तमिलनाडु की राजनीति में अभिनेता विजय की धमाकेदार एंट्री के मायने 

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27 अक्टूबर 2024 को तमिलनाडु में एक जबरदस्त राजनीतिक तमाशा देखने को मिला। तमिझगा वेट्रिक कझगम जिसका आशय है (तमिल विजय संगठन) नामक एक राजनीतिक पार्टी के स्थापना सम्मेलन के मौके पर तकरीबन 3 लाख लोग इकट्ठा हुए थे।

हाल के दिनों में विजय की फिल्में एक के बाद हर बार बॉक्स-ऑफिस पर सुपर हिट साबित हुई हैं। क्या उनकी राजनीतिक पारी की शुरुआत भी ब्लॉकबस्टर हिट साबित होने जा रही है? या, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी?

उद्घाटन सम्मेलन एक शानदार आगाज़ के साथ आरंभ हुआ है   

इस तथ्य को लेकर किसी में भी मतभेद नहीं है कि यह सम्मेलन बेहद सफल रहा और स्वाभाविक रूप से इसी वजह से करीब-करीब सभी राजनीतिक पार्टियों एवं राज्य और राष्ट्रीय मीडिया में भी तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं।

लेकिन हर राजनीतिक पर्यवेक्षक इस केंद्रीय प्रश्न से जूझता नज़र आ रहा है कि क्या विजय की सिनेमाई लोकप्रियता एक राजनीतिक शक्ति में तब्दील हो पाएगी?

तमिलनाडु में फ़िल्मी लोकप्रियता को राजनीतिक ताकत में तब्दील कर लेने के कई सफल मॉडल रहे हैं, जैसे एमजीआर और जयललिता के मामले में यह प्रयोग कारगर रहा, तो दूसरी तरफ अतीत में शिवाजी गणेशन और हाल के दिनों में कमल हासन के मामले में यह पूरी तरह से विफल भी साबित हुआ है।

यहां तक ​​कि रजनीकांत के मामले में भी, जब वे अपनी राजनीतिक पारी का आग़ाज करने के कगार पर थे, तभी ऐन मौके पर उन्होंने बेहद चतुराई से अपने कदम पीछे खींच लिए, क्योंकि वे भांप चुके थे कि उनकी अपार लोकप्रियता के बावजूद, उनके द्वारा निर्मित नई पार्टी के लिए राजनीतिक स्पेस बेहद सीमित रहने वाला है।

क्या विजय उस पॉलिटिकल स्पेस को पैदा करने में सफल साबित हो सकते हैं, जहां रजनी और कमल हासन विफल रहे?

कई विश्लेषकों का मानना है कि सिर्फ व्यक्तिगत लोकप्रियता से राजनीतिक सफलता की गारंटी संभव नहीं हो सकती। काफी कुछ इसके व्यापक राजनीतिक स्वरूप, वैचारिक आधार, इसके अनुयायियों और लक्षित आधार के सामाजिक बुनावट और इसके साथ-साथ पार्टी के संगठनात्मक एवं चुनावी कौशल पर निर्भर करता है।

इसके अलावा, सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होगा वो निर्णायक कारक, जो मौजूदा राजनीतिक माहौल और इसकी मौजूदा ताकतों के संतुलन पर निर्भर करेगा।

उद्घाटन सम्मेलन से ज्यादा से ज्यादा किसी भी पार्टी की राजनीतिक शुरुआत का संकेत मिल सकता है, लेकिन इससे आने वाले समय में पार्टी किस तरह विकसित होगी, का कोई अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। संभवतः इसी वजह से, कई लोग अभी ‘इंतजार करने और देखने’ वाले रुख को अपनाए हुए हैं।

भाजपा और डीएमके विरोधी राजनीतिक रुख के साथ शुरुआत 

हालांकि उद्घाटन सम्मेलन में विजय के भाषण से उनके और उनकी नई पार्टी की राजनीतिक दिशा के बारे में कुछ संकेत अवश्य प्राप्त होते हैं।

