Saturday, April 20, 2024

मीडिया, एनकाउंटर और कल्याणकारी राज्य बजरिए अतीक-अशरफ हत्याकांड 

अपराधी से नेता बने अतीक और अशरफ की पुलिस हिरासत में हुई हत्या का सीधा प्रसारण भारतीय टेलीविजन के इतिहास की दुखद, हैरतनाक मगर लोमहर्षक परिघटना है। पखवाड़े भर से इलेक्ट्रानिक मीडिया समेत दूसरे माध्यमों में लगातार इतनी अधिक कवरेज मिलने की वजह सिर्फ यही नहीं है कि सत्तापोषित गोदी मीडिया की चिह्वा इसमें चटखारे ले रही है। बल्कि वह मीडिया भी इस घटना को नजरअंदाज नहीं कर पा रही है, जो यह मानती है कि इसके बहुप्रचार के पीछे सत्ताधारी दल का खास एजेंडा है। 

गोदी मीडिया निरंतर अतीक-अशरफ के बेहिसाब अपराधों और उसके काले कारनामों को अनंत बार दोहराकर इस जुड़वां हत्याकांड को औचित्य प्रदान करना चाह रही है। जैसा कि भाजपा के कई नेता और उत्तर प्रदेश के काबीना मंत्री तक यह दोहरा रहे हैं कि अहमद बंधुओं की हत्या उनकी करनी का फल है और जो हुआ, वह अच्छा हुआ। दूसरी तरफ मीडिया का एक दूसरा हिस्सा है, जो थोड़ा तार्किक और कानूनी समझ रखता है, वह इसे  कानून-व्यवस्था के चश्मे से देख रहा है। यह तबका यह मानता है कि पुलिस अभिरक्षा में हुई हत्या सीधे तौर पर न्यायपालिका और संविधान को चुनौती है। 

दोनों तरह की मीडिया की अपनी दलीलें हैं। लेकिन इसके अलावा भी इस हत्याकांड के कुछ तहखाने और तिलिस्म और भी हैं, जो इसके प्रसारण के आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। इसमें सत्तापोषित राजनीतिक मकसद तो है ही, साथ में गोदी मीडिया की गुलामगीरी भी है।

पुलिस अभिरक्षा में हथकड़ी में बंधे माफिया-भाइयों (अतीक-अशरफ) की तीन बदमाश छोकरों द्वारा सरेआम हत्या की दृश्यावली में एक भयावह मगर नाटकीय प्रस्तुति है। बोलते-बोलते कनपटी में गोली लगना, माफिया-भाइयों का जमीन पर गिरना, अंधेरे-उजाले की चकाचौंध में गोलियां की तड़तड़ाहट और हत्यारे छोकरों का ‘वीरोचित’ जयश्रीराम का उद्घोष और फिर नाटकीय आत्मसमर्पण। पूरा रंगमंच एक आकार लेता है।

दृश्य माध्यमों के जानकार और कनाडाई दार्शनिक मैक लुहान का मानना है कि जहां समाज का मानस अधकचरा होता है और तार्किक समझ का अभाव होता है, वहां ऐसी स्थिति बन जाती है, जब माध्यम खुद ही संदेश ( medium is message) बन जाता है। जैसाकि आस्कर वाइल्ड का भी मानना था कि मीडिया इस मामले में एकाधिकार बना लेता है कि वहां आपूर्ति ही मांग हो जाती है।

इसमें अगर यह जोड़ दिया जाए अगर किसी भी देश की मीडिया सामाजिक और नैतिक दायित्व से खुद को विमुख कर ले तो स्थिति कहीं ज्यादा फूहड़ और जनविरोधी हो जाती है। और, कहने की जरूरत नहीं है कि भारत में सभी तरह की मीडिया का बहुलांश न सिर्फ पटरी से उतर गया है, बल्कि तमाम मामलों में सत्ता का डमरू बन कर रह गया है। यह इस देश में कारपोरेटी मीडिया हाउसों के पतन का स्वर्णकाल  है।  

