Friday, March 29, 2024

मोदी जी! दोहरा चरित्र जीना, अधम और निर्लज्जता है

घर में कुछ और बाहर कुछ। घर में गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष सबको रावण के दस सिर की तरह, और बाहर बिना गांधी चर्चा के इनकी यात्रा ही नहीं पूरी होती है। घर में यह गांधी हत्या को गांधी वध कहते हैं, गोडसे का बयान मैंने गांधी को क्यों मारा, का बार-बार उल्लेख करते हैं, गोडसे और आप्टे की मूर्ति बनाते हैं, गांधी हत्या की मॉक ड्रिल करते हैं, और बाहर बापू बापू कहते इनकी जुबान नहीं थकती है। ‘अधम निर्लज्ज लाज नहिं तोही !’ रामचरितमानस की यह चौपाई बरबस याद आ गयी।

प्रधानमंत्री, नरेन्द्र मोदी जी अमेरिका में क्या कह रहे हैं, उसे यहां हिंदी में पढ़ें, “ वैश्विक चुनौतियों का सामना विज्ञान सम्मत, तर्कपूर्ण और प्रगतिशील सोच से ही किया जा सकता है “!पूरे भारत में न तो वे और उनकी विचारधारा के लोग न तो सोच में वैज्ञानिक हैं, न ही चिंतन में उनके तार्किकता है, न शासन में लोककल्याण की भावना है और न वे आचरण में सहिष्णु हैं।

संघ, भाजपा का हर कदम देश और जनता को बांट कर देखने के लिये अभिशप्त है। इनका हर बयान समाज को बांटने वाला, और हर कानून केवल पूंजीपतियों के हित को दृष्टि में रख कर बनाने की मानसिकता वाला रहता है, जब वे घर में रहते हैं। पर बाहर, वे उदारता का लबादा ओढ़ लेते हैं। जबर्दस्ती ओढ़ा हुआ लबादा, बार-बार सरकता है, थामे नहीं थमता है, असहज तो करता ही है, पर वे भी क्या करें, जब विचार दारिद्र और वैचारिक धुंधता हो तो ऐसा लबादा, दिखाने के लिये ही सही, ओढ़ना पड़ता ही है। दोहरा चरित्र जीना ही पड़ता है !

इनका राष्ट्रनिर्माण, और चरित्र निर्माण क्या है, यह आज तक आरएसएस के मित्र नहीं बता पाए। कभी उन्हें सबका डीएनए एक लगने लगेगा, कभी वे, सबका भारतीयकरण करने लगेंगे तो कभी, सभी जो इस देश में रहते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, उन्हें हिंदू लगने लगते हैं ! आज तक यह संघी मित्र तय ही नहीं कर पाए कि, वे कहना और करना क्या चाहते हैं। गांधी, नेहरू, पटेल, आज़ाद, सुभाष को न मानिये। कांग्रेस की नीतियों की खूब आलोचना भी कीजिये। कोई भी व्यक्ति या विचारधारा, आलोचना, बहस, समीक्षा से परे नहीं है। संघ और भाजपा भी अपनी विचारधारा के अनुसार, सरकार चलाने के लिये, स्वतंत्र है, पर हे आरएसएस के मित्रों आप यही बता दीजिए कि आप कैसा भारत चाहते हैं ?

वैसा, जैसा, मोदी जी, अमेरिका में दिए इस बयान में कह रहे हैं, या वैसा जो आप लोग, एक दूसरे के कान में फूंकते हैं और अपने समूह में एक दूसरे से बतियाते हुए कहते हैं ? मैं मोदी जी के इस बयान से सहमत हूँ, पर मुझे संशय है कि, मोदी जी यह बात, घर में भी इसी प्रकार से कहेंगे, जैसा वे बाहर कह रहे हैं। क्योंकि उन्हें भी घर में श्मशान और कब्रिस्तान ही नज़र आने लगता है। वे भी कपड़ों से पहचानने का नुस्खा बताने लगते हैं। ‘घरे बाहिरे’ में सोच और मानसिकता का यह अंतर अब उन्हें सच में, हास्यास्पद बना दे रहा है। उन्हें बाहर यानी विदेश में, गांधी,नेहरू के वे सब उद्धरण सुनने पड़ रहे हैं, जिनसे वे घर में परहेज करते हैं।

