मोदी सरकार के बजट से न तो अर्थव्यवस्था को गति मिलने वाली है, न आम जनता को राहत

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बजट में 12 लाख तक की आय वाले मध्य वर्ग को जो राहत दी गई है उस पर अपनी पीठ ठोकते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि इससे यह साबित हो गया है भाजपा मध्य वर्ग का सम्मान करती है। उन्होंने कहा कि हमारे सोच के विकसित भारत के चार स्तंभ हैं युवा, ग़रीब, किसान और महिलाएं। हमने गरीबों को मुफ्त राशन, स्वास्थ्य सेवाएं और मकान उपलब्ध कराया है।

यह साफ है कि मध्य वर्ग के ऊपर मोदी जी की यह जो दया दृष्टि पड़ी है, उसके पीछे एक तात्कालिक कारण दिल्ली का चुनाव है। उन्होंने दावा किया कि यह देश के इतिहास का सर्वाधिक मिडिल क्लास फ्रेंडली बजट है। उधर आठवां वित्त आयोग आ रहा है, यह दांव पहले ही चला जा चुका है। उन्होंने अपनी आखिरी रैली में 11साल की आप-दा सरकार को हटाने का भी आह्वान किया।

दरअसल मध्य वर्ग पर सारी पार्टियां केंद्रित कर रही हैं, हालांकि आयकर अधिनियम अलग से आना अभी बाकी है। उससे वास्तविक स्थिति स्पष्ट होगी कि इस बजट से आयकर छूट में सचमुच किसको क्या मिलेगा। यह जब आयेगा तब तक दिल्ली के वोट पड़ चुके होंगे। आम आदमी पार्टी भी मध्यवर्ग के लिए अलग से एक घोषणापत्र ले आई है।

जाहिर है राजधानी दिल्ली में मध्यवर्ग के कर्मचारी एक बड़ा राजनैतिक वोट बैंक बन चुके है। सरकारी बाबू भी सरकार की हां में हां मिला रहे हैं कि इससे अर्थव्यवस्था को नया आवेग मिलेगा, वित्त सचिव का यह कहना है कि जनता के कुछ हिस्सों में मौजूदा ‘टैक्स दरों को लेकर नाराजगी थी, उस पर ध्यान अपेक्षित था, इस बजट में उनकी अपेक्षाओं को पूरा किया गया है।उन्होंने कहा कि इससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ राजस्व की हानि होगी।

एक अन्य महत्वपूर्ण फैसले में कुछ उत्पादों पर लगने वाले भारी टैक्स जो 150%, 125%,100% तक था उसे खत्म/कम कर दिया गया है। इन टैरिफ दरों के कारण ट्रंप ने भारत को चीन की तरह tax abuser की श्रेणी में रखा था।

शायद सरकार को यह लगा कि उसकी ऐसी छवि बन रही थी कि वह ग़रीबपरस्त है और मध्य वर्ग की उपेक्षा कर रही है। इसलिए पहले से अलग राह पर चलते हुए अबकी बार मध्यवर्ग को खुश करने वाला बजट पेश किया गया। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में 7 बार मध्यवर्ग की चर्चा की।

उसके ठीक पहले राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में आठ बार मध्य वर्ग का जिक्र किया। वित्तमंत्री ने मध्य वर्ग को विकास का इंजन और भारत के विकास की ताकत बताया था राष्ट्रनिर्माण में उसकी भूमिका का जिक्र किया। दरअसल 12 लाख तक जीरो आयकर स्लैब घोषित कर वेतनभोगी मध्यवर्ग के बड़े हिस्से को सरकार ने कवर कर लिया। बताया जा रहा है कि इससे उन्हें अस्सी हजार तक का फायदा हो सकता है।

यह देखना रोचक होगा कि दिल्ली विधानसभा के चुनावों पर इसका क्या असर पड़ता है !

CPM के बयान में ठीक ही कहा गया है कि मौजूदा बजट भारत की जनता के साथ क्रूर विश्वासघात है। अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्रों में छाई मंदी और मांग की कमी का मूल कारण मूलतः यह है कि व्यापक बेरोजगारी, घटती मजदूरी और महंगाई के कारण जनता के पास क्रयशक्ति का अभाव है।

लेकिन सरकार एक छोटे से उच्चतर वर्ग को कुछ टैक्स छूट देकर इस समस्या को हल करना चाहती है। जबकि खर्च में कटौती की जा रही है। इससे भारतीय समाज में पहले से ही मौजूद गैर बराबरी और बढ़ जाएगी।

बड़े कॉरपोरेट घरानों पर टैक्स बढ़ाकर सरकारी खर्च बढ़ाने की बजाय, जिससे व्यापक जनसमुदाय को बड़े पैमाने पर रोजगार और न्यूनतम मजदूरी मिल सके, सरकार उसका ठीक उल्टा कर रही है। खाद्य सब्सिडी, कृषि, शिक्षा, ग्रामीण विकास, सामाजिक क्षेत्र, शहरी विकास सबको कटौती का सामना करना पड़ा है और इनके मद में आबंटन लगभग पिछले साल के बराबर ही है।

