालों के साथ-साथ रहने को स्वीकार करते थे। इस संबंध में उनके विचार दिलचस्प हैं- 

गणपतराव: तो फिर सारी दुनिया के नारी-पुरुषों को किस धर्म को स्‍वीकार करना चाहिए, इसके बारे में आप निर्णय करेंगे, तो बहुत ही अच्‍छा होगा।

जोतीराव: अरे बाबा, इस धरती पर महा सत्‍पुरुषों ने जितनी धर्म किताबें लिखी हैं उन सभी में उस काल के अनुरूप उनकी समझ के अनुसार कुछ-न-कुछ सत्‍य है, इसलिए किसी परिवार की एक नारी बौद्ध धर्म की किताब पढ़कर अपनी इच्‍छानुसार यदि वह उस धर्म को स्‍वीकार करना चाहती है तो कर सकती है। इसी तरह उसी परिवार का उसका पति बाइबिल का नया या पुराना करार (New and old testament) पढ़कर अपनी इच्‍छा के अनुसार चाहे तो ईसाई धर्म को स्‍वीकार कर सकता है और उसी परिवार में उसकी लड़की कुरान पढ़कर अपनी मर्जी से इस्‍लाम धर्म की तरफ हो गई तो उसको इस्‍लाम धर्म को स्‍वीकार कर लेना चाहिए।

उसी परिवार के लड़के की सार्वजनिक सत्‍य धर्म किताब पढ़कर उसकी इच्‍छा यदि सार्वजनिक सत्‍यधर्म में हो गई तों उसको सार्वजनिक सत्‍यधर्मी होना चाहिए। और इन सभी माता-पिताओं तथा बाल-बच्चों को अपना पारिवारिक जीवन व्‍यतीत करते समय किसी को भी किसी के धर्म से नफरत या घृणा नहीं करनी चाहिए। वे सभी हम सभी के निर्माता द्वारा निर्मित संतान हैं और हम सभी उसी के परिवार के लोग हैं, ऐसा समझकर हम सभी को एक-दूसरे के साथ प्‍यार और मोहब्‍बत से एक-दूसरे के साथ व्‍यवहार करना चाहिए। मतलब, वे हम सभी के निर्माणकर्ता के राज में धन्‍य होंगे।

साहूकार और जमींदारों के शोषण से किसानों की हालत दयनीय हो गई थी। प्राकृतिक विपदाएं, अकाल आदि से किसानों का जीवन दूभर था। किसान इससे छुटकारा पाने के लिए आन्दोलन भी करते थे। जोतिबा कहते थे-‘जब तक हल चलाने वाले किसानों को खेतों का स्वामी नहीं बनाया जाता, तब तक भारत जैसे कृषि प्रधान देश की उन्नति नहीं होगी और न ही पैदावार बढ़ेगी।’ सरकार को एक ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास करना पड़ा। किसानों को शोषण से मुक्ति मिली।

क्रांतिकारी समाज का कार्य अत्यधिक कठिन होता है क्योंकि उसे एक तरफ तो अपने ही समाज व भाइयों से संघर्ष करना पड़ता है तो दूसरी तरफ शासन-सत्ताओं से। शासन सत्ताएं जनता को सुलाकर अपना शासन चलाती हैं। नशा उनके लिए सबसे आसान है, इसीलिए शोषक सत्ता हमेशा इसका सहारा लेती हैं। समाज सुधारकों को बार-बार इसका विरोध करना पड़ा है और नशे में डूबी जनता को उसकी दलदल से निकालने के प्रयास करने पड़े हैं।

जोतिबा फुले ने नशाखोरी के विरुद्ध मोर्चा खोला था। 1880 में जब सरकार ने शराबखानों में बढ़ोत्तरी की, तो पूना के लोगों में शराबखोरी की लत बढ़ने लगी। इससे बिगड़ रहे माहौल को महसूस करते हुए 18 जुलाई, 1880 को जोतीराव फुले ने पूना नगर पालिका के कार्यकारी मंडल के अध्यक्ष प्लंकेट साहब को शराबखानों की बढ़ोतरी के विरुद्ध पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने लिखा कि-

