डिमोनेटाइजेशन की असफल नीति की तरह ही ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ डि-डेमोक्रेटाइजेशन का असफल प्रयास !

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पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में मोदी सरकार ने 2 सितंबर 2023 को ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की सम्भावना को तलाशने के लिए एक समिति का गठन किया था। इस समिति ने 14 मार्च 2024 को अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति मुर्मू को सौंपी थी। यह समिति 191 दिनों तक सभी राजनीतिक दलों से बातचीत करती रही। इसके साथ ही कई संस्थाओं और बहुत से हितधारकों से भी बात की। इसके बाद 18626 पन्नों की रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी गई थी। इस रिपोर्ट में कई बातें कही गई हैं। यहां तक तो सब कुछ ठीक चलता रहा लेकिन पिछले बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस रिपोर्ट को मंजूरी दे दी। जैसे ही इस रिपोर्ट की मंजूरी मिली देश का सियासी पारा चढ़ गया। बयानबाजी शुरू हो गई।

इस रिपोर्ट को कब से लागू किया जाएगा यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन जिस तरह की बातें की जा रही है और जिस तरह से विपक्षी नेता वन नेशन वन इलेक्शन के खिलाफ खड़े हो रहे हैं उससे साफ़ है कि आने वाले दिनों में सरकार और विपक्षी दलों में आरोप-प्रत्यारोप बढ़ सकता है। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन कह रहे हैं कि ”एक देश एक चुनाव का प्रस्ताव लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है। यह हमारे संघीय ढांचे को कमजोर करने और राज्यों की स्वायत्तता को ख़त्म करने का षड्यंत्र है। इस प्रस्ताव से लोगों की आवाज को दबाई जाएगी और उनके मतदान के अधिकार का अपमान होगा। डिमोनेटाइजेशन की जन-विरोधी एवं असफल नीति की तरह ही यह कदम डि-डेमोक्रेटाइजेशन की तरफ धकेलने का प्रयास है। हम इस अलोकतांत्रिक कदम का पुरजोर विरोध करते हैं।”

एक सभा को सम्बोधित करते हुए हेमंत सोरेन ने यह भी कहा कि बीजेपी चाहती है कि पूरे देश में एक ही दल का राज हो। चाहे देश हो या राज्य, सब जगह किसी भी दूसरी पार्टी की सरकार न बने। बीजेपी का असली मकसद यही है।

उधर उद्धव शिवसेना ने भी सरकार के इस खेल पर बड़ा हमला किया है। उद्धव शिवसेना के नेता संजय राउत ने कहा है कि यह संविधान के खिलाफ है और किसी तानाशाही से कम नहीं। संजय राउत आगे कहते हैं कि “भारत बहुभाषी राष्ट्र है। यहां विभिन्न समुदायों के लोग रहते हैं। ऐसे में एक साथ सभी चुनाव कराना जटिल व दूभर मार्ग हो सकता है।”

संजय राउत आगे कहते हैं कि बीजेपी आज से नहीं बल्कि शुरू से ही संविधान के खिलाफ काम करती है। और बीजेपी यह सब अप्रत्यक्ष रूप से करती रही है। अब वन नेशन वन इलेक्शन के तहत संविधान की मूल संरचना से छेड़छाड़ की कोशिश की जा रही है। राउत कहते हैं कि ”वन नेशन, वन इलेक्शन’ कुछ नहीं, एक प्रकार की तानाशाही है। अगर इस तरह से चुनाव हुए, तो ‘नो नेशन’ जैसी स्थिति भी पैदा हो सकती है। अगर इस कदम को जमीन पर उतारा गया, तो यह देश के संविधान, लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा साबित होगा।”

कांग्रेस की तरफ से कमलनाथ ने कहा है कि ”पीएम मोदी के पास कुछ बचा नहीं है। इसलिए वो इस तरह के कदम उठा रहे हैं। वो केवल और केवल राहुल गांधी की झूठी आलोचना कर रहे है। मैं नहीं मानता कि वन नेशन, वन इलेक्शन प्रैक्टिकल तरीके से लागू हो पाएगा। मान लीजिए इस सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आ जाए और लोकसभा को भंग करनी पड़े तो वो क्या करेंगे। ये सबको उलझाने के लिए पीएम मोदी का एक खिलौना है।”

वन नेशन वन इलेक्शन के खिलाफ इंडिया गठबंधन के कुछ दलों ने अपनी मंशा प्रकट कर दी है और साफ़ साफ़ बता दिया है कि वे इस खेल के खिलाफ हैं। यह बात और है कि इंडिया गठबंधन के कुछ और दलों की इस पर क्या राय है यह कोई नहीं जानता। बता दें कि शरद पवार काफी पहले इस नीति के समर्थन में बोल गए थे। वैसे एनडीए के भीतर इस पर क्या राय है इसकी भनक अभी तक नहीं मिल रही है लेकिन एक समय में नीतीश कुमार इस नीति के खिलाफ रहे हैं और चंद्रबाबू नायडू भी इसके खिलाफ ही बोलते रहे हैं। अब इन दोनों नेताओं के क्या स्टैंड है यह तो वही जाने।

लेकिन अब बड़ा सवाल तो यह है कि अभी जब दो राज्यों में चुनाव हो रहे हैं और बाकी के दो राज्यों में अगले महीने चुनाव की शुरुआत होने वाली है, ऐसे में वन नेशन वन इलेक्शन की कहानी कैसे आ गई? जानकार तो अब यह कहने लगे हैं कि चूंकि हरियाणा और जम्मू कश्मीर में बीजेपी की हालत पतली है और आगामी दो राज्यों महाराष्ट्र और झारखंड में भी बीजेपी विपक्षी एकता के सामने अपने को कमजोर पा रही है इसलिए वन नेशन वन इलेक्शन का नारा दिया गया है।

और सबसे बड़ी बात तो यह है कि बीजेपी को लग रहा है कि जो लोग अभी तक बीजेपी के समर्थन में वोट दाल रहे थे उनके मन में यह विश्वास डाला जाय कि आने वाले समय में देश में बीजेपी का ही राज होगा इसलिए घबराने की जरुरत नहीं है।

अब सबसे बड़ी बात तो यह है कि बीजेपी कहती है कि एक देश एक चुनाव के तहत देश के धन की बर्बादी कम होगी। एक समय ही जब सारे चुनाव हो जायेंगे तब पांच साल में एक बार ही पैसे खर्च होंगे और सरकारी काम काज में भी कोई रुकावट नहीं आएगी। सुनने में यह बात सबको जंच जाती है और बेहतर भी लगता है। लेकिन क्या सरकार के लोग यह बता पाएंगे कि अब जब वोटिंग मशीन के जरिये मतदान होते हैं तब क्या देश के धन में कोई कमी आयी है?

सच तो यही है कि हर चुनाव में खर्चे बढ़ते ही जाते हैं और लगता है कि मशीन आने के बाद भी देश के धन की बर्बादी ही हो रही है। जिस तरह से चुनाव में कालाधन का प्रयोग होता है, जिस तरह से सांसदों और विधायकों के चुनाव में कालेधन का प्रदर्शन होता है उससे साफ़ है कि सत्ता पाने के लिए राजनीतिक दल कोई भी कुकर्म करने को तैयार हैं। फिर इसकी क्या गारंटी है कि वन नेशन वन इलेक्शन की कहानी देश के चुनाव में पैसे की बर्बादी पर अंकुश लगा सकती है?

जब देश में नोटबंदी की गई थी तो प्रधानमंत्री मोदी ने यही तो कहा था कि नोटबंदी से कालेधन का खात्मा हो जाएगा। मुद्रा स्फीति कम हो जाएगी। हमारी इकोनॉमी तेजी से आगे बढ़ेगी। लेकिन क्या हुआ? मोदी सरकार ने आज तक देश को यह नहीं बता पाई कि नोटबंदी के परिणाम क्या हुए ?

