भीख मांगने के लिए मजबूर हैं मेहनतकश मजदूर

सुबह के छः बजे हैं। धुंध से 10 मीटर की दूरी भी अदृश्य है। टप-टप-टप कुहरा टपक रहा है। बर्फीली हवाओं में तमाम बदन कंपकंपा थरथरा रहे हैं। जबड़ों में दांत से दांत टकरा रहे हैं। और कटकटाहट की आवाज दूर तक सुनी जा सकती है। धर्मालु लोग गंगा नहाकर लौट रहे हैं। सत्तर साल के लालमन कंपन करते हाथों से थाली फैलाये हुये हैं। कोई एक रुपये का सिक्का, कोई चावल फेंकते हुए अपने टेंटों की ओर बढ़ा जा रहा है। यह दृश्य और अदृश्य वृतांत संगम नगरी के गंगा घाट का है। लालमन कोई पैदाइशी भिखारी नहीं हैं। वो यह काम अपने अंतर्मन के ख़िलाफ़ जाकर मज़बूरी वश कर रहे हैं। लालमन कृषि मज़दूर रहे हैं और जवानी के दिनों में अपने बल भर उन्होंने दूसरों के खेतों में पसीना बहाकर अपने परिवार का पेट पाला है। लालमन बताते हैं कि वो अब अपने दोनों पैरों से लाचार हैं, ठीक से खड़े नहीं हो पाते इसलिये कोई मेहनत का काम नहीं कर पाते। बता दूं कि लालमन मध्यप्रदेश के रींवा जिले के रहने वाले हैं। 

वहीं एक दूसरा दृश्य इलाहाबाद के ही एक गांव का है। जहां 60 साल का बैरियर पार कर चुके मेवालाल अपना  पीएफ निकलवाने के सिलसिले में ठेकेदार से मिलकर कहते हैं क्या कोई जुगाड़ करके फिर से काम पर नहीं रख सकते साहेब। ठेकेदार कहता है नहीं, कंपनी का नियम है 60 साल के ऊपर के लोग काम पर नहीं रखे जा सकते। कंपनी के पास तुम्हारा आधारकार्ड, हाईस्कूल का प्रमाणपत्र सब जमा है। पीएफ भी कटना जमा होना बंद हो जाता है 60 साल के बाद, बताओ कैसे करूं। ठेकेदार कहता है कि उसके हाथ में कुछ भी नहीं है। मेवालाल मायूस होकर वापस लौट जाते हैं। अगर मेवालाल भी कुछ साल बाद माघ मेले में भिखारियों की पंक्ति में बैठे मिलें तो अचरज़ न होगा। 

70 साल की रमौती (रमावती) भी कृषि मज़दूर रही हैं। लेकिन उनकी भी शरीर अब साथ छोड़ती जा रही है। उतना सामर्थ्य नहीं कि वो दूसरों के खेत में जाकर काम कर सकें। रमौती बताती हैं कि उनका घर मिर्जापुर जिले के भीषमपुर मड़िहान में है। क्या सरकारी वृद्धा पेंशन नहीं मिलता, पूछने पर रमौती बताती हैं कि छः महीने से बंद है, नहीं मिल रहा। फिर वो कहती हैं कि इस महंगाई में 500 रुपये में क्या मिलता है बेटा। आपके बेटे क्या करते हैं, क्या वो आपका पेट नहीं पाल सकते? पूछने पर रमौती का मन भर आता है। वो कहती हैं कि बेटा मज़दूरी करता है। उसे भी लगातार काम नहीं मिलता। तीन बच्चे हैं। किस-किसका पेट पालेगा वो। इसलिये रमौती ने अपनी जिम्मेदारी से उसे मुक्त कर दिया है। 

निःसंदेह मेहनतकशों के लिये यह संकट का समय है। उन्हें अपनी मेहनत के बदले कभी इतना पैसा नहीं मिलता कि वो अपने भविष्य के लिये कुछ बचाकर रख सकें। उम्र की मार कहिए या फिर शरीर का बल खत्म होने के बाद उनके पास जीने के लिये भीख मांगने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता। 

माघ मेला दरअसल एक दुनिया है जो उजड़ने के लिये बसती है। यहां तमाम शहरों और सूबों से लोग अलग अलग प्रयोजन लेकर आते हैं। पंडे और भिखारी दोनों धार्मिक व दयालु प्रवृत्ति के लोगों के आसरे यहां डेरा डाले हुये हैं। लेकिन घाट पर भिखारी की दुआओं और पंडे पुरोहित के आशीर्वाद के बीच कोई बराबरी नहीं है। एक ओर भिखारियों की भीड़ है जो घाट तक जाने वाले रास्ते के दोनों ओर कतार लगाकर बलुआर ज़मीन पर बैठे हुये हैं। वहीं घाट पर पंडे पुरोहितों की जमात है जो अपना अपना तख़्त सजाये सीधा (अनाज, दाल, नून, तेल खटाई अचार घी, सब्जी) से बोरियां और रुपये पैसे से अपना बटुआ भर रही है। पंडे-पुजारियों को लोग अपनी क्षमता के अनुसार 11, 21, 51, 101, 151, 201 और 501 रुपये तक की दक्षिणा देते हैं, पांव छूते हैं और खुशी खुशी अपने घर चल देते हैं। वहीं लालमन बताते हैं कि वे लोग एक दिन में बमुश्किल 100 रुपये कमा पाते हैं जबकि अनाज भी 10-15 किलो दिन भर में इकट्ठा हो पाता है।

