Friday, March 29, 2024

मुसलमान औरतों को 49 साल बाद मिला शरीया तलाक़ का हक

भारतीय क़ानून के तहत तलाक़ देने के प्रावधान के अलावा, अब मुसलमान औरतों के पास तलाक़ देने के लिए शरीया क़ानून के तहत दिए गए चार रास्ते भी उपलब्ध होंगे और उन्हें ‘एक्स्ट्रा-जुडीशियल’ नहीं माना जाएगा। एक मुसलमान औरत के पास अपने पति को तलाक़ देने के क्या विकल्प हैं? केरल हाई कोर्ट ने इस सवाल पर लंबी चर्चा के बाद फ़ैसला सुनाया है। हाई कोर्ट ने माना है कि मुसलमान औरतों का अपने पति को इस्लामी तरीक़े से तलाक़ देना सही है।

अपने 77-पृष्ठ के फैसले में जस्टिस ए मुहम्मद मुश्ताक़ और सीएस डायस की पीठ ने साल 1972 का केरल हाई कोर्ट का वो फ़ैसला पलट दिया, जिसमें हाई कोर्ट ने कहा था कि मुसलमान औरतों के लिए तलाक़ माँगने के लिए केवल भारतीय क़ानून का रास्ता ही सही रास्ता है और शरीया क़ानून के रास्ते एक्स्ट्रा-जुडीशियल हैं। केरल हाई कोर्ट ने कहा कि पवित्र कुरान में पुरुषों और महिलाओं, दोनों को तलाक देने के समान अधिकार को मान्यता दी गई है।

गौरतलब है कि भारत में मुसलमान औरतों के डिसोल्यूशन ऑफ़ मुस्लिम मैरिज ऐक्ट 1939 के तहत नौ सूरतों में अपने पति से तलाक़ लेने के लिए फ़ैमिली कोर्ट जाने का प्रावधान है। इनमें पति का क्रूर व्यवहार, दो साल तक गुज़ारा भत्ता न देना, तीन साल तक शादी न निभाना, चार साल तक ग़ायब रहना, शादी के वक़्त नपुंसक होना वग़ैरह शामिल है।

दरअसल केरल के फ़ैमिली कोर्ट्स में मुस्लिम दंपत्तियों के कई ऐसे मामले थे जिनमें कोई फ़ैसला नहीं हो पा रहा था। इनके ख़िलाफ़ हुई अपील केरल हाई कोर्ट पहुँची तो दो जजों की पीठ ने इन्हें एक साथ सुनने का फ़ैसला किया। सुनवाई के बाद केरल हाई कोर्ट ने ये साफ़ किया कि भारतीय क़ानून के अलावा मुसलमान औरतें शरीया क़ानून के तहत भी अपने पति को तलाक़ दे सकती हैं। इसका एक उद्देश्य फ़ैमिली कोर्ट पर अधिक मामलों के दबाव को कम करना है और दूसरा मुसलमान महिलाओं के तलाक़ देने का अधिकार सुनिश्चित करना भी है।

उच्चतम न्यायालय के इंसटेन्ट ट्रिपल तलाक़ को ग़ैर-क़ानूनी घोषित करने के फ़ैसले का हवाला देते हुए खंडपीठ ने कहा कि तीन तलाक़ जैसे ग़ैर-इस्लामी तरीक़े को रद्द न किए जाने के लिए तो कई लोग तब बोले पर ‘एक्स्ट्रा-जुडीशियल’ बताए गए मुसलमान महिलाओं के लिए तलाक़ के इस्लामी रास्तों का हक़ वापस देने पर कोई सार्वजनिक माँग नहीं दिखती।

फैसले में खंडपीठ ने कहा कि मुसलमान महिलाओं की दुविधा, विशेष रूप से केरल राज्य में, समझी जा सकती है जो केसी मोईन बनाम नफीसा एवं अन्य के मुकदमे में फैसले के बाद उन्हें हुई। इस फैसले में मुस्लिम विवाह अधिनियम, 1939 समाप्त होने के मद्देनजर न्यायिक प्रक्रिया से इतर तलाक लेने के मुसलमान महिलाओं के अधिकार को नजरअंदाज कर दिया गया था। एकल पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि किसी भी परिस्थिति में कानूनी प्रक्रिया से इतर एक मुस्लिम निकाह समाप्त नहीं हो सकता है।

जस्टिस ए मोहम्मद मुश्ताक और जस्टिस सीएस डियास की खंडपीठ ने इस्लामी कानून के तहत निकाह को समाप्त करने के विभिन्न तरीकों और शरीया कानून के तहत महिलाओं को मिले तलाक के अधिकार पर विस्तृत टिप्पणी करते हुए कहा कि निकाह समाप्त करने के इन तरीकों में तलाक-ए-तफविज, खुला, मुबारत और फस्ख शामिल हैं। खंडपीठ ने नौ अप्रैल के अपने फैसले में कहा, “शरीयत कानून और मुस्लिम निकाह समाप्ति कानून के विश्लेषण के बाद हमारा विचार है कि मुस्लिम निकाह समाप्ति कानून मुसलमान महिलाओं को अदालत के हस्तक्षेप से इतर फश के जरिए तलाक लेने से रोकता है।”

खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा कि शरीयत कानून के प्रावधान दो में जिन सभी न्यायेतर तलाक के तरीकों का जिक्र है, वे सभी अब मुसलमान महिलाओं के लिए उपलब्ध हैं। इसलिए हम मानते हैं कि केसी मोइन मामले में घोषित कानून, सही कानून नहीं है। पीठ ने कहा कि पवित्र कुरान में भी पुरुषों और महिलाओं को तलाक देने के समान अधिकार की मान्यता दी गई है।

शरीया क़ानून के तहत मुसलमान औरत के पास तलाक़ देने के चार विकल्प हैं-
• तलाक़-ए-तफ़वीज़- जब शादी के कॉन्ट्रैक्ट में ही औरत ये लिखवाती है कि किस सूरत में वो अपने पति को तलाक़ दे सकती है। मसलन, अगर वो बच्चों की परवरिश के लिए पैसे न दें, परिवार को छोड़ कर चले जाएं, मार-पीट करें वग़ैरह।
• ख़ुला- जिसमें औरत एक-तरफ़ा तलाक़ की माँग कर सकती है, इसके लिए पति की सहमति ज़रूरी नहीं है। इसमें शादी के वक़्त औरत को दी गई महर उसे पति को वापस करनी होती है।
• मुबारत- औरत और मर्द आपस में बातचीत कर तलाक़ का फ़ैसला करते हैं।
• फ़स्क- औरत अपनी तलाक़ की माँग क़ाज़ी के पास लेकर जाती है, ताकि वो इस पर फ़ैसला दें। इसमें शादी के वक़्त औरत को दी गई महर उसे पति को वापस करनी होती है।

केरल हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में इन सभी रास्तों को स्पष्ट किया है। साथ ही कहा है कि ‘ख़ुला’ के मामले में तलाक़ से पहले एक बार सुलह-सफ़ाई की कोशिश की जानी चाहिए। ‘फ़स्क’ के अलावा बाक़ी रास्तों के लिए कोर्ट ने कहा है कि जहां तक हो सके फ़ैमिली कोर्ट सिर्फ़ इन फ़ैसलों पर मुहर लगाए, इन पर और सुनवाई न करे।

खंडपीठ ने कहा कि शरीयत एक्‍ट की धारा 2 में उल्लिखित अतिरिक्त न्यायिक तलाक के अन्य सभी प्रकार इस प्रकार मुस्लिम महिलाओं के लिए उपलब्ध हैं। इसलिए, हम मानते हैं कि केसी मोइन के मामले में घोषित कानून अच्छा कानून नहीं है। खंडपीठ ने यह फैसला ऐसी महिलाओं की ओर से दायर याचिकाओं के एक बैच पर दिया, जिन्होंने विवाह की समाप्ति के लिए अतिरिक्त न्यायिक तरीकों का सहारा लिया था।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles