महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव तय करेगा देश का राजनीतिक भविष्य

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लोकसभा चुनावों में खंडित जनादेश के बाद भले ही मुख्य विपक्षी पार्टी, कांग्रेस का बल्लियों उछलता आत्मविश्वास हरियाणा चुनाव परिणाम के बाद पूरी तरह से धराशायी दिख रहा है, लेकिन भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी इस जीत के बावजूद कहीं से आश्वस्त नजर नहीं आता।

राजनीति की चौसर पर यह बिसात ही असल में महराष्ट्र के लिए बिछाई गई थी, जिसके तहत हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव पहले किये गये।

अब जबकि महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनावों के तारीखों की घोषणा कर दी गई है, तो आइये उस महत्वपूर्ण राज्य की चुनावी बिसात पर तमाम राजनीतिक दलों की स्थिति और आम मतदाताओं के मूड का एक जायजा लेते हैं।

अगर यह कहा जाये कि देश में महाराष्ट्र ही वह एकमात्र राज्य है, जहां पर सभी राजनीतिक दल पिछले 2 वर्षों से विधानसभा चुनाव का बेसब्री से इंतजार और तैयारियों में लगे थे, तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।

288 विधानसभा सीटों पर एक साथ 20 नवंबर 2024 को मतदान संपन्न होगा और 23 नवंबर को झारखंड के साथ चुनाव परिणाम जारी हो जायेंगे।

महाराष्ट्र के मामले में खास ध्यान देने की बात यह है कि चुनाव परिणाम आने के 3 दिनों के भीतर ही महाराष्ट्र में सरकार का गठन हो जाना चाहिए, क्योंकि संवैधानिक व्यवस्था के तहत मौजूदा राज्य सरकार का कार्यकाल 26 नवंबर को खत्म हो रहा है।

कुछ लोगों का कयास है कि यह बीजेपी का एक और मास्टरस्ट्रोक दांव है, जिसमें यदि इंडिया गठबंधन पूर्ण बहुमत अथवा मुख्यमंत्री पद के लिए आपस में सहमति बना पाने में विफल रहती है तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाकर, बाद में अपने मनमाफिक सरकार बनाना बेहद आसान हो सकता है।

बहरहाल, जम्मू-कश्मीर और हरियाणा चुनावों में 1-1 स्कोर से अति उत्साहित संघ-भाजपा अपने कार्यकर्ताओं और बड़े हद तक आम भारतीय को भी पालतू मीडिया के बल पर यह भरोसा दिलाने में कामयाब दिख रही है कि यदि वह हरियाणा जैसे किसान, जवान और महिला पहलवान आंदोलन के बावजूद कांग्रेस को चारों खाने चित्त करने में कामयाब रही, तो महराष्ट्र का किला भी फतह किया जा सकता है।

आरएसएस और मोदी समर्थकों को पीएम मोदी की देश की जनता की नब्ज और लोकप्रियता के साथ-साथ गृह मंत्री अमित शाह के सबसे महान रणनीतिज्ञ होने पर शक नहीं करना चाहिए।

लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र की तुलना असल में कहीं से भी जायज नहीं है। दोनों राज्यों की तासीर और ट्रैक रिकॉर्ड अलग-अलग हैं। कांग्रेस के अपने दम पर चुनाव लड़ने, उसमें भी सिर्फ भूपिंदर सिंह हुड्डा और दूसरी तरफ भाजपा की रणनीति और लो प्रोफाइल जाट बनाम शेष बिरादरी को पूरी तरह से नजरअंदाज करने का ही फल है कि अपने मतों में 11% से भी अधिक उछाल के बावजूद कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी।

महाराष्ट्र का चुनाव इसके बिल्कुल उलट है। यहां पर इंडिया गठबंधन के भीतर उससे भी पहले का गठबंधन, महा विकास अघाड़ी अस्तित्व में है। इस राज्य में किसी एक घटक दल या नेता के बल पर अघाड़ी चुनाव नहीं लड़ रही है, इसलिए हुड्डा कुनबे वाला कोई संकट नहीं है।

ऊपर से शरद पवार जैसा राजनीतिज्ञ है, जिसकी उम्र अब खुद को राजनीतिक रूप से सिरे चढ़ाने के बजाय अपने नाम और अपनी विरासत को चमकदार बनाने पर केंद्रित है।

महाविकास अघाड़ी के भीतर शरद पवार वो कड़ी हैं, जो खुद पीछे रहकर गठबंधन को आगे बढ़ाने और महायुती को कमजोर करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं, ऐसा कई सूत्र बता रहे हैं।

