स्मृतियों में गांव का निवास हमेशा ही रहा। कभी इसका विस्थापन नहीं हुआ। मेरा भौगोलिक विस्थापन ज़रूर हुआ था। पांचवें दशक के मध्य में गांव बसवा छूटा था। तब इसमें कोई सात हज़ार आत्माएं निवास करती थीं। यह प्यारा-सा बसवा दिल्ली – जयपुर रेल मार्ग पर स्थित है। इस मार्ग पर है बांदीकुई जंक्शन और यहां से 4 -5 किलोमीटर दूर के फासले पर स्थित है विश्व प्रसिद्ध चांद बावड़ी। वक़्त निकाल कर इसे ज़रूर देखना चाहिए। पर मैं तो बांदीकुई से ही आठ-नौ किलोमीटर दूर अपने गांव बसवा की बात करने वाला हूं। इतिहास में इसका भी अकिंचित स्थान है। कहते हैं 16 वीं सदी के प्रसिद्ध राणासांगा ( महाराणा प्रताप के पुरखे) का बसवा स्टेशन के आस-पास ही निधन हुआ था। उनकी समाधि देखी थी। अब स्टेशन के प्रवेश द्वार के पास खड़ी उनकी आदमकद प्रतिमा आकर्षण का केंद्र है। कहा जाता है कि इब्राहिम लोदी -बाबर जंग में पराजय की आशंका को देख कर वे वापस मेवाड़ लौट रहे थे। लेकिन, मध्य मार्ग में उनका निधन हो गया।
जीवन -यात्रा के साथ स्मृतियों में बसवा सफर करता ही रहा है। मैं जयपुर रहूं या राजधानी दिल्ली या महानगर कलकत्ता और बम्बई, इस सहयात्री से मुक्त नहीं हो सका। जब भी शहरी -जीवन की उकताहट बढ़ने लग जाती, मैं बरबस क़स्बारूपी गांव खिंचा चला आता। कुछ दिन मां और पीछे छूटे सहपाठियों के साथ बिताने के बाद भागमभाग ज़िंदगी में लौट जाता। शुरूआती पढ़ाई यहीं की थी मैंने। औसत छात्र ही रहा। एक दफा नकल करते हुए पकड़ा भी गया था। गुरु रामकिशोर ने पिटाई भी की थी।
तब बसवा मासूम -सा था। एक बड़ा-लम्बा-चौड़ा परिवार -सा महसूस होता था। घर से कुछ क़दम दूर एक-दो मुस्लिम परिवार थे। मुर्गी पालन और अण्डे, उनका जीवन -आधार थे। वैसे मेरे बख्शी मोहल्ले से दूर भी मुस्लिम बस्ती हुआ करती थी। मेरे मोहल्ले में अस्सी -नब्बे प्रतिशत ब्राह्मण थे, और कुछ घर पिछड़ों के थे। इन घरों का रिश्ता पुश्तैनी काम-काज़ से था; लोहार और कोल्हू से तेल निकालने का। लेकिन दबदबा ब्राह्मण वर्ग का ही था। कुछ पंडित शादी-विवाह कराने के व्यवसाय में थे, और कुछ खेती- बाड़ी करते थे। पर ब्राह्मण परिवारों के अधिकांश सदस्य शिक्षक, रेलवे और पुलिस में हुआ करते थे। मेरे पिताजी भी रेलवे में थे। दो-तीन परिवार वैश्यों के भी थे, जिनकी किराने और कपड़ा की दुकानें हुआ करती थीं। छोटे से मोहल्ले में आस-पास कोई आधा दर्ज़न छोटे-मोटे मंदिर थे, जिनमें सभी श्रेणी के देवी-देवताओं का बास रहता था। मेरा भी प्रसाद के लिए आना-जाना रहता। परीक्षा के दिनों में आशीर्वाद के लिए जाता। मेरे यहां घड़ी नहीं थी। वैसे आम लोगों की भी यही दशा थी। स्कूल से तीन घंटे बजा करते और गांव भर में गूंजते थे; पहले घंटे पर मैं तैयार होने लगता; दूसरे घंटे पर ब्यालू करने बैठता और तीसरे पर स्कूल की ओर दौड़ता। प्रार्थना में देर से पहुंचने पर दण्डित भी हुआ हूं।
