मोदी जी आप चाहे सेंट्रल विस्टा बनवा लीजिए या फिर उसमें अपने रहने के लिए महल, मौत के बाद दिल्ली के राजघाट पर आप को दो गज जमीन भी नहीं मिलेगी। आप ने हिंदुस्तान की जो तस्वीर बना दी है उसकी यही सजा है। मुल्क की इस हालत के लिए देश के तीन लोग जिम्मेदार हैं। और उनका पब्लिक ट्रायल होना ही चाहिए। आइये आपको बताते हैं ये तीन लोग कौन हैं? इसमें पहला नाम देश की सर्वोच्च ताकतवर कुर्सी पर बैठे शख्स का है। यानी मोदी जी। दूसरे नंबर पर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे एसए बोबडे आते हैं और तीसरा नाम इस कड़ी में हाल में रिटायर हुए मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा का है।
यह बात किसी से छुपी नहीं है कि पीएम मोदी को कोरोना की इस दूसरी जानलेवा लहर की सूचना चुनाव में जाने से पहले मिल गयी थी। और यह कहीं और से नहीं बल्कि खुद उनके द्वारा बनायी गयी वैज्ञानिकों, चिकित्सकों और विशेषज्ञों की कमेटी ने उन्हें दिया था। जिसकी रिपोर्ट में कहा गया था कि तीन महीने बाद हालात बेकाबू हो सकते हैं अगर कोरोना के नियंत्रण की व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया गया तो। यह रिपोर्ट सबसे पहले रायटर ने प्रकाशित की थी। उसके बाद वायर में वरिष्ठ पत्रकार करन थापर ने कमेटी के एक सदस्य का साक्षात्कार किया और उसने खुले कैमरे के सामने इस बात को स्वीकार किया। लेकिन मोदी तो मोदी हैं। वह हैं तो कुछ भी मुमकिन है। उन्होंने पूरी रिपोर्ट को ही अपनी कुर्सी के नीचे दबा दी। न तो किसी को इसके बारे में पता चला और न ही किसी तरह की भनक लगी।
अहम बात यह है कि अभी पांच राज्यों के चुनाव की प्रक्रिया शुरू ही हुई थी कि महाराष्ट्र में कोरोना की दूसरी वेव ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। और एकाएक हालात बेकाबू होने लगे थे। विदर्भ वाले इलाके में इसके बदले रूप का भी पता चल गया था। बावजूद इसके केंद्र सरकार नहीं चेती और उसने इन जमीनी सच्चाइयों के सामने आने के बाद भी एक बार फिर रिपोर्ट पर गौर करना जरूरी नहीं समझा। क्योंकि मोदी और शाह के ऊपर सत्ता का नशा जो सवार था। उन्हें किसी भी हालत में किसी भी तरीके से कुर्सी चाहिए थी। पांच राज्यों के चुनाव में उन्हें पश्चिम बंगाल में बड़ी जीत हासिल कर हिंदुत्व का झंडा फहराना था। उन्हें किसी भी तरीके से दीदी को अपदस्थ करना था। जैसे इसको लेकर उनके भीतर एक नशा हो। और सत्ता के उसी नशे में न तो उन्हें कोरोना पर विशेषज्ञों की रिपोर्ट याद रही न ही उसका कहर। ऐसा नहीं है कि मोदी को पता नहीं था या फिर उन्होंने रिपोर्ट को लेकर कोई लापरवाही की थी। दरअसल यह सब कुछ एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया था। जिस तरह से देश के स्तर पर किसानों की घेरेबंदी बढ़ रही थी और उसके चलते न केवल मोदी का जीना मुहाल हो गया था बल्कि उनकी रही सही साख भी रसातल में पहुंच गयी थी।
ऐसे में उसे फिर से उबारने या फिर कहिए गिरती साख की बहाली के लिए चुनावी जीत ही एकमात्र विकल्प दिखा। मोदी-शाह को लगा कि अगर पश्चिम बंगाल जीत लेंगे तो उनके लिए किसान आंदोलन पर पलीता लगाना आसान हो जाएगा। क्योंकि उसके जरिये जनता को बताना आसान हो जाएगा कि जनमत किसके साथ है और किसानों के इतने दिनों के आंदोलन के बाद भी जनमत पर उसका कोई असर नहीं पड़ा। और फिर पालतू मीडिया और कारपोरेट की पूंजी से एक बार फिर अपनी खोयी साख को बहाल करने में मदद मिल जाएगी। इसी लिहाज से उन्होंने पश्चिम बंगाल में अपना पूरा संसाधन झोंक दिया। कारपोरेट की दौलत थी और मीडिया का साथ। पीएम के नेतृत्व में पूरा दिल्ली निजाम कोलकाता जीतने के लिए उतर पड़ा। और पूरे चुनाव को प्लासी के मैदान में बदल दिया। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि जैसा आप सोचते हैं चीजें उसी तरह से आगे नहीं बढ़तीं। यह पूरा दांव उल्टा पड़ गया और मोदी को मुंह की खानी पड़ी। जिसका नतीजा यह है कि वह अभी भी उसके आघात से उबर नहीं पा रहे हैं।