एक हजार के नोट को बंद करके दो हजार के नोट चलाये गए लेकिन उसके परिणाम क्या हुए यह भी किसी को पता नहीं। फिर दो हजार के नोट भी बंद कर दिए गए। आखिर क्यों? सरकार ने आज तक इस पर कोई तर्क नहीं रखा। बड़ी बात तो यह है कि नोटबंदी के तहत जहां बड़े लोगों के कालेधन को सफ़ेद किया गया और फिर नोटबंदी के बाद जितने कालेधन सामने आये, नकली नोट के चलन बढ़े, आजाद भारत में ऐसा कभी नहीं देखा गया था। लेकिन अब उस नोटबंदी पर चर्चा कहां होती है?

चुनावी बांड का अवतरण भी तो कुछ कालेधन को रोकने के लिए ही किया गया था। कहा गया था कि चुनावी चंदे की कहानी पारदर्शी हो जायेगी। इस खेल के जरिये अकूत धन उगाहे गए। बीजेपी मालामाल होती रही। देश के जितने भी बेईमान कम्पनियां थी सब ने बीजेपी को जी भरकर चढ़ावा चढ़ाया, दान दिया, उगाही के शिकार हुए। लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि क्या चुनावी चंदे की कहानी पारदर्शी हुई ?

मोदी सरकार ने चुनावी बांड की शुरुआत की थी और बीजेपी ने ही सबसे ज्यादा चुनावी बांड का लाभ भी उठाया। क्या वन नेशन वन इलेक्शन के जरिये ऐसा ही तो कुछ करने का प्यासा नहीं है? भला मानिये उस सुप्रीम कोर्ट का जिसने समय पर चुनावी बांड का संज्ञान लिया और उसे गैर संवैधानिक बताते हुए उसे बंद कर दिया।

कल्पना कीजिये जब देश का शीर्ष अदालत ही सरकार की किसी नीति को असंवैधानिक बता दे तो क्या सरकार के इरादे असंवैधानिक नहीं हो जाते हैं? लेकिन क्या पीएम मोदी ने अदालत की टिप्पणी के बाद अपनी कोई बात रखी? कायदे से तो उन्हें अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था क्योंकि चुनावी बांड उनकी का प्लान था और उस प्लान को सबसे बड़े घोटाले के रूप में चिन्हित किया गया था। लेकिन यह सब नहीं हो सका।

ऐसे बहुत से उदहारण सामने लाये जा सकते हैं। लेकिन उसका कोई मतलब नहीं। अब बड़ा सवाल तो यह है कि अगर इस देश में एक देश एक चुनाव को स्वीकार भी कर लिया जाए तो फिर एक देश एक धर्म की कहानी को आगे बढ़ाने में क्या दिक्कत हो सकती है। अगर संविधान में केंद्र और राज्यों के चुनाव की अलग-अलग व्यवस्था की गई है तो सभी धर्मों को एक साथ रहने की बात भी उसी संविधान में की गई है।

जिसे सेक्युलर समाज के नाम से जाना जाता है। ऐसे में अगर एक देश एक चुनाव की मंजूरी होती है तो कल एक देश एक धर्म की कहानी आगे नहीं बढ़ेगी इसकी क्या गारंटी है? फिर एक देश एक भाषा की कहानी भी आगे बढ़ सकती है। फिर एक देश एक पार्टी की भी मांग की जा सकती है। जो सबसे बड़ी पार्टी होगी उसकी सत्ता हर जगह होने की बात कही जा सकती है।

फिर एक देश एक नेता, एक देश एक बोलचाल, एक देश एक पहनावा, एक देश एक खान- पान, एक देश एक भगवान, एक देश वेतन, एक देश एक जाति की भी बात उठेगी। और इसे कौन चुनौती दे सकता है? जाहिर है वन नेशन वन इलेक्शन के नाम पर जो राजनीति अभी बीजेपी और उसके नेता करते दिख रहे हैं उसमे कोई बड़ा देश हित नहीं छुपा है। जब यही मोदी सरकार लैटरल इंट्री के जरिये अपने लोगों को अधिकारी बनाने का खेल कर चुके हैं तब एक देश एक चुनाव के जरिये बीजेपी की मंशा क्या है इसे कौन जानता है ?

(अखिलेश अखिल स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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