“बस्तियों में शराबखाने खुल गए हैं और लोगों के अधोपतन के बीज बोए जा रहे हैं। नगर पालिका का एक उद्देश्य शहर के स्वास्थ्य की रक्षा करना है। यह सब उसके विपरीत में हो रहा है। शराब का व्यसन नागरिकों के नैतिक आचरण में बाधक है। जब से शहर की बस्तियों में शराबखाने खुले हैं, तब से दारूबाजी इतनी अधिक बढ़ गई है कि उससे अनेक परिवारों का पूरी तरह नाश हो गया है। और यह दुर्गुण शहर में सरेआम हो गया है।”

भारत में शिक्षा-प्राप्ति हमेशा विशेष जातियों, वर्गों और वर्णों का विशेष अधिकार रहा है। जोतिबा फुले निम्र वर्ग की मुक्ति के लिए शिक्षा को अनिवार्य समझते थे। सन् 1882 में हंटर कमीशन के समक्ष बहुत से लोगों ने निवेदन प्रस्तुत किए थे, लेकिन जोतिबा का निवेदन इनमें सबसे अलग था। इनके निवेदन में पूरा ध्यान गरीब-वंचित वर्गों की शिक्षा पर था। उन्होंने कहा कि सरकार शिक्षा के लिए विशेष लगान एकत्रित करती है, लेकिन बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि वह इसके लिए खर्च नहीं हो रहा। इस प्रान्त के 90 प्रतिशत गांव और लगभग दस लाख बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है।

जोतिबा ने शिक्षा के ढांचे का वर्ग-विश्लेषण करते हुए लिखा कि सरकार कुछ मधुर सपने पाले हुए है कि उच्च वर्ग के लोग शिक्षा प्राप्त करके निम्र वर्ग के लोगों को शिक्षित करेंगे। इस सोच के साथ लगान के रूप में एकत्रित की गई गरीबों के गाढ़े पसीने की कमाई को उच्च वर्ग के लोगों पर खर्च करती है। उच्च वर्ग के बच्चे स्कूलों से शिक्षा पाकर अपनी व्यक्तिगत उन्नति करते हैं, लेकिन समाज की उन्नति में कोई भूमिका नहीं निभाते। शिक्षा और संस्कृति उच्च वर्ग से निम्र वर्ग में रिसती जाएगी, जोतिबा को यह बात स्वीकार नहीं थी।

शिक्षा में सामाजिक भेदभाव को उद्घाटित करते हुए उन्होंने कहा कि “अधिकांश शिक्षक ब्राह्मण जाति से हैं और शूद्र-अतिशूद्रों को शिक्षित करने में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। स्कूल अध्यापक बनना उनके लिए रोजगार का साधन मात्र है। उनके मन में निम्र वर्गों के प्रति स्थायी घृणा है। इसके रहते वे आम जनता को कभी शिक्षित नहीं करेंगे।”

11 मई 1888 को बंबई के मांडवी कोलीवाड़ा सभागृह में जोतिबा फुले का भव्य नागरिक अभिनंदन किया गया। इस अवसर पर जोतिबा ने विनम्रतापूर्वक कहा कि “मैंने ईश्वर की प्रेरणा से थोड़ा-सा कार्य किया है। मैं आज तक यही मानता रहा हूं कि मनुष्य की सेवा ही ईश्वर की सेवा है और मैं यह सेवा आगे भी करता रहूंगा। आप सभी लोग सत्यशोधक समाज के कार्य में सहायता देकर उसे बढ़ा रहे हैं, जिन्हें हजारों वर्षों से पददलित समझा गया है, उन्हें मनुष्यता के अधिकार दिलाने को ही मैं धर्म मानता हूं। यही हर एक का कर्तव्य है। मैंने केवल अपना कर्तव्य किया है। यह कोई विशेष कार्य नहीं है।”

जोतिबा ने साहित्य से ब्राह्मणों के सांस्कृतिक वर्चस्व को चुनौती दी। उन्होंने ब्राह्मणी संस्कृति के समानान्तर शूद्र संस्कृति का निर्माण किया। ब्राह्मणी देवी-देवताओं के विपरीत शूद्रों के स्थानीय देवी-देवताओं को स्थापित किया। खंडोबा और महिषासुर की जोतिबा ने कल्पना की। परशुराम, वामन के विपरीत बलि राजा को स्थापित किया। जोतिबा ने ब्राह्मणी ग्रंथों की सत्ता को चुनौती दी। दलित जनता में आत्मविश्वास पैदा करने के लिए अपने नायकों पर रचनाएं लिखीं। धर्म के नाम पर दान आदि के माध्यम से शोषण, शूद्रों व अतिशूद्रों की दशा, सामाजिक भेदभाव, ब्राह्मणों की धूर्तता और चालाकी को दर्शाया है।

जोतिबा की रचनाएं दलित साहित्य का आदि स्वर हैं। जिसमें भेदभाव, संघर्ष, चेतना, मेहनतकश की महत्ता का चित्रण है। इसमें कोई भक्ति नहीं है। दलित जनता में आत्मविश्वास पैदा करने के लिए अपने नायकों पर रचनाएं लिखीं।

मानव अधिकारों की अभिव्यक्ति उनके समस्त लेखन का केंद्रीय संदेश है। मानवी अधिकारों से इंकार करने वाले लेखकों से अपना व अपनी संस्था का कोई संबंध नहीं मानते थे। पूना में 1885 में लेखकों का सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में न्यायमूर्ति माधव गोविंद रानाडे भी थे। फुले को सम्मलेन में शामिल होने के लिए आंमत्रित किया। उसके उत्तर में फुले ने लिखा कि-

“आपके आंमत्रण के लिए मैं आपका आभारी हूं, लेकिन जो लेखक मानवी अधिकारों से इंकार करते हैं, उनकी संस्था से हमारी संस्था का संबंध कैसे स्थापित हो सकता है? उनके ग्रंथों और हमारे ग्रंथों में जमीन-आसमान का अंतर है। आज के लेखकों के पूर्वजों ने शूद्रों तथा अतिशूद्रों पर बड़ा अन्याय किया है, पर आज के लेखक उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। हमारी मुसीबतें और तकलीफें स्पष्ट दिखाई देने पर भी वे जान-बूझकर उन्हें अनदेखा कर रहे हैं। शूद्रों का शोषण करने वालों पर हमारा विश्वास नहीं है।”

महात्मा जोतिबा फुले के भाषण ऐतिहासिक दस्तावेज हैं, जिनमें स्पष्टतौर पर वैचारिक संघर्ष दिखाई देता है। उस समय शायद ही किसी भारतीय विद्वान, साहित्यकार या समाज सुधारक ने इतनी शोधों का हवाला देते हुए वैज्ञानिक दृष्टि से मानव विकास के बारे में लिखा हो। उनके भाषणों में भारतीय इतिहास लेखन की वर्गीय पक्षपाती दृष्टि और उसके मंतव्यों की बेबाकी से वर्णन है।

महात्मा जोतिबा फुले के चार भाषण हैं- अति प्राचीन काल, इतिहास, सभ्यता, गुलामगिरी। इन भाषणों में मानव जाति की उत्पत्ति, जंगली अवस्था से सभ्य-मानव तक मनुष्य के विकास की ओर संकेत करते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से इतिहास, धर्म व मानव जीवन के अनेक पक्षों पर विचार करते हैं। इसीलिए मानव की उत्पति और विकास के संबंध में विभिन्न धर्मों की मान्यताओं को चुनौती देते हैं। वैज्ञानिक शोधों का हवाला देकर ब्राह्मण पुरोहितों व अन्य धर्म पुस्तकों में सृष्टि की उत्पति के बारे में फैलाये भ्रमों को दूर करते हैं।

इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय पुराणों में व्यक्त की गई अवैज्ञानिक व अतार्किक धारणाओं व मतों की बखिया उधेड़ते हैं। इतिहास व पौराणिक कथाओं में अंतर करने की दृष्टि विकसित करते हैं। अपने को सर्वोच्च पद पर स्थापित करने के लिए ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा रचित पुराणों को खिचड़ी इतिहास की संज्ञा देते हुए इन्हें सत्य से कोसों दूर मनगढ़ंत मानते हैं।

यूनान की सभ्यता की रोमन द्वारा तबाही, भारत और अमेरिका की खोज, इंग्लैंड के सभ्य बनने और आर्यों के आक्रमण और शूद्रों-अतिशूद्रों के गुलाम बनाने पर रोशनी डालते हैं। वे इंडिया को बलिस्तान की संज्ञा देते हैं। गुलामगिरी के खात्मे और बलिस्तान यानी शूद्रों-अतिशूद्रों के लोकतांत्रिक शासन की पुनःस्थापना की आशा करते हैं।

इन भाषणों में वैज्ञानिक इतिहास लेखन की नींव डालते हैं। भेदभावमूलक, शोषणकारी अमानवीय प्रथाओं, धारणाओं, मान्यताओं की दैवीय व धार्मिक वैधता को ध्वस्त करते हैं। इसके बरक्स स्वतंत्रता, समता भाईचारे पर आधारित मानवीय समाज की रचना करने का संकल्प लेते हैं। भारतीय इतिहास की जाति-वर्ण के आधार पर गुलामी की उलझन भरी पहेली को सुलझाते हैं और बाहरी आक्रमणकारियों द्वारा इंडियन मूल के लोगों को किस तरह गुलाम बनाया इसकी स्पष्ट व्याख्या करते हैं।

महात्मा जोतिबा फुले ने जाति की उत्पत्ति व जातिगत उत्पीड़न को नस्ल-आधारित सिद्धान्त का प्रयोगकर ब्राह्मणों की व्याख्या द्रविड़ नस्ल पर कब्जा करने वाले आर्य आक्रान्ताओं के रूप में की। इन आक्रांताओं ने यहां के मूल-निवासियों में फूट डालकर तथा उन पर ताकत का प्रयोग करके अपना गुलाम बना लिया। उनके हंसते-खेलते बलिस्तान राज्य को उजाड़ दिया।

महात्मा जोतिबा फुले अपने भाषणों में बली के राज्य बलिस्तान का बार-बार जिक्र किया है। वे इंडिया को बलिस्तान कहते हैं। इंडियन मूल के लोगों यानी शूद्राति-शूद्रों से बली का संबंध स्थापित करते हैं। बलिस्तान पर गर्व करने और बलिस्तान की स्थापना करने पर भी जोर देते हैं। बलिस्तान की परिकल्पना और उसकी पुनः प्राप्ति का ख्याल कुछ लोगों को खाम-ख्याली लग सकती है लेकिन असल में यह निम्न वर्गों की शासन प्राप्त करने की आकांक्षा है जो निरंतर बलवती हो रही है।

वे शूद्रों-अतिशूद्रों को गुलामी की जंजीरों को तोड़ने का आह्वान करते हुए कहते हैं कि ”हमें अपनी गुलामगिरी को नष्ट करने के लिए एक होना पड़ेगा। भट्ट के देव, धर्म व पुराण हमारे दिमाग में अंधविश्वास पैदा करते हैं और गुलामगिरी को पक्का करते हैं। आर्यभट्ट विप्रों ने हमारे बारे में उलट लिखा है कि हम अपने कुकर्मों के कारण अस्पृश्य हैं, लेकिन पुराणों में जो लिखा है, वह सच नहीं है। असल में ईरानी आर्यद्विज ही कुकर्मी और अस्पृश्य हैं। इनकी गुलामगिरी से बचने के लिए एकजुट होकर कंधे से कंधा मिलाओ और अपने पुरखों की जय जयकार करो।”

(प्रोफेसर सुभाष सैनी, हिंदी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र)

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