हाल में मैंने फॉरवर्ड प्रेस, दिल्ली द्वारा प्रकशित जोतिराव फुले की पुस्तक ‘गुलामगिरी’ का हिंदी अनुवाद और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले पर केन्द्रित ‘सावित्रीनामा’ पढ़ा।
इन दोनों पुस्तकों के पढने के पहले तक मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता था कि हमारे देश की एक बड़ी आबादी को केवल इंसानी जीवन बिताने के अपने मूल अधिकार को हासिल करने के लिए न केवल विदेशी साम्राज्यवादियों का सहारा लेना पड़ा बल्कि उनकी शान में कसीदे भी पढ़ने पड़े-
‘‘कहे जोतिबा अंग्रेजी है मां के दूध समान
पीकर जिसे पाते कुलीनों के बच्चे अवसर और सम्मान
जोतिबा शूद्रों से करते शिक्षा का आह्वान
शिक्षा से मिलेगा सुख, शांति और समाज में मान
“आगे चलकर पेशवाओं का राज आया
उनके जुल्म उत्पीड़न से शूद्रातिशूद्रों में डर समाया
थूकने को लटकाना पड़ता था गले में मृदांड
पदचिन्ह मिटाने को चलना पड़ता था कमर में झाड़ू बांध”
और
‘‘इसके बाद इस देश में अंग्रेज बहादुर लोगों का राज आया। उनसे हमारे दुख देखे नहीं गए। इसलिए इन ब्रिटिश और कुछ अमरीकी लोगों ने हमारे उस कैदखाने में बराबर दखल देना शुरू किया और हमें अत्यंत ही मूल्यवान उपदेश दिया।” उन्होंने कहा-
‘‘अरे भाईयों, आप भी हमारे जैसे इंसान हैं; आपका और हमारा उत्पन्नकर्ता एवं पालनहार एक ही है; आपको भी हमारे जैसे सभी अधिकार मिलने चाहिए; फिर आप इन भटों के अन्यायपूर्ण वर्चस्व को क्यों मानते हैं?”
अंगरेज़ चले गए और अब हमारे देश पर हमारा शासन है।
पर क्या इससे शूद्रों की स्थिति में कोई अंतर आया है? शायद आज उनकी स्थिति अंग्रेजों के राज से भी बदतर है। आज भी यदि दलित दूल्हा अपनी बारात घोड़े पर बैठकर ले जाता है तो उसे टांग खींचकर न सिर्फ उतार दिया जाता है वरन् उसकी पिटाई भी की जाती है। यदि कोई दलित अपनी मां का अंतिम संस्कार गांव के श्मशान में करता है तो मृतिका की अधजली देह को चिता से उठाकर फ़ेंक दिया जाता है।
इस तरह के मेरे कई व्यक्तिगत अनुभव हैं। मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले का एक गांव है मारेगांव। इस गांव के दलितों ने निर्णय लिया कि वे गांव के मृत पशुओं के शवों को ठिकाने नहीं लगाएंगे। नतीजे में गांव के उच्च जाति के लोगों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया। बहिष्कार में उन्हें रोजगार न देना, दुकानों से सामान न देना, अपनी जमीन से उन्हें गुजरने न देना, उन्हें दूध न बेचना और उनके बच्चों का स्कूल में प्रवेश न देने जैसे अमानवीय निर्णय शामिल थे।
जब हम लोगों को यह पता लगा तो हमने जिले के एक भाजपा विधायक एवं जिले के ही एक कांग्रेस विधायक अर्थात दोनों मध्यप्रदेश की दोनों प्रमुख पार्टियों का सहयोग इस बहिष्कार का अंत करवाने के लिए मांगा। लेकिन हमें पूर्ण निराशा हाथ लगी। दोनों के हमारी मदद नहीं की और बहिष्कार जारी रहा।
ऐसी स्थिति अभी भी अनेक गांवों में है। उच्च जाति के अधिकांश लोग दलितों पर अत्यचार का विरोध करना तो दूर रहा, या तो उसका समर्थन करते हैं या उसके प्रति पूर्णतः उदासीन रहते हैं। उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं होती, उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
अमरीका में जब एक काले नागरिक पर जुल्म होता है तो वहां के गोरे हजारों-लाखों की संख्या में सड़क पर उतर जाते हैं। लेकिन हमारे देश में उच्च जाति के लोग दलितों पर हो रहे अत्याचारों के मूकदर्शक बने रहते हैं, बल्कि अत्याचारियों के समर्थन में खड़े दिखते हैं। जहां तक पुलिस और प्रशासन का सवाल है, उनका रवैया भी ढुलमुल रहता है। डॉ आम्बेडकर, जोतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के बाद इनकी रक्षा के लिए कोई आंदोलन या अभियान नहीं हुआ है।
भेदभाव और अत्याचारों की ये घटनाएं गांवों तक सीमित नहीं हैं। बल्कि महानगरों में स्थित अत्यंत प्रतिष्ठित उच्च शिक्षा संस्थानों में भी यही हो रहा है। इन संस्थाओं में भेदभाव इतना है कि अनेक मामलों में अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्र परेशान होकर आत्महत्या कर रहे हैं।
सन् 2021 के दिसंबर माह में केन्द्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने संसद में बताया कि पिछले सात वर्षों में 122 छात्रों ने देश के विभिन्न उच्च शिक्षण संस्थाओं में आत्महत्या की। इनमें दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुस्लिम छात्र शामिल थे। इनमें सबसे ज्यादा संख्या दलितों की थी। आत्महत्या करके अपने जीवन का अंत करने वाले छात्र आईआईटी, आईआईएम और मेडिकल कालेजों के थे। इन 122 छात्रों में से 3 आदिवासी, 24 दलित और 3 अल्पसंख्यक थे। आत्महत्या करने वाले 34 छात्र आईआईटी या आईआईएम में अध्ययनरत थे। तीस छात्र विभिन्न राष्ट्रीय तकनीकी संस्थाओं के थे।
सन् 2016 के जनवरी माह की 17 तारीख को हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के पीएचडी अध्येता रोहित वेम्युला ने आत्महत्या की थी। उन्होंने विश्वविद्यालय प्रशासन के विरूद्ध अनेक शिकायतें की थीं। वर्ष 2019 में टोपीवाला नेशनल मेडिकल कालेज, मुंबई की छात्रा पायल तडवी ने आत्महत्या कर ली। तडवी ने कालेज में उच्च जाति के छात्रों द्वारा सतत भेदभाव और सताए जाने की शिकायत की थी। वेम्युला और तडवी दोनों दलित थे।
दोनों की आत्महत्या के बाद उठे तूफान के मद्देनजर अपेक्षा थी कि उच्च शिक्षण संस्थाओं में दलित विद्यार्थियों के प्रति व्यवहार में कुछ अंतर आएगा। परंतु उसके बाद से लेकर आज तक जो आंकड़े सामने आए हैं उससे लगता है कि स्थिति जस की तस है बल्कि बदतर हो गई है। एक संसदीय समिति की हालिया रिपोर्ट के अनुसार एम्स दिल्ली में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्र लगातार परीक्षा में फेल हो रहे हैं। इसका कारण उनके साथ होने वाला भेदभाव है।
यह बात संसद संसद की एससी-एसटी कमेटी के अध्यक्ष और भाजपा सांसद प्रेम जी भाई सोलंकी ने भी स्वीकार की है। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा कि यहां तक कि विभिन्न पदों के लिए आवेदन करने में भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है।
लोकसभा में शिक्षा मंत्रालय ने बताया कि देश के 45 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में से सिर्फ एक में अनुसूचित जाति और एक में अनुसूचित जनजाति का कुलपति है। भेदभाव की यह स्थिति सिर्फ उच्च शिक्षण संस्थाओं तक सीमित नहीं है बल्कि लगभग सभी शिक्षण संस्थाओं में विद्यमान है।
वर्ष 1942 में कनाडा में भाषण देते हुए डॉ. बी. आर. आम्बेडकर ने भारत में दलितों की समस्या की चर्चा करते हुए दो मुख्य बातों का उल्लेख किया था। उन्होंने पहली बात यह कही थी कि जाति व्यवस्था, साम्राज्यवाद से ज्यादा खतरनाक है और भारत में जातिप्रथा समाप्त होने के बाद ही शांति और व्यवस्था कायम हो पाएगी। दूसरी बात उन्होंने यह कही थी कि भारत में यदि किसी वर्ग को स्वतंत्रता की असली दरकार है तो वे दलित हैं।
आज भी यही स्थिति है। दलितों की दुर्दशा एक बार फिर उस समय उजागर हुई जब गत 12 फरवरी को 18 वर्षीय दलित छात्र दर्शन सोलंकी ने आत्महत्या कर ली। वह आईआईटी बंबई का छात्र था। उसने छात्रावास की सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या की। इस घटना ने पूरे देश में दलितों की स्थिति के बारे में सवाल खड़े कर दिए हैं।
दर्शन आईआईटी बंबई में बीटेक प्रथम वर्ष (केमिकल इंजीनियरिंग) का छात्र था। उसने तीन माह पहले ही इस संस्था में प्रवेश लिया था। आत्महत्या करने के कुछ दिन पहले वह घर गया। आत्महत्या करने के एक माह पहले उसने अपने परिवार को बताया था कि उसे कालेज में प्रतिकूल वातावरण का सामना करना पड़ रहा है विशेषकर उसके सहपाठियों को यह पता लगने के बाद कि वह अनुसूचित जाति का है। उसे यह कहकर चिढ़ाया जाता था कि वह नि:शुल्क शिक्षा पा रहा है। उसकी मां ने बताया कि उसे अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था और उसे तरह-तरह से सताया जाता था।
(एलएस हरदेनिया पत्रकार, लेखक और एक्टिविस्ट हैं)