विजय ने भाजपा को अपनी पार्टी का “वैचारिक-दुश्मन” और डीएमके को अपना वास्तविक “जमीनी-दुश्मन” कहा है, और डीएमके के भ्रष्ट पारिवारिक शासन के लिए उसे आड़े हाथों लिया है।

इसलिए, टीवीके के उद्घाटन सम्मेलन के साथ भाजपा-विरोधी और डीएमके-विरोधी स्वर तो लगता है तय हो गया है।

हालांकि कुछ लोगों का मानना ​​है कि भाजपा और उसके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी डीएमके का एक स्वर में समान विरोध असल में राजनीतिक अपरिपक्वता का संकेत है। हालांकि, कुछ अन्य लोगों के मुताबिक, इसमें तमिलनाडु में डीएमके और भाजपा विरोधी राजनीतिक माहौल की व्यापकता का पहलू शामिल है,

जहां पर पहले से ही एआईएडीएमके और दिवंगत अभिनेता विजयकांत की देसिय मुरपोक्कु द्रविड़ कझगम (डीएमडीके) जैसे प्रमुख दल सक्रिय हैं।

एआईएडीएमके को लेकर चुप्पी 

लेकिन इस सम्मेलन में विजय ने अपने भाषण में एआईएडीएमके को लेकर कोई आलोचना नहीं की और एआईएडीएमके पर अपनी पूरी तरफ से पूरी ख़ामोशी बरतकर उन्होंने राज्य में प्रमुख विपक्षी दल एआईएडीएमके के प्रति अपनी पार्टी के रवैये में राजनीतिक अस्पष्टता को बनाए रखने के विकल्प को चुना है।

विजय का साफ़ कहना था कि उनकी पार्टी गठबंधन और गठबंधन की राजनीति को अपनाने के लिए तैयार है। हालांकि उन्होंने संभावित सहयोगियों का नाम नहीं लिया, लेकिन उन्होंने एआईएडीएमके के साथ गठबंधन की संभावनाओं को स्पष्ट रूप से खारिज भी नहीं किया है।

वहीं दूसरी ओर, जब पत्रकारों ने एआईएडीएमके नेता एडप्पादी पलानीस्वामी से उनकी पार्टी के विजय की TVK के साथ गठबंधन में जाने की संभावनाओं के बारे में सवाल किया, तो पलानीस्वामी ने भी सावधानी बरतते हुए जवाब में कहा है कि 2026 के विधानसभा चुनाव अभी 16 महीने दूर हैं।

और जब समय आएगा तो उनकी पार्टी इस दायरे को पार कर जाएगी। ऐसे में, तमिलनाडु में संभावित भविष्य के राजनीतिक गठबंधन का यह एक संकेत प्रदान करता है।

बीजेपी और डीएमके दोनों के खिलाफ सीमित आलोचना 

यह बात सही है कि विजय ने अपने भाषण में भाजपा और डीएमके दोनों की आलोचना की। लेकिन उनकी आलोचना संपूर्णता में नहीं थी। भाजपा की आलोचना उन्होंने सिर्फ़ उसके “विभाजनकारी चरित्र” के चलते की है, किंतु उसे खुलकर सांप्रदायिक या फ़ासीवादी नहीं कहा है।

इसके अलावा, उन्होंने कुछ राजनीतिक शक्तियों के फ़ासीवाद-विरोध को “पायसम” (पायस/खीर!) के साथ जोड़कर एक तरह की मूर्खतापूर्ण समानता खींचने का प्रयास किया है, जो कि भाजपा-विरोधी ज़ोर को भोथरा करने वाला साबित होता है।

कुछ इसी प्रकार, विजय डीएमके के द्रविड़ मॉडल के प्रति भी आलोचनात्मक रुख रखते दिखे, जिसमें सिर्फ भ्रष्ट परिवार के वर्चस्व पर सारा ध्यान केंद्रित किया गया है।

हालांकि उन्होंने इस मुद्दे पर अपनी बात रखते हुए सही जगह पर चोट की है, लेकिन वे एमके स्टालिन सरकार के कॉरपोरेट समर्थक व्यापारिक घरानों वाले रुख और डीएमके सरकार के मजदूर विरोधी कृत्यों के साथ-साथ दलितों पर अत्याचार करने वाली शक्तियों के प्रति उसके नरम रवैये को भी नजरअंदाज कर गये।

सम्मेलन में विजय के भाषण में व्यक्त विचारधारा भी काफी हद तक अस्पष्ट है। उन्होंने द्रविड़वाद और तमिल राष्ट्रवाद के संयोजन की बात तो की, लेकिन सबसे अजीबोगरीब बात यह रही कि सामाजिक न्याय और संघीय अधिकारों को लेकर उनकी ओर से एक शब्द भी नहीं फूटा।

अन्य राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया

करीब-करीब सभी राजनीतिक पार्टियों की शुरुआती प्रतिक्रिया थोड़ी सतर्क रही। द्रमुक के दूसरी पांत के नेताओं ने विजय की पार्टी को भाजपा का चौथा स्तंभ करार दिया है, जबकि अन्नाद्रमुक की दूसरी पांत के कुछ पदाधिकारियों ने अन्नाद्रमुक और टीवीके के बीच की समानताओं पर जोर देने का काम किया है।

लेकिन विजय की पार्टी के गठन का स्वागत करने या इसे संभावित सहयोगी के तौर पर चिह्नित करने से परहेज किया है। दलितों की मुख्य पार्टी के तौर पर जानी जाने वाली पार्टी, विदुथलाई चिरुथैगल काची (वीसीके) के नेता तिरुमावलवन ने शुरू-शुरू में विजय की इस घोषणा का स्वागत करते हुए कहा था कि उनकी पार्टी गठबंधन करेगी।

लेकिन बाद में तिरुमावलवन ने पलटी मारते हुए विजय की इस बात के लिए आलोचना की कि वे इस प्रस्ताव के माध्यम से द्रमुक के मोर्चे को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं कि जब उनकी पार्टी सत्ता में आएगी तो उनके सहयोगी सरकार में शामिल होंगे।

संयोगवश यह एक ऐसा मुद्दा रहा है जिसको लेकर डीएमके के ऊपर दोनों सहयोगी दलों, कांग्रेस और वीसीके की तरफ से दबाव बढ़ रहा है। इसके अलावा, तिरुमावलवन ने विजय के द्वारा फासीवाद-विरोध को ‘पायसम’ जैसा कुछ कहकर उपहास करने पर खुले तौर पर सवाल खड़ा किया है। 

लेकिन एक विचित्र तथ्य यह है कि एक संभावित सहयोगी, सीमन, जो कभी-कभार अल्ट्रा-तमिल राष्ट्रवादी बयानबाजी में मशगूल रहता है, ने विजय की पार्टी के निकट भविष्य में सहयोगी दल के तौर पर खड़े होने के बावजूद विजय के पूर्ण आलोचना की है।

तथ्य यह है कि दोनों पार्टियां तमिल युवाओं के बीच अपने लिए समर्थन की खातिर आपस में होड़ कर रही हैं, और संभवतः उनके बीच समय से पहले शत्रुता भाव की यह मुख्य वजह हो सकती है।

तमिलनाडु के उभरते मुद्दों पर कोई अभिनव कार्यक्रम वाली पोजीशन नहीं

विजय न तो उद्घाटन सम्मेलन के दौरान और न ही उसके बाद तमिलनाडु के उभरते मुद्दों पर कोई अभिनव कार्यकम वाली पोजीशन को पेश कर पाए हैं। एक राजनीतिक नेता के तौर पर विजय ने अभी तक महज एक औसत दर्जे की बौद्धिक भूमिका ही निभाई है और वे खुद को बेहद स्पष्ट रूप से पेश नहीं कर पाए हैं।

बेशक, विजय ने डीएमके और यहां तक ​​कि एआईएडीएमके द्वारा अतीत में अपनाई गई प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद की दौड़ में खुद को शामिल नहीं होने दिया है। लेकिन वे कोई और वैकल्पिक एवं कल्पनाशील आर्थिक एवं सामाजिक कार्यक्रम लेकर भी सामने नहीं आए हैं।

तमिलनाडु, सबसे अधिक शहरीकरण वाले राज्यों में से एक है, जो शहरी बुनियादी ढांचे की विभिन्न चुनौतियों से ग्रस्त है। यहां तक ​​कि चेन्नई जैसे तटीय शहर होने के बावजूद बारिश के पानी को निकलने में कई-कई दिन लग जाते हैं, और इसी की वजह से इस वर्ष की शुरुआत में और पिछले साल की तरह अक्सर बड़े पैमाने पर बाढ़ की स्थिति बनी रहती है। 

तमिलनाडु में सिर्फ जलवायु संबंधी बुनियादी ढांचे के विकास की ही एकमात्र चुनौती नहीं है। नगरपालिका स्तर पर सामाजिक बुनियादी ढांचा बड़े पैमाने पर आधा-अधूरा है। लेकिन बड़बोलेपन का कोई अंत नहीं है।

एमके स्टालिन सरकार ने बुनियादी ढांचे के विकास पर मुख्य ध्यान देने के साथ 2030 तक छह वर्षों के भीतर राज्य की जीडीपी को 1 ट्रिलियन डॉलर (या 82 लाख करोड़) की अर्थव्यवस्था के स्तर तक पहुंचा देने के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम की घोषणा की है।

लेकिन 2024-25 के राज्य बजट में, स्टालिन सरकार ने बुनियादी ढांचे के लिए महज 8,365 करोड़ रुपये ही आवंटित किए हैं, और सभी क्षेत्रों की अनदेखी कर सारा ध्यान पूरी तरह से सड़कों पर केंद्रित कर रखा है!

उदाहरण के तौर पर, तमिलनाडु में भारत के सभी महिला औद्योगिक श्रमिकों के 43% हिस्से पर आधिपत्य है, और उनकी संख्या राज्य में 6.79 लाख है। इनमें से कम से कम एक तिहाई प्रवासी श्रमिक हैं और उन्हें सुरक्षित आवास की गंभीर समस्या का सामना करना पड़ता है।

तमिलनाडु सरकार ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सेवा के लिए केवल 15,800 फॉक्सकॉन महिला श्रमिकों के लिए घर बनाकर दिए हैं, लेकिन शेष श्रमिकों के लिए कोई अन्य आवासीय परियोजना नहीं है। 

इतनी बड़ी महिला श्रम शक्ति होने के बावजूद, तमिलनाडु में केवल 568 पंजीकृत कामकाजी महिला छात्रावास हैं, और सरकार उनमें से केवल 21 का ही संचालन करती है। निजी छात्रावास और पीजी सुविधाएं असुरक्षित परिस्थितियों में महिलाओं को लूटने का काम करती हैं।

देश में कामकाजी महिलाओं की हिस्सेदारी की बात करें तो तमिलनाडु में यह सबसे अधिक है, लेकिन लैंगिक वेतन भेदभाव भी यहां पर सबसे अधिक है। नौकरी की सुरक्षा एक छलावा मात्र है। तमिलनाडु के शहरों में बच्चों के लिए खेल के मैदान, पार्क और सामुदायिक हॉल दुर्लभ होते जा रहे हैं।

राज्य में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर से निवेश की बाढ़ आई हुई है, और नई नौकरियां पैदा हो रही हैं, लेकिन अभी भी उच्च वेतन वाली गुणवत्तापूर्ण नौकरियां कार्यबल के एक छोटे से हिस्से को ही उपलब्ध हैं। निजी रोज़गार में ठेका प्रथा और अनियमितता का बोलबाला बना हुआ है।