दूसरे सज्जन जिनके पब्लिक ट्रायल की बात है वह बोबडे हैं। बोबडे वह शख्स थे जिन्हें संविधान ने सरकार की गल्तियों पर टोकने और जरूरत पड़ने पर उस पर हाथ रखने का अधिकार दिया हुआ था। लेकिन यहां बिल्कुल उल्टा हुआ। सरकार अगर कोई गैर संवैधानिक या फिर गैर कानूनी बात कर रही होती थी तो बोबडे न केवल उसका साथ देते थे बल्कि सरकार की हर तरीके से रक्षा करते थे। यहां तक कि कई बार ऐसा हुआ जब हाईकोर्ट के फैसले केंद्र के खिलाफ आए या फिर उसमें केंद्र की खिंचाई की गयी तो सुप्रीम कोर्ट ने उस पर रोक लगा दिया। एनआरसी से लेकर लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की हृदय विदारक स्थिति के दौरान उनका एक ही पक्ष था वह यह कि उन्हें केंद्र और उसके फैसलों के साथ मजबूती से खड़े रहना है। यहां तक कि प्रवासी मजदूरों के लिए बस अड्डों में खड़ी बसों या फिर यार्ड में मौजूद ट्रेनों को भी चलाने की इजाजत सुप्रीम कोर्ट ने नहीं दी। इसका नतीजा यह रहा कि हजारों मजदूर पैदल चलते हुए रास्तों में अपने दम तोड़ दिए। और अभी जबकि देश में कोरोना के खतरे के साये में चुनाव को लेकर बहस शुरू हुई तो उसका संज्ञान लेने की जगह वह हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा।
अब बात तीसरे सज्जन की। सुनील अरोड़ा। बीजेपी के चहेते ब्यूरोक्रैट। मोदी इनकी ‘काबिलयित’ जानते थे। वो जानते थे कि किसी तानाशाहीपूर्ण फैसले के मौके पर अरोड़ा उनके साथ मजबूती से खड़े होंगे। लिहाजा उन्होंने ले आकर उन्हें चुनाव आयोग में बैठा दिया। और फिर चुनाव आयोग पीएमओ का कैंप कार्यालय बन गया। मीडिया के सामने फैसले भले ही अरोड़ा पढ़ते रहे हों लेकिन लिए वो पीएमओ में जाते थे। पांच राज्यों के चुनाव का फैसला भी हुआ। और पश्चिम बंगाल में आठ चरणों में उसे कराए जाने की बात से यह साफ हो गया कि मोदी की इच्छा ही अब आयोग का आदेश है। फिर क्या रैलियों से लेकर भीड़ जुटाने के जितने तरीके हो सकते थे बगैर कोरोना के प्रोटोकाल को लागू किए संपन्न कराए गए। और हर तरीके से प्रोटोकाल की धज्जियां उड़ाई गयीं। आखिरी दौर में कोरोना का कहर बढ़ने लगा और महामारी सिर पर आकर खड़ी हो गयी तो आयोग ने सर्वदलीय बैठक बुलाई जिसमें बीजेपी को छोड़कर सभी विपक्षी दलों ने बाकी चरणों के चुनाव को एक साथ क्लब करने की मांग की। लेकिन आयोग विपक्षी दलों की सुनने की जगह अकेले बीजेपी की सुना। और चुनाव को पुराने कार्यक्रम पर ही कराने का फैसला किया। अब कोरोना की इस मार के लिए अगर सीधे किसी एक शख्स को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है तो वह मोदी से भी ज्यादा सुनील अरोड़ा हैं।
