एमपी में सत्ता के पाशे को है अभी आखिरी चाल का इंतजार

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ज्योतिरादित्य सिंधिया की दृष्टि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर है, अगर उन्हें यह नहीं दिया जाता तो वो मोदी कैबिनेट में टॉप पोर्टफोलियो में से एक चाहेंगे। दोनों ही स्थितियां कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी के लिए परेशानी खड़ी करने वाली हैं। मामला जितना आसान नजर आ रहा है उतना है नहीं!

राज्यसभा सीट के लिए या छोटे-मोटे राज्यमंत्री पद के लिए एक कांग्रेस का भविष्य कहे जाने वाला नेता बीजेपी की गोदी में जाकर बैठ जाएगा यह संभव नहीं लगता।

ज्योतिरादित्य ने जब दिल्ली में कुछ दिनों पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात की थी उसके बाद से ही कयास लगाए जा रहे थे कि ज्योतिरादित्य को मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री बनाने के लिए अमित शाह सहयोग कर सकते हैं।

जब 2018 में मध्यप्रदेश का चुनाव हुआ तो सिंधिया स्वयं को भावी मुख्यमंत्री मानकर ही चुनाव लड़ रहे थे। चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सबसे ज्यादा चुनावी सभाओं को संबोधित किया था। उन्होंने राज्य में करीब 110 चुनावी सभाओं को संबोधित किया, इसके अलावा 12 रोड शो भी किए। उनके मुक़ाबले में कमलनाथ ने राज्य में 68 चुनावी सभाओं को संबोधित किया था।

राजनीतिक हलकों में यह भी चर्चा रही है कि कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद के लिए इसलिए चुना गया क्योंकि सबसे तगड़ा इन्वेस्टमेंट उनका ही था। सिंधिया इस खेल में पीछे थे फिर भी अंदरखाने में ढाई-ढाई साल के फार्मूले पर सहमति थी लेकिन 2019 के चुनावों से सारा गणित बिखर कर रह गया।

राष्ट्रीय राजनीति में कोई नेता तभी जाता है जब उसकी पार्टी बेहद मजबूत हो या उसके खुद के समर्थक इतने सक्षम हो जाएं कि उसकी अनुपस्थिति सारे मामले आसानी से सेटल कर सके।

सिंधिया के साथ यह दोनों फैक्टर नहीं है। 15 साल बाद मध्य प्रदेश में बीजेपी की सत्ता से विदाई में ग्वालियर चंबल संभाग ने निर्णायक भूमिका अवश्य अदा की है लेकिन इसका पूरा श्रेय सिंधिया को नहीं है। कहा जाता है कि उन्होंने यहां से जिन लोगों के लिए पार्टी से टिकट मांगे थे उनमें से आधे से ज़्यादा उम्मीदवार अपना चुनाव हार गए। हालांकि ग्वालियर चंबल की 34 सीटों में कांग्रेस 26 सीटें जीतने में कामयाब रही लेकिन इसमें कई विधायक दिग्विजय गुट के हैं। इसके बावजूद इसके एमपी कैबिनेट में सिंधिया खेमे के कुल 7 में से चार मंत्री इसी इलाके के हैं।

सिंधिया 2019 की लोकसभा की लड़ाई गुना से हार चुके हैं। सैबोटाज इसका बड़ा कारण बताया जाता है लेकिन इसके बावजूद यह साफ दिख रहा है कि उनकी अपने क्षेत्र से पकड़ ढीली पड़ रही है। वह संगठन में अपनी पकड़ मजबूत बनाना चाहते थे

वर्तमान में मध्य प्रदेश में कांग्रेस के नए अध्यक्ष और निगम-मंडलों में नियुक्ति को लेकर जारी माथापच्ची चल रही है। सिंधिया समर्थक चाहते थे कि प्रदेश कांग्रेस की कमान ज्योतिरादित्य को सौंप दी जाए। जिससे वह अपने प्रभाव में और विस्तार कर सकें। इस कारण कांग्रेस की गुटीय राजनीति चरम पर थी। दबाव बढ़ता जा रहा था और राज्यसभा की सीट की लड़ाई ने आग में घी का काम किया।

सिंधिया कल बीजेपी में शामिल नहीं हुए, अब उनके आज बीजेपी में शामिल होने की बात कही जा रही है। साफ है कि बीजेपी द्वारा जो उन्हें दिया जा रहा है अभी उससे वह सहमत नहीं है। यानी जो नजर आ रहा है या जो दिखाया जा रहा है सिर्फ वही सच नहीं है।

पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त।

(गिरीश मालवीय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और आजकल इंदौर में रहते हैं।)

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