तमिलनाडु को देश के हेल्थकेयर कैपिटल के तौर पर जाना जाता है, लेकिन स्वास्थ्य पर होने वाले प्रति व्यक्ति व्यक्तिगत खर्च के मामले में राज्य 15,455 रुपये के साथ छठे स्थान पर है, जबकि उत्तर प्रदेश (60,883 रुपये), महाराष्ट्र (34,177 रुपये), पश्चिम बंगाल (33,561 रुपये), केरल (25,222 रुपये), आंध्र प्रदेश (17,245 रुपये) के साथ तमिलनाडु से मीलों आगे हैं।

5 दिसंबर 2023 को राज्यसभा में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक, पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश अपने जीएसडीपी का 3.4% हिस्सा स्वास्थ्य सेवा पर खर्च करता है, जबकि तमिलनाडु मात्र 0.9% हिस्सा ही खर्च करता है।

इसी प्रकार, तमिलनाडु 600 इंजीनियरिंग कॉलेजों की उपलब्धि पर नाज करता है, लेकिन एम्प्लॉयबिलिटी स्टडी एजेंसी AMCAT के मुताबिक, उनमें से केवल 8.33% ही रोजगार पाने के योग्य हैं। पुराने सिलेबस और शिक्षा की खराब गुणवत्ता के चलते छात्रों का एक बड़ा हिस्सा बेरोजगार रह जाता है।

2022 में, जबकि “पिछड़े” राजस्थान के 2184 छात्रों ने IIT-JEE प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की थी, और उतने ही “पिछड़े” तेलंगाना के 1644 छात्रों ने इसे पास किया, वहीं कथित उन्नत समझे जाने वाले तमिलनाडु से मात्र 436 छात्र ही इसे पास कर सके।

इसी तरह, 2021 में UPSC की परीक्षा में तमिलनाडु के केवल 27 उम्मीदवार ही कुल 685 में से उत्तीर्ण हो सके थे। शिक्षा की गुणवत्ता में भारी कमी बनी हुई है। लोकलुभावनवाद कभी-कभी वोट तो दिला सकता है, लेकिन ऐसी जिद्दी शैक्षिक या स्वास्थ्य चुनौतियों से निपट पाना संभव नहीं हो सकता।

तमिलनाडु भारत के तीन सबसे विकसित राज्यों में से एक है। लेकिन, सामाजिक विरोधाभास के मामले में, खासकर जातिगत बैरभाव, विकास के साथ-साथ बढ़ती जा रही है और कम होने का नाम नहीं ले रही। यह कोई विसंगति या विरोधाभास नहीं है, बल्कि विकास की सामान्य प्रवृत्ति है।

2022 में, जातिगत अत्याचारों के मामले में तमिलनाडु शीर्ष पर रहा। 2023 में, महिलाओं के खिलाफ अत्याचारों के मामले में तमिलनाडु आठवें स्थान पर रहा। यह सब पेरियार की धरती पर हुआ! यह समकालीन द्रविड़ मॉडल का वह गंदा पक्ष है जो पेरियार के आदर्शों से काफी दूर जा चुका है।

तमिलनाडु को इस बात पर अभिमान रहता है कि उसका कॉलीवुड-बॉलीवुड को कड़ी टक्कर दे रहा है। लेकिन एक असभ्य जन संस्कृति हमेशा हावी रहती है, और तमिल समाज के अधिक सभ्य विकास में बाधा उत्पन्न करती रहती है, जैसा कि श्रीलंका या मलेशिया के तमिलों के मामले में होता है।

ऐसा जान पड़ता है कि विजय को तमिलनाडु की इन समस्याओं के बारे में कोई जानकारी नहीं है और वे इनके समाधान की बात तो दूर की रही, वे शायद ही कभी इस बात का ज़िक्र करते हैं।