जब सरकार को यह रहस्य पता है कि, ‘वैश्विक चुनौतियों का सामना, वैज्ञानिक सोच और प्रबुद्ध तार्किकता के साथ ही किया जा सकता है’ तो सरकार ने साल 2014 में सत्ता पाने के बाद इस सोच के अनुरूप, किया क्या है, यह बात सरकार से पूछी जानी चाहिए ? क्या हम उम्मीद करें कि, जब प्रधानमंत्री जी स्वदेश वापस लौट कर आएंगे तो वे अपने इसी सुभाषित के अनुरूप हम सबको एक नया मार्ग दिखाएंगे ? उनकी सोच, मानसिकता और कलेवर बदला हुआ होगा ? अगर ऐसा हुआ तो यह परिवर्तन सुखद होगा।

राष्ट्रवाद, एक भावना है जो, किसी को भी, उसके मन में, अपने देश के प्रति समर्पण का भाव जगाती है। इसी उदात्त भावना ने, देश को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्त होने के लिये अनुप्राणित किया और गांधी, भगत सिंह, सुभाष बाबू ने अपनी अपनी सोच से, इस अहंकारी और उपनिवेशवादी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिये, अपना सबकुछ समर्पित कर दिया। लाखों ज्ञात, अज्ञात, अल्पज्ञात, जैसे लोगों की आज़ाद भारत में सांस लेने की मनोकामना पूरी हुयी। स्वाधीनता संग्राम को इसीलिए, राष्ट्रवादी आंदोलन कहा जाता है, क्योंकि वह धर्म, जाति, क्षेत्र की सीमाओं से परे था। पर यहीं एक सवाल उठ खड़ा होता है कि, आज बात बात पर खुद को राष्ट्रवादी कहने वाले आरएसएस के लोग उस समय, जब आज़ादी की लड़ाई, गांव, देहात के खेतों, सड़कों से लेकर बर्मा की सीमा तक पर लड़ी जा रही थी, तब कहां थे ? अफसोस, वे अंग्रेजों और जिन्ना के साथ थे। क्या तब राष्ट्रवाद की भावना उनमें हिलोर नहीं मार रही थी ?

गांधी, भगत सिंह, सुभाष में मतभेद तब भी थे और कम नहीं थे। यह मतभेद, उनमें, स्वाधीनता संग्राम के तरीक़ों पर, अपनी अपनी विचारधारा के आधार पर, ब्रिटिश सरकार के प्रति रणनीति को लेकर थे, पर ये सब महानुभाव, इस बात पर एकमत थे कि, अंग्रेजों को भारत से भगा दिया जाना चाहिए। पर उसी समय 1925 में गठित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), अंग्रेजों को भारत से भगाने के सवाल पर क्यों नहीं, इनके साथ खड़ा था ? अगर वह गांधी से असहमत भी था तो, उसने, स्वाधीनता संग्राम के उस महायज्ञ में, अलग से अपना कोई आंदोलन क्यों नही छेड़ा ? 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में वे अंग्रेजों के साथ क्यों बने रहे ? जिन्ना के साथ हमख़याल होने की उनकी क्या मजबूरी थी ? यह सवाल संघ के मित्रों से ज़रूर पूछा जाना चाहिए।

राष्ट्रवाद जब भावना से अलग हट कर एक राजनीतिक कलेवर में किसी राजनीतिक वाद का रूप ले लेता है तो, वह देश और समाज के लिये खतरनाक भी हो जाता है। राष्ट्रवाद या सावरकर और जिन्ना मार्का राष्ट्रवाद, एक घातक और उन्मादी राष्ट्रवाद है। दरअसल, राष्ट्रवाद कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है। यह मूलतः यूरोपीय फासिज़्म के समय की विकसित सोच है जो श्रेष्ठतावाद पर आधारित है। श्रेष्ठतावाद, हर दशा में भेदभावमूलक समाज का निर्माण करता है। श्रेष्ठतावाद, समरसता का विरोधी है। यह धर्म, जाति की श्रेष्ठतावाद में समाज को बांटे रखता है। इसी कौमी श्रेष्ठतावाद की सोच पर जिन्ना और सावरकर का द्विराष्ट्रवाद खड़ा हुआ और उसका परिणाम, भारत विभाजन के रूप में हुआ।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles