[मार्क्सवाद के अंदर बहुत से सिद्धांत हैं, लेकिन अंतिम रूप से उन सबको सिर्फ एक पंक्ति में समेटा जा सकता है- ‘विद्रोह न्यायसंगत है- माओ त्से तुंग]
एक अनुमान के अनुसार दुनिया में सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो दूसरे नंबर पर है। पहले नंबर पर बाइबिल है। लेकिन जहां तक पढ़े जाने की बात है तो कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पहले नंबर पर है। क्योकि बाइबिल को सब नहीं पढ़ते। महज धार्मिक कारणों से रख भर लेते हैं।
1989-90 में समाजवाद के ‘पतन’ के 42 साल बाद भी कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो और कार्ल मार्क्स की लोकप्रियता निरंतर अपने उरूज़ पर है।
आपको आश्चर्य जरूर होगा लेकिन यह सच है कि 1990 में ‘समाजवाद’ के ढहने और सोवियत रूस के बिखरने के साथ ही साम्राज्यवादी देशों का पूंजीवाद भी गहरे संकट में आ गया था। ‘समाजवाद’ के साथ ही पूंजीवादी देशों में ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ भी ढहने लगा था। श्रम और पूंजी का अन्तर्विरोध हल होने की बजाय पहले से कहीं अधिक तीखा हो गया था। कहने का अर्थ यह है कि समाजवाद के ‘पराजित’ होने के बाद भी मार्क्स की प्रासंगिकता पहले से कहीं अधिक बनी हुई है।
आज की विश्वव्यापी गहन मंदी को समझने के लिए न सिर्फ वामपंथी लोग मार्क्स की मदद ले रहे हैं, बल्कि पूंजीवादी लोग भी मंदी की गुत्थी समझने के लिए मार्क्स की शरण में जा रहे हैं। क्या मार्क्सवाद के अलावा कोई दर्शन है जो आज की विश्वव्यापी और भयानक मंदी की व्याख्या कर सके?
आज से 5 साल पहले जब कार्ल मार्क्स की 200वीं जयंती मनायी जा रही थी तो ‘बैंक ऑफ़ इंग्लैंड’ के तत्कालिन गवर्नर ‘मार्क कर्ने’ [Mark Carney] का मार्क्स पर दिया भाषण काफी चर्चित हुआ था। इसमे उन्होंने कहा था कि मार्क्सवाद एक बार फिर से मजबूत राजनीतिक ताकत बनने जा रहा है।
शायद यह इतिहास में पहली बार हुआ है कि किसी दार्शनिक के विचार उसकी मृत्यु के महज 34 सालों बाद ही भौतिक ताकत बन कर राज्य सत्ता पर कब्ज़ा कर लें। मैं यहां 1917 की सोवियत क्रांति की बात कर रहा हूं। और महज 67 सालों बाद दुनिया का एक तिहाई हिस्सा और करीब 40 प्रतिशत आबादी मार्क्स के विचारों से लाल हो चुकी थी।
लाखों सालों के आदिम साम्यवाद के बाद आज से करीब 4 हजार साल पहले जब क्रूर वर्गीय शोषण पर आधारित प्राचीन सभ्यताएं पनपने लगीं तो असंख्य कवियों, संतों, विद्रोहियों ने समता और बराबरी पर आधारित समाज का सपना देखना शुरू किया। लेकिन भीमकाय डग भरता इतिहास उनके इस खूबसूरत सपने को अपने पैरों तले कुचलते हुए तेज़ गति से आगे बढ़ता रहा।
इतिहास को अपनी गति पूरी करनी थी। और 1848 का वह समय आ ही गया। पहले कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन और उसके बाद पूरे यूरोप में ‘कांटीनेंटल रेवोलुशन’ [Continental Revolution] का सिंघनाद। मार्क्स और एंगेल्स ने अपनी रचनाओं में उस समतावादी सपने को यानी वर्गविहीन समाज के सपने को पूरा करने का विज्ञान खोज लिया था।
इसके साथ ही वह भौतिक ताकत भी इतिहास के मंच पर पूरे दमखम के साथ अवतरित हो चुकी थी, जिसे वर्गविहीन समाज के इस सपने को पूरा करना था। मार्क्स ने लिखा- ‘दर्शन [द्वंदात्मक-भौतिकवादी दर्शन] ने भौतिक हथियार के रूप में सर्वहारा को पा लिया और सर्वहारा ने आध्यात्मिक [spiritual] हथियार के रूप में दर्शन [द्वंदात्मक-भौतिकवादी दर्शन] को पा लिया।’
मार्क्स और एंगेल्स दोनों ने 1848 की क्रांति में सक्रिय हिस्सेदारी की। उसके बाद दुनिया वही न रही जो वह पहले थी। साम्यवाद का प्रेत पूरे यूरोप को सताने लगा। यूरोप के अखबार मार्क्स को ‘रेड टेरर डॉक्टर’ कहकर उनके ख़िलाफ़ जहर उगल रहे थे। यूरोप के लगभग सभी देशों की ख़ुफ़िया पुलिस मार्क्स के पीछे पड़ी थी। इतिहास करवट बदल रहा था।
एंगेल्स ने मार्क्स की मृत्यु पर बोलते हुए कहा कि जिस तरह डार्विन ने जैव विकास का नियम खोजा, ठीक उसी तरह मार्क्स ने मानव विकास का नियम खोज निकाला। एंगेल्स ने आगे लिखा कि पूरे जीवन में इतनी बड़ी एक ही खोज पर्याप्त है, लेकिन मार्क्स यहीं नहीं रुके और उन्होंने ‘अतिरिक्त मूल्य’ [surplus value] की खोज करके पूंजीवाद को पूरी तरह नंगा कर दिया।
मार्क्स ने बताया कि पूंजीपति कैसे मजदूरों के श्रम की चोरी करता है। पूंजीपति का मुनाफा (सटीक रूप में ‘अतिरिक्त मूल्य’) और कुछ नहीं बल्कि मजदूरों के श्रम की चोरी (unpaid labour) है। मार्क्स की इस खोज ने पूंजीपतियों और उनके बुद्धिजीवियों के बीच खलबली मचा दी।
लेकिन दूसरी तरफ मजदूरों को पहली बार अपनी वर्गीय ताकत का अहसास हुआ। उन्हें पता चला कि उन्हीं के दम पर यह दुनिया कायम है। ज्ञान-विज्ञान सहित दुनिया की समस्त संपदा उन्हीं के श्रम से है और वही इतिहास के रथ को आगे ले जा सकते हैं।
मार्क्स और एंगेल्स ने ‘पहले इंटरनेशनल’ के माध्यम से यूरोप के सर्वहारा को लगातार नेतृत्व दिया। मशहूर ‘पेरिस कम्यून’ [1871] इसी इंटरनेशनल की संतान था। पेरिस कम्यून एक तरह से आने वाले शानदार सोवियत क्रांति की पूर्वपीठिका थी। पेरिस कम्यून ने पहली बार मार्क्स के मशहूर सूत्र ‘सर्वहारा की तानाशाही’ को मूर्त रूप में जमीन पर उतारा और एक सर्वथा नए युग की शुरुआत की।
लेकिन इस एतिहासिक काम को अंजाम देने के लिए मार्क्स को बहुत क़ुरबानी देनी पड़ी। ‘पूंजी’ पर काम करते हुए आर्थिक अभावों से गुजरते हुए मार्क्स ने न सिर्फ अपनी कामरेड पत्नी जेनी को खोया बल्कि इस दौरान उनके 4 बच्चों ने आर्थिक अभावों के कारण दम तोड़ दिया।
आज हम एक भयानक दौर से गुजर रहे हैं। अभी एक इंटरव्यू में जब नोम चोम्स्की से यह पूछा गया कि मानव जाति के सामने सबसे बड़ा संकट क्या है? तो उन्होंने कहा कि आज मानव जाति के अस्तित्व के ऊपर ही खतरा मंडरा रहा है। परमाणु युद्ध की आशंका और पर्यावरण का गहराता संकट मानव जाति के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा रहा है।
यह देखकर आश्चर्य होता है कि मार्क्स इस खतरे से भी आज से 150 साल पहले वाकिफ थे। वे जानते थे कि पूंजीपति अपने मुनाफे की हवस में श्रम के साथ-साथ पर्यावरण को भी निचोड़ डालेगा। इसी कारण उन्होंने पूंजीवादी उत्पादन में प्रकृति के साथ एक ‘मेटाबोलिक रिफ्ट’ (Metabolic Rift) की बात की थी। इस पर जोर दिया था कि प्रकृति को बचाना है तो पूंजीवाद की कब्र खोदनी ही पड़ेगी।
आज भारत और दुनिया में जितने भी अंतरविरोध हैं वे तीखे हो रहे हैं। साम्राज्यवाद पूरी दुनिया में संकट से उबरने के लिए फासीवाद का सहारा ले रहा है। मजदूरों-किसानों-छात्रों पर हमला तेज़ हो रहा है। ऐसे में कौन सी विचारधारा है जो हमे इससे लड़ने का हौसला और विज्ञान दे सकती है। निश्चित रूप से यह मार्क्स के विचार यानी मार्क्सवाद ही है।
जैसा कि एंगेल्स ने कहा है, मार्क्स सबसे पहले एक क्रांतिकारी थे। उनका पूरा जीवन, संघर्ष और दर्शन समाज को बदलने का था। सच तो यह है कि अगर आप समाज परिवर्तन की लड़ाई में शामिल नहीं हैं तो मार्क्स के विचारों को आत्मसात कर पाना लगभग असंभव है। इसीलिए मार्क्स बिना किसी किन्तु-परन्तु के कहते हैं- ‘आलोचना का हथियार हथियारों द्वारा की गयी आलोचना का स्थान नहीं ले सकता। भौतिक ताकत को भौतिक ताकत के द्वारा ही उखाड़ फेका जा सकता है।’
मार्क्स ने कहा था कि जिस विचार का समय आ चुका है, उसे दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती।
अस्थाई झटके से उबरते हुए समाजवाद का समय एक बार फिर आ गया है। मार्क्स का विचार लेनिन और माओ के रूप में और समृद्ध हो चुका है। सर्वहारा तात्कालिक ठोकर लगने के बाद धूल झाड़कर फिर खड़ा हो रहा है। इतिहास एक बार फिर से करवट बदल रहा है। समता, मानवता और बराबरी के जो फूल खिलने वाले हैं वो अब खिल कर रहेंगे। साहिर लुधियानवी के शब्दों में कहें तो –
‘हज़ार बर्क़ गिरे, लाख आंधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं!’
(मनीष आजाद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
Marvellous analysis
Can left parties come back to form indian government within hindu extremists?
A very well written article! Full of facts and rational thoughts.