जाहिर है, अतीक-अशरफ हत्याकांड या मुठभेड़कांड को गोदी मीडिया द्वारा निरंतर प्रसारित करने का मकसद दर्शकों को सूचित करना कम, उन्हें बरगलाना ज्यादा है। इसके पीछे एक मकसद जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक द्वारा ‘द वायर’ के करन थापर को दिए गए इंटरव्यू के प्रसारण को बाधित करना भी है। इस इंटरव्यू में मलिक ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर कई विस्फोटक खुलासे किए हैं। इसी इंटरव्यू में मलिक ने कहा है कि मोदी ने पुलवामाकांड (जिसमें चालीस मूल्यवान  सीआरपीएफ जवानों की मौत हो गई थी) पर उन्हें चुप रहने को कहा गया था।

मलिक ने यह भी कहा है कि मोदी को भ्रष्टाचार से कोई खास गुरेज नहीं है। अगर सचमुच इस इंटरव्यू की तासीर आमजन तक पहुंच गई तो दिल्ली की गद्दी को खतरा पैदा हो जाएगा। तो मुख्यधारा मीडिया का बड़ा हिस्सा मोदी पर हुए आघात की धार को मंद करने और उसे फैलाने से रोकने की जुगत में लगा है। 

गोदी मीडिया का एक मंतव्य अतीक-अशरफ हत्याकांड को ‘जैसे को तैसा’ बता कर इसलिए प्रचारित किया जा रहा है, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी और संघ का एजेंडा भी यही है। अतीक माफिया होने के साथ-साथ मुसलिम भी है। इसलिए गोदी मीडिया के लिए यह सुविधाजनक हो गया है। गोदी मीडिया का सरोकार अगर माफिया-मर्दन से होता तो समाजवादी पार्टी द्वारा जारी एक दर्जन ठाकुरजाति के माफियाओं को लेकर वह कोई बहस या कार्यक्रम भी चलाता। लेकिन, उसमें उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है।

यही नहीं, उत्तर प्रदेश सरकार को भी माफिया तत्त्वों से कोई परहेज नहीं है। वह उतनी की कार्रवाई अमल में ला रही है, जितने से उसे राजनीतिक लाभ मिलने की आशा है। लेकिन, इसका दूसरा पहलू यह भी है कि इसी के साथ मुसलिम समाज का भी ध्रुवीकरण हो रहा है। जितनी बार अतीक-अशरफ को गोली लगने की दृश्यावली प्रस्तुत की जा रही है, उतना ही ध्रुवीकरण के आसार उधर भी ज्यादा हैं।

अतीक-अशरफ की हत्या को गोदी मीडिया द्वारा एक खास अंदाज और हिलकोरें लेती अदाओं के साथ जिस तरह परोसा जा रहा है, उसका एक बड़ा मकसद यह साबित करना है कि चूंकि अतीक-अशरफ मुसलमान थे, इसलिए यह भी मान लेना चाहिए कि मुसलमान बदमाश होते हैं।

यह कहना गैरजरूरी है कि लंबे समय से  प्रायोजित तरीके से निरंतर और सहस्रमुखों से सहस्र बार यह नैरेटिव ( धारणा) गढ़ने की कोशिश चल रही है। अतीक उसी नैरेटिव की एक और कड़ी है। यह वही पुराना नैरेटिव है कि सभी मुसलमान आतंकी तो नहीं होते, लेकिन हर आतंकी मुसलमान होता है। 

अतीक-अशरफ की हत्या को लेकर गढ़ी जा रही नई निर्मित उसी राजनीति के थोड़े सरलीकृत विस्तार का नया पैंतरा है। गोदी मीडिया, लगातार यह साबित करने पर तुला हुआ है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में तो सिर्फ तीन माफिया हैं, शहाबुद्दीन (जिसकी तिहाड़ जेल में मौत हो चुकी है), अतीक-अशरफ (जिसे हाल में पुलिस अभिरक्षा में किराए के शूटरों द्वारा मारा जा चुका है) और गाजीपुर के अंसारी बंधु (अफजाल अंसारी और मुख्तार अंसारी, जिसमें मुख्तार और उसका बेटा जेल में है।)

अंग्रेजी और हिंदी गोदी मीडिया को उत्तर प्रदेश और बिहार सरकार में सूचीबद्ध सौ से अधिक माफिया दिखाई नहीं पड़ते, क्योंकि मीडिया हाउसों के राजनीतिक आकाओं को यही पसंद है कि निशाने पर मुसलमानों को ही रखना है। जबकि, समूची माफिया-सूची में मुसलमानों का प्रतिशत आठ या दस से ज्यादा नहीं है।