रचनात्मक विचारों के अभाव की स्थिति में, यह एक खुला सवाल बन जाता है कि वे तमिलनाडु के अत्यधिक प्रतिस्पर्धी राजनीतिक माहौल में अपनी राजनीतिक पकड़ को किस हद तक कायम रख पाने में सफल हो पाएंगे, जिसमें पहले से ही कई राजनीतिक खिलाड़ी मौजूद हैं।

तमिलनाडु में एक नए राजनीतिक दल के लिए स्थान उपलब्ध है 

बेशक, टीवीके के उद्घाटन सम्मेलन की सफलता और इसके बारे में राजनीतिक शोरगुल इस बात को दर्शाता है कि तमिलनाडु में एक नई राजनीतिक ताकत के लिए पर्याप्त स्थान मौजूद है। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों के लिए चुनौती यह बनी हुई है कि इस जगह को ठीक ढंग से कैसे परिभाषित किया जाए?

विजय के प्रशंसकों के आधार और उद्घाटन सम्मेलन में भागीदारी पर करीब से नज़र डालने से पता चलता है कि यह तमिल युवा परिघटना की एक अभिव्यक्ति को दर्शा रहा है।

तमिलनाडु में, लगभग सभी प्रमुख अभिनेताओं के पास अपना “फैन-क्लब” का विशाल संगठित नेटवर्क मौजूद है, और वे हमेशा कुछ मामलों में राजनीति में प्रवेश के लिए लॉन्च-पैड के तौर पर काम आते रहे हैं। लेकिन विभिन्न अभिनेताओं के प्रशंसक आधार में अलग-अलग वर्ग और सामाजिक चरित्र होते हैं।

बीते वर्षों में, गरीब और सर्वहारा वर्ग के लोग, खासकर युवा वर्ग एमजीआर के पीछे लामबंद हो गया था, और बाद में उसी आधार ने जयललिता के प्रति अपनी निष्ठा को बदल दिया। 

इसी तरह, वर्तमान में इसी प्रशंसक आधार वाले सामाजिक बुनियादी ढांचे ने खुद को रजनीकांत के पीछे लामबंद कर लिया, और शायद इसी वजह से जयललिता के जीवित रहते रजनीकांत उनके मुकाबले में खड़े नहीं हो पाए। इसके विपरीत, अतीत में शिवाजी गणेशन और अब कमल हासन या सूर्या जैसे अभिनेताओं के प्रशंसक मुख्य रूप से शिक्षित शहरी युवा रहे हैं।

जबकि विजय के प्रशंसक आधार में मुख्य रूप से नव-मध्यम वर्ग के युवा शामिल हैं, जो तुलनात्मक रूप से लोकप्रिय अभिनेता धनुष के प्रशंसक आधार के बराबर हैं, जिन्होंने हालांकि अभी तक राजनीति में प्रवेश के बारे में कोई संकेत नहीं दिए हैं।

नव-मध्यम वर्ग को दलित वर्ग के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो पारंपरिक मध्यम वर्ग के विपरीत नए सिरे से मध्यम वर्ग की श्रेणी में शामिल होने की आकांक्षा रखता है, जिसने पीढ़ियों से मध्यम वर्ग का चरित्र स्थापित कर रखा है। यह नव-मध्यम वर्ग साक्षर तो है, लेकिन उच्च शिक्षित नहीं है।

नौकरीपेशा होने के बावजूद यह कम आय के साथ बड़े पैमाने पर बेरोजगार है। यह वर्ग बेहद अनिश्चित जीवन जी रहा है। इसके पास कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है और एक भी संकट आने की स्थिति में यह सर्वहारा वर्ग की श्रेणी में वापस पहुंच सकता है। 

सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से ये लोग बेहद अस्थिर जीवन जी रहे हैं। उनमें से कई जातिवादी और सांप्रदायिक मानसिकता रखते हैं। अत्यधिक शहरीकृत तमिलनाडु में, वे संगठित श्रमिकों या किसानों की तुलना में एक बड़ी सामाजिक शक्ति बने हुए हैं।

जबकि संगठित मजदूरों और कृषकों की संख्या घटती जा रही है, यहां तक कि बड़े पारंपरिक मध्यम वर्ग में भी गिरावट देखने को मिल रही है। ये नव-मध्यम वर्ग सभी जातियों से निकलते हैं, लेकिन तमिलनाडु की जनसांख्यिकीय संरचना को देखते हुए, ओबीसी पृष्ठभूमि के नव-मध्यम वर्ग स्वाभाविक रूप से सबसे प्रबल बने हुए हैं। 

विजय के द्वारा नव-मध्यम वर्ग के युवाओं को सफलतापूर्वक अपने पीछे लामबंद करना डीएमके से उनके अलगाव का स्पष्ट प्रमाण है। टीवीके की सफलता नव-मध्यम वर्ग की अशांति का संकेत है।

टॉलीवुड के सेट-डिजाइनर शानदार सेट डिजाइन करने में माहिर हैं। उस परंपरा को विरासत में पाकर विजय ने अपने सम्मेलन स्थल को भी उन्हीं डिजाइनरों से डिजाइन करवाया। इस तरह, वे चेन्नई से 155 किलोमीटर दूर स्थित विक्कीरावंडी में सम्मेलन को एक बड़े तमाशे जैसा रूप देने में कामयाब रहे।

पहले से मौजूद संगठित फैन क्लब नेटवर्क की बदौलत विजय आज तमिलनाडु की लगभग हर पंचायत और नगर पालिका में पार्टी का नया सांगठनिक ढांचा खड़ा कर पाने में कामयाब हो चुके हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या इसे चुनावी मशीनरी में तब्दील कर पाना संभव हो पायेगा?

उधर डीएमके ने 2026 के चुनावों के लिए अपनी चुनावी मशीनरी को पहले से चाक-चौबंद कर लिया है, और एमके स्टालिन ने 200 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है और सभी 243 निर्वाचन क्षेत्रों में पर्यवेक्षकों की तैनाती तक कर दी है।

डीएमके विरोधी भावना कुछ लोगों को एआईएडीएमके की ओर धकेल रही है और जयललिता के बाद बिखराव की स्थिति और बड़े विभाजन के बावजूद यह एक बार फिर से उभर रही है।

विजय के द्वारा इकट्ठा किये गये युवाओं के मजमे में कुछ विध्वंसकारी प्रवृत्तियां भी देखने को मिली हैं। भले ही सम्मेलन में कथित तौर पर 3 लाख लोग शामिल हुए थे, लेकिन इनके लिए महज 50,000 कुर्सियों की भी व्यवस्था की गई थी, और अन्य लोग बस इधर-उधर घूम रहे थे।

सम्मेलन की समाप्ति के बाद, 50,000 कुर्सियों में से 15,000 कुर्सियां टूटी हुई पाई गई थीं। इससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या यह युवा शक्ति सिर्फ़ एक लुम्पेन बिखरे हुए टुकड़े हैं, या क्या उन्हें कुछ अनुशासन के साथ काम करने के काबिल बनाया जा सकता है। केवल समय ही इस बारे में बता सकता है।

तमिलनाडु की राजनीति भी धीरे-धीरे तब्दील होती जा रही है। यह द्विध्रुवीय से बहुध्रुवीय राजनीति में तब्दील हो रही है, जिसमें कई ध्रुवों में ये दो द्रविड़ पार्टियां सिर्फ़ दो प्रमुख ध्रुव रह जाने वाले हैं।

ऐसा परिदृश्य विजय जैसे नए खिलाड़ियों के लिए पैंतरेबाज़ी अपनाने के लिए ज़्यादा गुंजाइश प्रदान कर सकता है। ऐसा जान पड़ता है कि विजय का आग़ाज तो अच्छा हो गया है, लेकिन उनकी जीत को लेकर अभी तक ऐसा कोई संकेत नज़र नहीं आता है!

(बी सिवरामन शोधकर्ता हैं। लेख का अनुवाद रविंद्र पटवाल ने किया है।)

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