अगर मुद्रास्फीति को जोड़ लिया जाय तो सभी आबंटन stagnant हैं और जीडीपी के प्रतिशत के रूप में उनमें कमी की गई है। समाज के सुपर रिच तबकों और बड़े कारपोरेट घरानों पर टैक्स लगाकर सरकारी निवेश को बढ़ाने और रोजगार सृजन करने तथा हमारी जनता को न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित करने की बजाय सरकार एकदम उल्टी दिशा में चल रही है।

खाद्यान्न के लिए पिछले बजट में आबंटन 2.05 लाख करोड़ था, revised एस्टीमेट में वह 7830 करोड़ घट गया था। इस बार बजट में प्रावधान 2.03 लाख करोड़ है जो हाल के बजट प्रावधान से भी कम है। इसी तरह शिक्षा के लिए पिछली बार बजट 1.26 लाख करोड़ था लेकिन revised एस्टीमेट से पता लगता जैसे भी 11584 करोड़ कम खर्च किया गया जबकि अबकी बार बजट प्रावधान केवल 3012 करोड़ अधिक है। यह मात्र 2.3% की वृद्धि है, अगर मुद्रास्फीति को जोड़ लिया जाय, तो वास्तविक अर्थों में कोई वृद्धि नहीं हुई है। इसी तरह स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च भी revised estimate पिछले साल से कम है।

कृषि में बजट 1.5 लाख करोड़ था लेकिन सरकार ने 10992 करोड़ कम खर्च किया। एलपीजी सब्सिडी में पिछ्ले साल के 14.7 हजार करोड़ से घटाकर इस बार के बजट में 12 हजार करोड़ हो गया है। सरकार के पाखंड का आलम यह है कि मनरेगा जो कि ग्रामीण गरीबों की एक तरह से जीवन रेखा है, उसका बजट 86000 करोड़ पर ही टिका हुआ है जबकि उसकी मांग लगातार बढ़ती जा रही है। यह न केवल गरीबों की आजीविका पर क्रूर आघात है बल्कि 100 दिन के काम के उनके अधिकार पर भी हमला है।

प्रो प्रभात पटनायक कहते हैं “कंसल्टेंसी फर्मों से लेकर वित्तीय प्रेस तक, “प्रतिष्ठान” की आवाज़ों का एक समूह भारतीय अर्थव्यवस्था की धीमी होती विकास दर को पुनर्जीवित करने के साधन के रूप में घरेलू खपत को बढ़ावा देने की मांग कर रहा है।

इस कोरस में शामिल होने वाला नवीनतम व्यक्ति भारतीय रिज़र्व बैंक है जिसने अपने नवीनतम बुलेटिन में अर्थव्यवस्था में “उद्यमियों” की “जीवंत आत्माओं” को फिर से जगाने के लिए खपत को बढ़ावा देने के लिए कहा है। इस कोरस के पीछे की चिंता के बारे में दो बिंदु ध्यान देने योग्य हैं: पहला, अगर भारत की विकास दर, जिसे मूल रूप से 2024-25 में 7 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया गया था, उसे अब घटा दिया गया है।”

कोरस के पीछे की चिंता के बारे में दो बिंदुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए: पहला, अगर भारत की विकास दर, जो मूल रूप से 2024-25 में 7 प्रतिशत होने का अनुमान है, अब केवल 0.5 प्रतिशत कम होने की उम्मीद है, तो यह संभवतः इस तरह के हलचल की व्याख्या नहीं कर सकता है। आखिरकार 6.5 प्रतिशत किसी भी मानक से जीडीपी वृद्धि की एक उच्च दर है, और इसे “Animal Spirit” के संकेत के रूप में नहीं माना जा सकता है जो “प्रतिष्ठान” अर्थशास्त्रियों को चिंतित करना चाहिए।

इस तरह की चिंता से पता चलता है कि यह संपूर्ण विकास दर गणना, यहां तक ​​​​कि सामान्य जीडीपी अवधारणा के दायरे में भी, जो खुद बहुत ही दोषपूर्ण है, एक बहुत बड़ा अतिशयोक्ति दर्शाती है। दूसरा, जैसा कि आरबीआई स्पष्ट करता है, उसकी चिंता शहरी मध्यम वर्ग की खपत के बारे में है, न कि कामकाजी लोगों की खपत के बारे में। जिस खपत को बढ़ावा देने की बात वह कर रहा है, वह शहरी मध्यम वर्ग की खपत है।

यह साफ है कि इस बजट से न तो अर्थव्यवस्था को गति मिलने वाली है, न ही आम जनता और गरीबों को कोई राहत मिलने वाली है। यह मूलतः समाज के मध्यम और उच्च वर्गों के हितों का पोषण करने वाला है।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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