अतीक की गलती यह तो थी कि वह अपराधी था, लेकिन उससे भी बड़ा उसका अपराध (आज के संदर्भ में) मुसलमान होना भी था। अगर अतीक-अशरफ हत्याकांड के बाद आम जन यह सवाल उठा रहा है कि केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे आशीष मिश्रा के साथ रियायत क्यों बरती गई तो इस सवाल का जवाब उत्तर प्रदेश सरकार के आकाओं के पास नहीं है।

आशीष मिश्रा ने तो हजारों की भीड़ में अपने एसयूवी से प्रतिशोध लेने और लोगों में दहशत फैलाने के लिए चार आंदोलनकारी किसानों की खुलेआम हत्या कर दी थी। इस हत्याकांड में आशीष मिश्र पर कार्रवाई करने के बजाय उत्तर प्रदेश से लेकर केंद्र सरकार कातिलों को बचाने में जुटी रही, जब तक सुप्रीम कोर्ट ने दखल नहीं दिया। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में गठित विशेष जांच टीम की विवेचना पर हुई कार्रवाई में आशीष मिश्रा समेत दूसरे अपराधी जेल की सीखचों तक पहुंचाए जा सके।

यहां उत्तर प्रदेश सरकार के बड़बोले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का दोहरा मानदंड साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है। अगर कोई मुख्यमंत्री यह सोचता है कि कानून-व्यवस्था को किसी तिकड़म या प्रतीकात्मक कार्रवाई के जरिए ठीक किया जा सकता है तो यह उसकी भूल ही नहीं, आपराधिक पक्षपात भी है।

अतीक-अशरफ की हत्या में उत्तर प्रदेश सरकार दो मोर्चे पर नाकाम है। पहला, राज्य पुलिस  न्यायालय को दी गई वचनबद्धता का पालन नहीं कर सकी है, जिसके लिए न्यायालय निश्चित ही सरकार से जवाब तलब करेगा। अगर सचमुच लोक-व्यस्था में न्यायपालिका को भी अपनी छवि निष्पक्ष और बेदाग रखनी है तो उसे इस मामले में लीपापोती करने के बजाय संबंधित पुलिस अधिकारियों से सख्त लहजे में जवाब तलब करना ही होगा, वर्ना यह संदेश फैलने में देर नहीं लगेगी कि अदालत भी पक्षपात की दोषी है।

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित न्यायिक जांच समिति और विशेष जांच टीम का गठन भी मोटे तौर पर खानापूरी ही साबित होगी, क्योंकि जैसा कि ऐसी जांच समितियों के नतीजों का इतिहास है, वह सरकार के मनोनुकूल रहने का रहा है। ऐसे में बेहतर तो यही है कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट याचिकाओं के जरिए या स्वतःसंज्ञान लेकर ही कोई निष्पक्ष जांच अपनी निगरानी में कराए, वर्ना जांच और उसके नतीजे अभी से सबको पता हैं।

एक बड़ा सवाल राज्यों में होने वाले एनकाउंटर ( मुठभेड़) नीति को लेकर भी है। संविधान का आदर्शवादी चेहरा कहता है कि किसी भी राज्य में एक भी आरोपी, यहां तक कि अपराधी की हत्या पुलिस द्वारा या अन्य किसी धरपकड़ में वर्जित है। जबकि, इसका व्यावहारिक पहलू यह है कि देश का कोई भी कल्याणकारी राज्य ऐसा नहीं है, जहां कमोबेश एनकाउंटर में आरोपी या अपराधी की हत्या पुलिस द्वारा न की जाती है।

फिलहाल, उत्तर प्रदेश में भाजपा के शासन में आने के बाद यह राज्य मुठभेड़ में हत्याओं का नया कीर्तिमान स्थापित कर चुका है। यहां तक एनकाउंटर का शाब्दिक अर्थ ही पुलिस द्वारा हत्या हो गई है, जबकि इसके हिंदी पर्याय मुठभेड़ से थोड़ा अलग अर्थ निकलता है। इससे कम से इतना तो साबित होता है तो कि शायद दोनों पक्षों बलप्रयोग हुआ है। सरकारी भाषा की तोतारटंत इबारत यही रहती है कि बदमाश ने हमला किया और बदले में पुलिस ने आत्मरक्षा में गोली चलाई, जिसमें अमुक बदमाश मारा गया।