लालमन कहते हैं कि भिखारियों की जमात में कोई आदमी कितनों के प्रति दया करुणा दिखाये। एक भिखारी को देगा, दूसरे को देगा, तीसरे तक आते आते उसकी करुणा और दयाभाव जवाब दे जाती है क्योंकि उसकी भी कमाई सीमित है। आज कल लोगों के पास छुट्टा पैसों की भी किल्लत रहती है। तो जितना जेब का सामर्थ्य होगा व्यक्ति उतना ही करुणा और दया दिखा सकता है भिखारियों की भीड़ में।

बनारस से संगमनगरी आई मुन्नी और भदोही के डबलू बनवासी समाज से आते हैं। डबलू की उम्र 20 – 22 साल होगी। डबलू से हम वही सवाल पूछते हैं जो गांव के बूढ़े बुजुर्ग जवान भिखारियों से कहते हैं – जवान आदमी होकर भीख मांगते हो। मेहनत करो खाओ। डबलू पलटकर कहता है काम दिलवा दो साहेब कसम खाते हैं कभी भीख नहीं मांगेंगे। हम कहां से काम दिलवा दें, भाई। हम सरकार थोड़े ही हैं। हां सरकार से याद आया मनरेगा में काम क्यों नहीं करते। तब से नंग धड़ंग बच्चे को दुलारती मुन्नी तपाक से जवाब देती हैं मनरेगा में भी काम किये हैं साहेब। वहां चार छह महीने में एक बार पंद्रह बीस दिन से ज़्यादा का काम नहीं मिलता। मनरेगा में ही लगातार काम मिले तो हम भीख क्यों मांगें काम करके ही न खायें। डबलू बताता है कि एक बार वो लोग दूसरे राज्य में गये थे ईंट भट्ठा पर काम करने। कई महीने काम करवाया गया उनसे बंधक बनाकर और फिर बिना मेहनताना दिये भगा दिया गया। यह कहकर कि भाग जा नहीं तो चोर बदमाश बताकर पुलिस को दे देंगे।

क्या भूखे नंगे बच्चे क्या दया व करुणा उपजाने में एक्स फैक्टर का काम करते हैं। कमोवेश हमारे समाज में भिखारियों को लेकर उनके विरुद्ध कई तरह की बातें होती आ रही हैं, जैसे कि वो बच्चों को चिकोटी काटकर रुलाती हैं, ताकि लोग रोते बच्चे के प्रति दयाभाव दिखाते हुये भीख दे दें। कइयों का मानना है कि ये लोग दूसरों के बच्चे चुराते हैं इसीलिये ये बच्चों के प्रति निर्मम होते हैं। उन्हें भूखा नंगा रखते हैं। सवाल यह है कि कोई भीख मांगने के लिये खुद को कुपोषित क्यों रखेंगा। खुद भूखा नंगा क्यों रहेगा? रिपोर्टिंग के दौरान यह भी पता करने की कोशिश की गई कि क्या ये लोग किसी गिरोह या संगठन के लिये तो भीख नहीं मांग रहे हैं जैसा कि तमाम रिपोर्टों और फिल्मों में दिखाया जाता है पर ऐसा कुछ ज़मीन पर नहीं मिला। 

बिहार भागलपुर के परदू और राजकुमारी अपने पूरे कुनबे के साथ संगम नगरी में घाट जाने वाले रास्ते पर डेरा डाले हुये हैं। परदू बताते हैं कि माघ मेला खत्म होने के बाद वो लोग हरिद्वार मेले में जायेंगे उसके बाद सावन में नीलकंठ ऋषिकेश में लगने वाले मेले में जायेंगे। परदू का परिवार पूरे साल ‘बेगिंग टूरिज्म’ करके गुज़ारा करता है। परदू बताते हैं कि साहेब बहुत मेहनत मज़दूरी करने की कोशिश की लेकिन काम लगातार नहीं मिलता है। हमने परदू से पूछा कि जब आप पूरे साल घूमते रहते हो तो आपके बच्चों का भविष्य क्या होगा। क्योंकि तब तो वो स्कूल जा नहीं पायेंगे। क्या आप चाहते हो कि आपके बच्चे भी यही करें। इस पर परदू कहते हैं कौन मां बाप चाहता है कि उसके बच्चे उसकी तरह भीख मांगकर गुज़ारा करें। कौन मां बाप चाहता है कि उसके बच्चे अभावों भूख, और बीमारी से मरें। हमें हमारे गांव में ही गुज़र बसर लायक काम मिल जाये तो हम परिवार लेकर दर-बदर, ठंडी, गर्मी, बारिश झेलते क्यों फिरें साहेब।

हमने यह भी जानने का प्रयास किया कि वो लोग मेला क्षेत्र में कहीं टेंट लगाकर क्यों नहीं रहते। उन लोगों ने बताया कि प्रशासन टेंट नहीं लगाने देता। मेला से दूर कहीं जाकर लगाने को कहता है। दिक्कत यह है कि ये लोग घाट पर जाते रास्तों पर बैठकर भीख मांगते हैं जहां से गंगा नहाकर लौटते लोग दान पुण्य करते हैं। और नहावन का कार्यक्रम सुबह पांच बजे से शुरु हो जाता है। दूर रहने पर इनके लिये नहावन के समय वापस रास्ते पर आकर बैठना मुनासिब नहीं होगा। तो रात कैसे गुज़ारते हो इतनी ओस पड़ती है। वे लोग बताते हैं कि एक बरसाती (तिरपाल) रखा है उसे ऊपर से ओढ़ लेते हैं और यहीं पड़े रहते हैं। 

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

सुशील मानव
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