आम आदमी पार्टी (आप) ने भी ऐलान कर दिया है कि वह महाराष्ट्र और झारखंड में चुनाव नहीं लड़ने जा रही है, बल्कि सारा फोकस फरवरी 2025 में दिल्ली राज्य विधानसभा चुनाव पर लगाने जा रही है। हरियाणा में करीब 1.75% पाकर भी पार्टी का स्कोर शून्य रहा, जबकि कांग्रेस 0.8% वोट कम पाकर भाजपा को तीसरी बार हरियाणा की चाभी सौंप बैठी।

कांग्रेस-आप के बीच सीट समझौता न हो पाने की सबसे बड़ी वजह दोनों दलों के क्षत्रपों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा रही, जिसे संभवतः अब दोनों दलों के राष्ट्रीय नेतृत्व ने बखूबी पहचान लिया होगा।

वर्ना, आज हरियाणा में हालात अलग होते और कांग्रेस सरकार के साथ आप को भी 2-3 सीटों के साथ प्रवेश मिल चुका होता।

इसी प्रकार, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, अखिलेश यादव ने भी कल ऐलान किया कि वे आज महाराष्ट्र के दौरे पर होंगे। महाराष्ट्र में सपा के दो विधायक जीते थे, और उसे उम्मीद है कि महा विकास अघाड़ी के साथ गठबंधन में उसे दो से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने का मौका मिलेगा।

26 नवंबर 2019 को बने इस गठबंधन में अन्य दल पीजेन्ट्स एंड वर्कर्स पार्टी, सीपीआई, सीपीआई(एम) और स्वाभिमानी शेतकारी संगठन जैसे अन्य दल जमीनी स्तर पर मजबूती प्रदान करते हैं।

महा विकास अघाड़ी गठबंधन की ताकत क्या है, इसका पहला परीक्षण 2024 आम चुनावों में देखने को मिला, जब महाराष्ट्र की 48 लोकसभा सीटों में यह गठबंधन 31 सीटें जीतने में कामयाब रहा। संख्या के लिहाज से भले उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन को बड़ी जीत हासिल हुई, लेकिन दो तिहाई से अधिक सीटों पर जीत तो इंडिया गठबंधन को महाराष्ट्र में ही हासिल हो सकी थी।

जब राज्य की राजनीति को ध्यान में रखते हुए महा विकास अघाड़ी का गठन कर इंडिया गठबंधन को इतनी शानदार सफलता हासिल हो गई तो अब जबकि राज्य में इसे असली परीक्षा का सामना करना है, तो समझा जा सकता है कि महा विकास अघाड़ी का स्ट्राइक रेट क्या होने जा रहा है।

जनादेश का ऐसा निरादर इससे पहले कभी नहीं हुआ

5 वर्ष पहले हुए विधानसभा चुनाव से आज की तुलना करने पर महाराष्ट्र की फ़िजा पूरी तरह से बदली नजर आती है। अक्टूबर 2019 में भाजपा-शिवसेना की महायुती ने फिर एक बार बंपर (हालांकि 2014 से कम) चुनावी जीत हासिल की थी। 288 सीटों में बीजेपी 105 और शिवसेना को 56 सीटें हासिल हुई थीं।

लेकिन, सहयोगी दलों के साथ जूनियर पार्टनर की भूमिका से कब भाजपा ने महाराष्ट्र को अपने अधीन कर लिया, इसका अहसास उद्धव ठाकरे को काफी बाद हो सका, और यही दोनों दलों के बीच झगड़े की मुख्य वजह बनी।

एनसीपी के हिस्से में 54 और कांग्रेस को 44 सीटों पर जीत हासिल हुई थी, लेकिन इसे शरद पवार की चाणक्य नीति कहिये, जिन्होंने अपनी चालों से महाराष्ट्र में भाजपा गठबंधन को मिली जीत को हार में तब्दील कर दिया, और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी की सरकार बन गई।

इसके बाद की महाराष्ट्र की राजनीति में दिल्ली ने वो भूचाल पैदा किये, जिसकी मिसाल इससे पहले महाराष्ट्र क्या देश के किसी राज्य ने नहीं देखी थी। सबसे पहले जून 2022 में शिवसेना में तोड़फोड़ की गई और महाविकास अघाड़ी की सरकार को अपदस्थ कर शिवसेना (शिंदे) गुट के साथ भाजपा राज्य में अपनी सरकार बनाने में सफल रही।

लेकिन जमीन पर देखने पर लग रहा था कि शिवसेना कार्यकर्ता अभी भी उद्धव ठाकरे को ही अपना नेता मानते हैं, जो भविष्य में महाविकास अघाड़ी को भारी बढ़त दिला सकता है।