भारतीय न्याय व्यवस्था में शायद ही कोई इतना बड़ा झूठ होगा, जो कामकाजी तरीके से ‘सच का बाना’ धारणकर इजलास-दर-इजलासी लोगों को मुंह चिढ़ाते सिरमौर बनकर घूमता होगा। सबको, पता होता है कि सौ में निन्यानबे एनकाउंटर फर्जी ही होते हैं। फर्जी का मतलब है कि जिसे भी मारा जाता है, उसे अक्सर ढेर सारे पुलिस वाले मिलकर कहीं से पकड़ते हैं और फिर किसी सुनसान, वीराने, टीले, बगीचे, खेत में, झाड़ी में या सड़क के किनारे मारा जाता है। बाकी सब नाटक होता है। मीडिया को बुलाना, फोटो खिंचाना, खबरें मैनेज करना, मजिस्ट्रेटी जांच सब पूर्वलिखित पटकथाएं होती हैं। 

फर्जी एनकाउंटर को हिंदी दर्शकों ने पहली बार शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन ‘ फिल्म में देखा था, जहां अपराधी सरगना बाबा मुस्तकीम को पुलिस उसके पीछे दोनों हाथ बांधकर रेतीले मैदान में ले जाती है। फिर उसे भागने के लिए कहती है। जब भागता है तो पुलिस गोली मारती है। तबसे सारे एनकाउंटरों की कथा-पटकथा थोड़े हेरफेर के बाद एक ही रहती है।

एनकाउंटर को लेकर लंबे समय से न्यायविद,कानूनविद, समाजशास्त्री, मानवाधिकार कार्यकर्ता सवाल उठाते रहे हैं और इसे न सिर्फ मानवविरोधी बल्कि कल्याणकारी राज्यविरोधी कार्रवाई भी मानते हैं। लेकिन, हकीकत यही है कि भारत जैसे देश में कानून के चक्करदार दरवाजे, तारीख पर तारीख जैसी व्यवस्था और दशकों तक चलनेवाले मुकदमों की लाभ अपराध उठाते रहते हैं। इसीलिए, राज्य सरकारें समय-समय पर असामाजिक तत्वों के ‘सफाए’ का अभियान चलाती रहती हैं।

आमतौर पर छोटे-मोटे अपराधी रोजाना ही निपटाए जाते हैं। अखबारों में सिंगल कालम खबर तक नहीं छपती। हां, जब कोई बड़ा मामला बनता है तब सबकी नजर इस तरफ जाती है। लेकिन, तब भी बड़े स्तर पर एनकाउंटर नामक नितांत गैरकानूनी और आपराधिक कार्यप्रणाली पर खुले-खजाना कोई बातचीत को तैयार नहीं है। न्यायपालिका के पास आधी-अधूरी अवसंरचना ( इन्फ्रास्टक्चर) का बहाना है तो राज्य सरकारों के पास इच्छाशक्ति की कमी और बजट का रोना है। ऐसे में एनकाउंटर को न्यायपालिका का ‘बाइपास’ बना दिया गया है। जो फैसले अदालतें पचास साल में नहीं कर पातीं, उसे पुलिस दो मिनट में कर देती है।

लेकिन, इस अंधेर व्यवस्था में न्याय की जो हत्या होती है, उसकी क्षतिपूर्ति असंभव ही होती है। एक लघुकथा है कि किसी मुख्यमंत्री ने एक बार एक गांव में जाकर कहा था कि उन्होंने समाज के दस फीसद अपराधियों को ठिकाने लगा दिया, तब एक बूढ़ी औरत ने जवाब दिया था कि उसका बेटा तो सद-फी-सद ठिकाने लगा दिया गया है, बिना किसी रिपोर्ट, सुनवाई, अदालत और फैसले के।

इस देश के सारे एनकाउंटरों का सच यही है। इस पर सुप्रीम कोर्ट और संसद को विचार करना होगा, वर्ना यह विनाश का खेल चलता रहेगा। क्योकि एनकाउंटर, इंसाफ तो कतई नहीं है। यह वह शार्टकट है, जो अपूर्ण, अपर्याप्त और जंगखुर्दा न्यायपालिका के विकल्प के तौर पर अंगीकार कर लिया गया है। यह खतरनाक है, हर नागरिक के लिए और हर कल्याणकारी राज्य के लिए।

(राम जन्म पाठक पत्रकार, कवि और कथाकार हैं।)

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