इसीलिए हम कह रहे हैं कि अब तक जितनी मौतें हुई हैं वह किसी महामारी की वजह से नहीं बल्कि हमारे शासकों के फैसले की वजह से हुई हैं। यह एक प्रायोजित महामारी है। प्रायोजित इसलिए क्योंकि इसे पहले रोका जा सकता था। क्योंकि इसकी रिपोर्ट पीएम मोदी के पास थी। अगर मोदी वह रिपोर्ट सार्वजनिक करते तो दूसरी संस्थाएं या फिर अवाम से जुड़े लोग पांच राज्यों के चुनाव से लेकर हरिद्वार में कुंभ के आयोजन और यूपी में पंचायत चुनाव रोकने के लिए जूझ पड़ते। लेकिन मोदी ने उस रिपोर्ट को गुप्त रखा। किसी को उसकी भनक तक नहीं लगने दी। और अंत में उसकी सच्चाई जब देश के सामने महामारी के कहर के रूप में आयी तो समय बीत चुका था और चीजें हाथ से निकल गयी थीं। फिर तो लाशों का अंबार है। वह न नदियों में समा पा रही हैं और न ही जमीन उन्हें सहन कर पा रही है। नतीजा यह है कि कुत्ते और गिद्ध उन्हें फिर उन्हीं गांवों तक फिर पहुंचा दे रहे हैं जहां से वो आई थीं।
आदमखोर ईदी अमीन तो तानाशाह था। उसे किसी ने चुना नहीं था। हमने तो ईदी अमीन को बाकायदा चुनाव के रास्ते पूरे गाजे बाजे के साथ गले में माला पहनाकर देश की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठाया है। हमें शायद इस बात का एहसास नहीं था कि जिस शख्स को किसी एक खास समुदाय की लाशों से कोई फर्क नहीं पड़ता उसे किसी दूसरे मौके पर दूसरी लाशों से भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उम्मीद की जा रही थी कि बंगाल चुनाव से लौटने के बाद पूरी सरकार कोरोना के खिलाफ जंग में जुट जाएगी और पिछले दिनों की कुछ कमियों और गल्तियों पर जल्द ही काबू पा लिया जाएगा। लेकिन यहां क्या। पूरी गंगा ही उल्टी बह रही है। जिस गृहमंत्री को पूरा देश संभालना था और इस पूरे अभियान में सेनापति की भूमिका निभानी थी। वह पूरे दृश्य से ही गायब है। उसके लापता होने के विज्ञापन छापे जा रहे हैं।
और पीएमओ तथा मोदी की भूमिका भी राष्ट्र के संबोधन से आगे नहीं बढ़ सकी। मोदी से कोई पूछ सकता है कि चुनाव में तो आप अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं फिर कोरोना के खिलाफ लड़ाई में वह ऊर्जा कहां गयी? लिहाजा लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। यह मोदी के आत्मनिर्भर भारत का नया माडल है। जिसमें सरकार से रत्ती भर भी उम्मीद करना गुनाह है। और उल्टे हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि अस्पताल मौत के अड्डों में तब्दील हो गए हैं। वहां जाने का मतलब ही मौत है। लिहाजा लोग हर तरीके से घर पर ही रहकर इलाज करना चाहते हैं। और इस बीच पीएम मोदी ने न तो किसी को बताया कि उनके पीएमकेयर फंड में कितने पैसे आए और उनको उन्होंने कहां खर्च किए। और इस प्रक्रिया में उसकी साख इतनी गिर गयी कि न तो पीएम मोदी अब उसका नाम लेते हैं और न ही कोई दूसरा उसमें दान करना चाहता है।
बहरहाल पीएम मोदी ने अतीत के सपने दिखाते-दिखाते पूरे देश को मध्य युग में खड़ा कर दिया है। जहां लाशें और सिर्फ लाशें हैं। लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि यह कोई राजतंत्र नहीं है और न ही हम 14वीं या फिर 18वीं शताब्दी में जी रहे हैं। यह लोकतंत्र है जिसमें हम अपने नुमाइंदे चुनते हैं और उनकी जवाबदेहियां तय होती हैं। और ऐसा करते हुए अगर वो कुछ गलत करता है तो उसकी सजाएं भी तय हैं। लिहाजा कोरोना के इस महासंकट के दौर में मोदी की आपराधिक भूमिका की छानबीन जरूर होगी। और अगर कोई जनता के प्रति जवाबदेह सरकार आयी तो उनका पब्लिक ट्रायल भी होगा। जिसमें उपलब्ध तथ्यों के आधार पर यह बात कही जा सकती है कि मोदी को सजा मिलना तय है। ऐसे में अगर किसी मुल्क में किसी अपराधी या फिर सजायाफ्ता शख्स को चुनाव लड़ने तक का अधिकार हासिल नहीं है तो भला उसे राजघाट पर दो गज जमीन क्यों मिलेगी?
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)