इसे ध्यान में रखते हुए, एक साल बाद जुलाई 2023 में महाविकास अघाड़ी में एक और तोड़फोड़ को अंजाम दिया गया, और इस बार यह झटका शरद पवार की पार्टी को दिया गया, और उनके 54 में से 40 विधायक लेकर भतीजे अजित पवार सरकार में उप-मुख्यमंत्री बन गये।

इस प्रकार, शिवसेना और एनसीपी दोनों दलों के पार्टी सिंबल और चुनाव चिन्ह को क़ानूनी रूप से हथियाकर महाराष्ट्र की जनता के सामने यह बताने की कोशिश की गई कि असल में महायुती ही राज्य में बीजेपी के अलावा दोनों क्षेत्रीय दलों का प्रतिनिधित्व कर रही है।

लेकिन 2024 लोकसभा में राज्य के मतदाताओं ने साफ़ बता दिया कि वे राज्य में केंद्र के अनुचित हस्तक्षेप का विरोध करते हैं, और उसने 48 सीटों में बीजेपी को मात्र 9, शिवसेना (शिंदे) 7 और एनसीपी (अजित) को मात्र 1 सीट पर जीत दिलाकर अपने इरादे जाहिर कर दिए। कांग्रेस को 13+1, शिवसेना (उद्धव) 7 और एनसीपी (शरद पवार) को 8 सीटों पर जीत कई मायनों में अभूतपूर्व है।

आम मराठी मानुष के लिए सबसे अहम क्या है

महाराष्ट्र की जनता के लिए राज्य में अपनी सरकार पहली प्राथमिकता पर है, और उसने जब लोकसभा चुनाव में पीएम नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को दरकिनार कर दिया तो राज्य में वह दागदार नेतृत्व को कितना महत्व देने वाली है, समझा जा सकता है।

भाजपा के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि यदि वह महायुती गठबंधन को महाराष्ट्र की आकांक्षाओं का वास्तविक प्रतिनिधित्व करते हुए दिखा पाने में नाकामयाब रही, तो उसके ऊपर बाहरी (गुजराती) का ठप्पा लगने की भारी आशंका है, जो महाराष्ट्र और मुंबई के धन और वैभव को गुजरात खिसकाने के प्रति कटिबद्ध है।

यह एक ऐसा दाग है, जिसे विशेष रूप से उद्धव ठाकरे पिछले दो वर्षों से लगातार मढ़ रहे हैं, जिससे काफी हद तक लगता है आम लोग सहमत हैं।

लेकिन, बीजेपी से अधिक संकटग्रस्त स्थिति मुख्यमंत्री शिंदे और उप-मुख्यमंत्री अजित पवार की हो चुकी है, जिन्हें बखूबी पता है कि उनका और उनकी पार्टी का अस्तित्व इस चुनाव पर ही टिका है। इसमें एकनाथ शिंदे जरुर अपने लिए एक बेहतर स्थिति बनाने में कामयाब रहे हैं।

पिछले कुछ समय से उनके प्रचार और व्यक्तित्व को निखारने का काम व्यावसायिक एजेंसियों के माध्यम से किया जा रहा है। लोकसभा में भी एकमात्र उन्हीं की पार्टी को गठबंधन में अपेक्षित सफलता प्राप्त हो सकी थी।

वहीं, एनसीपी (अजित पवार) गुट खुद को गठबंधन में पूरी तरह से मिसफिट पा रही है। उसके नेता लगातार खूंटा तुड़ाकर शरद पवार गुट में शामिल होकर अपना राजनीतिक भविष्य तलाशने की कोशिश में जुटे हैं।

पिछले दिनों, अजित पवार गुट के ही दोनों नेताओं को गैंग वार में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। बाबा सिद्दीकी जैसे दिग्गज नेता की हत्या पर विपक्षी दलों ने जिस प्रकार से हमलावर रुख अपनाया है, उसका आधा भी अजित पवार अपने ही दल के नेता के लिए नहीं दिखा सके।

सीटों के लिए मल्लयुद्ध होना अभी बाकी है

असल खेल कुछ दिनों में देखने को मिल सकता है। ऐसा माना जा रहा है कि 288 सीटों में से भाजपा कम से कम 160 सीट पर खुद लड़ने वाली है, और शेष 128 सीटों में से शिंदे की शिवसेना को 80 और 40 पर अजित पवार और अन्य को निपटाने के लिए पूरा जोर लगाएगी।

लेकिन अकेले शिवसेना (शिंदे) 120 सीटों पर अपना दावा ठोंक रहे हैं। इस बारे में हाल ही में उन्होंने गृहमंत्री अमित शाह के सामने भी अपनी इच्छा खुलकर रख दी थी।

शिंदे लोकसभा में अपने ट्रैक रिकॉर्ड का हवाला देते हुए दावा कर रहे हैं कि यदि उन्हें मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर गठबंधन उतारता है तो वे मराठा मतदाताओं को अपने पाले में लाकर गठबंधन की जीत को सुनिश्चत करा सकते हैं, क्योंकि राज्य की जनता का गुस्सा बीजेपी को लेकर बरकरार है।

उधर 40 विधायकों के साथ गठबंधन में आने वाले अजित पवार भला 70-80 सीट से नीचे कैसे राजी हो सकते हैं?

ऊपर से बीजेपी की ओर से कहा जा रहा है कि भाजपा की तरह दोनों दल भी अपने 30-40% मौजूदा विधायकों को टिकट से महरूम रखे, तभी सरकार बनाई जा सकती है।

जबकि दोनों सहयोगी दलों के नेता के लिए यह बात कहीं से भी गले से नहीं उतरती। उनका साफ़ मानना है कि अपने मूल पार्टी से बागी बने विधायकों के बल पर ही तो वे आज भाजपा के साथ सत्ता में साझेदारी कर रहे हैं।

उनके लिए यह डबल धोखा देने वाली बात कही जा सकती है। फिर ये सारे विधायक यदि विद्रोह कर मूल संगठन में वापिस चले जाते हैं, तो वे तो पूरी तरह से बर्बाद हो जायेंगे।

2019 तक राज्य में दो राष्ट्रीय पार्टियों के साथ दो क्षेत्रीय पार्टियों का गठबंधन महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले 3-4 दशकों से जारी था। आज दोनों गठबंधन में दो-दो क्षेत्रीय दलों के साथ कुल 6 पार्टियां चुनावी दंगल में मौजूद हैं।

ऊपर से बागियों, टिकट कटने से नाराज लोगों और कार्यकर्ताओं के बीच आखिरी विकल्प का चुनाव करने की स्थिति ने महाराष्ट्र के चुनावी गणित को उलझाकर रख दिया है।

इसमें जीत की गारंटी उसी गठबंधन को मिल सकती है, जिसका चुनावी तालमेल ज्यादा बेहतर होगा और जो महाराष्ट्र के मूलभूत मुद्दों पर टिका रहेगा।

भाजपा गठबंधन के लिए एकमात्र आशा की किरण, लड़की-बहिनी योजना नजर आ रही है, जिसके तहत राज्य में 1.3 करोड़ महिलाओं को प्रतिमाह 1,500 रूपये की आर्थिक सहायता प्रदान की जा रही है। इससे पहले, मध्य प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री, शिवराज सिंह चौहान ने लाडली बहना योजना के बल पर भाजपा की अवश्यंभावी हार को बड़ी जीत में तब्दील कर चुके हैं।

इस योजना का श्रेय लूटने की होड़ में मुख्यमंत्री शिंदे ही नहीं अजित पवार और देवेंद्र फडनवीस किसी से पीछे नहीं दिखना चाहते। अगस्त माह में दो-दो किश्त के साथ शुरुआत कर 4 किश्त के माध्यम से सरकार राज्य मशीनरी को इस स्कीम के बारे में बताने के लिए पूरे जोरशोर से जुटी हुई है।

निश्चित रूप से महिलाओं के एक हिस्से में इसका असर पड़ेगा, लेकिन विपक्ष इस मुद्दे पर आम लोगों के पास किन मुद्दों को लेकर जाती है, उस पर जीत-हार का दारोमदार काफी हद तक टिका है।

जहां तक जन-सरोकार से जुड़े मुद्दे हैं, तो महाराष्ट्र में कृषि में लाभकारी मूल्य, प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध, सूखे, मुआवजे, कर्ज मुक्ति से लेकर बेरोजगारी, महाराष्ट्र में आने वाले निवेश को दूसरे राज्यों, विशेषकर गुजरात में शिफ्ट किये जाने के इतिहास है।

अडानी को धारावी रिडेवलपमेंट सहित हाल ही में मुंबई के देवनार में कई एकड़ जमीन आवंटन सहित मुंबई महानगर पालिका में वर्षों से लंबित चुनाव जैसे सैकड़ों मुद्दे हैं, जो रह-रहकर मराठी मानुष के अस्तित्व को चुनौती देते से महसूस होते हैं।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस बार जीत का सेहरा उस पक्ष को मिलने की पूरी संभावना है जिसे मतदाता महाराष्ट्र की अस्मिता और सम्मान के साथ जुड़ा महसूस करने वाले हैं। यदि इसे एकनाथ शिंदे चैंपियन करने में सफल रहते हैं, तो बाजी महायुती के हाथ भी लग सकती है, जिसकी संभावना काफी कम है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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