बेशर्मी और निर्लज्जता की हदें पार करते महामहिम!

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संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने भी अब शर्म और हया के सारे पर्दों को उतार कर फेंक दिया है। ताजा मामला महाराष्ट्र के गवर्नर की कुर्सी पर बैठे भगत सिंह कोश्यारी का है। वह एक सीधा-सीधा संवैधानिक पद है। और सीधे संविधान के प्रति उसकी जवाबदेही है। उसे बैठाया ही इसीलिए जाता है कि सूबे में प्रशासन और व्यवस्था के संचालन में किसी भी तरह की संविधान की अनदेखी हो तो वह सीधे केंद्र सरकार और देश की सभी संस्थाओं के संवैधानिक मुखिया के तौर पर बैठे राष्ट्रपति को रिपोर्ट करे। इसीलिए उसे माननीय लेकर महामहिम तक क्या-क्या सम्मानित नाम और दर्जा हासिल है। 

वह सूबे का पहला नागरिक इसीलिए होता है क्योंकि गणतंत्र के एक नागरिक के तौर पर संविधान की रक्षा में वह सबसे आगे खड़ा होता है। लेकिन यहां तो बाड़ ही खेत को चर रहा है। ऐसे में उस संविधान का क्या होगा जिसकी रक्षा की जिम्मेदारी इन महामहिम के कंधों पर है। उन्होंने सूबे के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को एक पत्र लिखा है। जिसमें उन्होंने मंदिरों को अभी तक नहीं खोले जाने पर सवाल उठाया है। इस प्रक्रिया में उन्होंने पत्र में कुछ ऐसी आपत्तिजनक बातें कह दी हैं जो इस तरह के किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए शोभा नहीं देती हैं। और ऐसा कुछ कहने और लिखने से पहले उसे 100 नहीं 1000 बार सोचना चाहिए। 

पत्र में उन्होंने सेकुलरिज्म का मजाक उड़ाने के अंदाज में ठाकरे से पूछा है कि क्या आप अब सेकुलर हो गए हैं? और उसी के साथ यह भी जोड़ दिया है कि आप तो हिंदुत्व के बड़े चैंपियन बनते थे और भगवान राम के भक्त थे तथा शपथ लेने के बाद सबसे पहले आपने अयोध्या की यात्रा कर भगवान राम का दर्शन किया था। और इसके साथ ही उसमें कहा गया है कि अगर बार और रेस्टोरेंट खोले जा सकते हैं तो देवी-देवताओं को क्यों ताले में बंद रखा जाना चाहिए? दिलचस्प बात यह है कि इसमें केवल हिंदुओं के मंदिर और उनके देवताओं का जिक्र है। कहीं भी न तो मस्जिद की बात की गयी है और न ही किसी गिरिजाघर की। इसमें उनसे जुड़े मुस्लिम और ईसाई समुदाय का भी जिक्र नहीं है।

बहरहाल इस पत्र पर उद्धव ठाकरे ने कड़ी आपत्ति दर्ज की है। जवाबी पत्र में उन्होंने उसको छुपाया भी नहीं है। उन्होंने कहा है कि उन्हें अपनी साख के लिए किसी गवर्नर के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है। इसके साथ ही उन्होंने उल्टे मुंबई को पाक अधिकृत कश्मीर का दर्जा देने वालों का स्वागत करने और उनसे मिलने के लिए उनकी आलोचना भी कर डाली। उन्होंने सवालिया अंदाज में पूछा है कि आपका कहने का मतलब मंदिर को खोलने का अर्थ है हिंदुत्व और नहीं खोलने का मतलब है सेकुलरिज्म? और इससे आगे बढ़ते हुए उन्होंने कहा कि आपको नहीं भूलना चाहिए कि सेकुलरिज्म संविधान का अभिन्न हिस्सा है जिसकी शपथ लेकर आप इस संवैधानिक पद पर बैठे हैं। और इसके साथ ही उन्होंने कहा कि लोगों की भावनाओं का ख्याल रखते समय हमें उनके जीवन की रक्षा को प्राथमिकता में रखना होगा। और उसी उद्देश्य से लॉक डाउन को एकाएक नहीं खोला जा रहा है।

एनसीपी मुखिया शरद पवार ने भी इस पर आपत्ति जताई है उन्होंने पीएम मोदी को पत्र लिख कर इस पर कड़ा एतराज जाहिर किया है। उन्होंने कहा है कि वह स्वतंत्र विचार रखने के गवर्नर के अधिकार की कद्र करते हैं। लेकिन उन्होंने जिस तरह से पत्र को सार्वजनिक किया है और उसमें उन्होंने जो भाषा लिखी है वह किसी भी तरह से उस पद पर बैठे शख्स के लिए उचित नहीं है। उन्होंने कहा कि संविधान की प्रस्तावना में सेकुलरिज्म शब्द है जो सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार की बात करता है। दुर्भाग्य से गवर्नर का लिखा गया पत्र ऐसा है जैसे वह किसी सीएम को नहीं बल्कि राजनीतिक पार्टी के मुखिया को लिखा गया हो।

दरअसल ठाकरे और पवार जिस संविधान और उसमें लिखे गए सेकुलरिज्म की बात कर रहे हैं उससे संघ प्रशिक्षित इस जमात का कुछ लेना-देना ही नहीं है। वह इसके ध्वंस पर ही अपनी हिंदू राष्ट्र की इमारत खड़ी करना चाहती है। लिहाजा उसे अपमानित करने और नीचा दिखाने का वह कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देती। इनके लिए संविधान समेत मौजूदा दौर की सारी संस्थाएं वहीं तक उपयोगी हैं जहां तक वे उनके एजेंडे को आगे बढ़ाने में सहयोग करती हैं। अब अगर कहीं भी वह रास्ते का कांटा बन रही हैं तो उन्हें बेहद निर्लज्जता से हटा दिया जा रहा है या फिर उनकी अनदेखी कर दी जा रही है। हाल में संसद से किसान विधेयक को पारित कराने के लिए जो रास्ता अपनाया गया था वह इसकी सबसे बड़ी और ताजी मिसाल है। 

यह ताकतें जानती हैं कि संविधान और संसद को बुल्डोज करके ही उनके हिंदुत्व का कारवां आगे बढ़ेगा इसलिए उसे नीचा दिखाने का कोई भी मौका नहीं छोड़तीं। पूरे देश को अध्यादेशों के सहारे चलाया जा रहा है। और बीच-बीच में उन पर किसान बिलों की तरह मुहर लगवा ली जा रही है। इसके पहले यूपी के  मुख्यमंत्री पद पर कल्याण सिंह नाम का एक स्वयंसेवक बैठा था जिसने नेशनल इंटीग्रेशन कौंसिल के सामने शपथ ली थी कि वे अयोध्या में बाबरी मस्जिद को महफूज रखने की अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाएंगे। लेकिन जब वह यह शपथ ले रहे थे उस समय भी जान रहे थे कि वह झूठ बोल रहे हैं और उसका कत्तई पालन करने नहीं जा रहे हैं। और फिर सत्ता में उनकी मौजूदगी में ही बाबरी मस्जिद ध्वस्त हुई। जिसके लिए बाद में उन्हें सुप्रीम कोर्ट से एक दिन की जेल की सजा भी मिली थी।

दरअसल संघी जमात को नागरिकों की मौजूदा जिंदगी और उनके भौतिक सुख-सुविधाओं से कम जीवन के बाद के उनके पराभौतिक और इहलौकिक जीवन से ज्यादा मतलब है। और इस कड़ी में भगवान, मंदिर और उससे जुड़ी तमाम चीजें संविधान, संसद और संस्थाओं के मुकाबले प्राथमिकता हासिल कर लेती हैं। जो इंसान को अपनी मौजूदा जिंदगी की जगह मृत्यु के बाद की स्थितियों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करती हैं। लिहाजा वर्तमान जीवन और उससे जुड़े भौतिक जगत को सुंदर बनाना और उसके लिए काम करने की जगह मंदिर-पूजा-पाठ और अगले जन्म की बेहतरी पर फोकस कर देना उसकी नियति बन जाती है।

लिहाजा मानव जीवन उसके लिए एक लंबी यात्रा का महज एक पड़ाव भर है जिसे उसे किसी भी तरीके से गुजार देने के लिए प्रेरित किया जाता है। और इसमें एक बात और जोड़कर शासक वर्ग इसे अपने पक्ष में कर लेता है। वह यह कि मौजूदा विपन्नता और तमाम कमियों के लिए उसका पिछले जन्म का कर्म और खुद उसका अपना भाग्य जिम्मेदार है। लिहाजा उसमें किसी संविधान, संसद, संस्था और उनकी नीतियों से उसका कोई वास्ता ही नहीं रह जाता है। और फिर इसी का लाभ सत्ता में बैठी पूंजीवादी और वर्चस्वशाली ताकतें उठाती हैं। 

और उनका शोषण भी आसान हो जाता है। क्योंकि जनता की न तो चेतना बढ़ने दी जाएगी और न ही उसको अपने अधिकारों का ज्ञान होगा। और इसको सुनिश्चित करने के लिए पूंजीपतियों ने सत्ता में कोश्यारी और मोदी जैसों को बैठा दिया है। अनायास मोदी अपनी किताब में नहीं लिखते हैं कि मैला ढोते हुए सफाई कर्मियों को आध्यात्मिक सुख का एहसास होता है। लिहाजा यहां मंदिर का खुलना उनकी राजनीति के विस्तार की पहली शर्त और जरूरत दोनों है। और उसके बंद होने का मतलब उनकी सांसों का उखड़ना है।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।) 

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