तीन कोठों (कमरे) का घर था। आंगन या चौक था। एक नीम का पेड़ था। बकरियों के लिए अलग से कोठरी थी। एक छोटा-मोटा अध्ययन कक्ष था। मकान के बाहर एक बैठक हुआ करती थी। एक प्रकार का आधुनिक ड्राइंग रूम। मूढ़े, कुर्सियां थीं। बाहरवाले वहीं आकर बैठा करते थे। मेरा भी यह अध्ययन कक्ष हो जाया करता था। मकान में मेरे माता-पिता और चाचा के परिवार रहा करते थे। लेकिन, एक एक करके सब फुर्र हो गए और जयपुर जा बसते रहे। बेहतर जीवन के लिए। मैं भी तो कहां रह सका वहां। शहर-दर-शहर नापता रहा। बस! स्मृतियों में ही मकान और बसवा बसा रहा है।
और हां,मकान से सटा बड़ा बाड़ा भी था। बाड़े में कुंआ, बबूल का दरख़्त, दो पाखाने और एक कोने में प्यारा -सा बगीचा रहता। फूल भी आया करते. स्नान के लिए कुंए के पास एक विशाल पत्थर भी हुआ करता था। वहीं बैठ कर मैं नहाता और कभी- कभार वर्जिश भी करता। कुछ झाड़ियां भी थीं। बाड़े के दो दरवाज़े हुआ करते थे। एक दरवाज़ा चबूतरे की तरफ से आता, दूसरा मकान के भीतर हमें जोड़ता। मुझे याद है, मैं बकरियों को भी चराने के लिए बाड़े में ले जाया करता था। वैसे, ग्वाले के पास छोड़ कर आया करता था। शाम ढले उससे लाना होता। बड़े बेर और कच्चे चने खाने के लिए खेतों में जाता।
पड़ोसी के खेत बांध के पास हुआ करते थे। कोई तीन किलोमीटर के फासले पर। गांव के बाहर महादेव जी का मंदिर रहा करता। देखने लायक था। सभी जाति के लोग वहां आया करते। एक-दो महंत लोग देखा करते थे। बसवा से राजगढ़ की तरफ शाकरार था। किसी मुस्लिम पीर की समाधि। छोटी-सी डूंगरी पर थी। साल में मेला भरता। सभी जाति और सम्प्रदाय के लोग जुटा करते। पहली चादर हिन्दू चढ़ाया करते। मुझे तो यह भी याद है। ताज़िये हमारे घर के सामने से गुज़रा करते थे। मेरी मां मुझे उसके नीचे से निकाला करती और कहती,”हमारी सब बलाएं दूर होंगी। पुण्य मिलेगा।” मैंने सभी हिन्दुओं और मुसलमानों के मुख से ‘राम राम’ सुना है। ‘जय रामजी’ भी कहा करते थे। न कोई बुर्क़ा, न हिज़ाब। थोड़ा-सा घूंघट ज़रूर था।
मेरा एक सहपाठी था मन्नान। मस्तमौला था। उसके लिए मंदिर-मस्ज़िद एक मूरत। अब वह बसवा से उखड़ कर जिला मुख्यालय दौसा जा बसा है। विस्थापित बन गया है। बसवा से कुछ दूर पहाड़ों की गोद में स्थित ‘झाझी रामपुरा’ है। बड़ा पवित्र स्थान। पानी के तीन कुंड हैं। छोटे कुंड में संगमरमर का गौमुख है जिसमें से अहर्निश स्वच्छ जल आता रहता है। पहाड़ों की कोख से। बारहमास गर्मियों में शीतल जल, सर्दियों में गुनगुना। कोई नहीं जान पाया इस रहस्य को; ठंडे और गर्म जल का मूल स्रोत किस जगह है। पहाड़ों की तलहटी में बसे इस स्थान पर मेला भी भरता है। दूर-दूर से लोगबाग आते हैं। तीर्थ स्थान जो बन गया है। यहां भी न कोई ऊंची जाति का है, न कोई छोटी जाती का; न कोई हिन्दू है, न मुसलमान। एक रंगबिरंगा हिन्दुस्तान का जमावड़ा देखा है. धुलेंडी कब आएगी, कब गांव के मुख्य बाज़ार से पिचकारी से रंगों की बरसात करते हुए निकलेंगे हम सब, सालभर इंतज़ार करते रहते बेसब्री से। सभी समुदाय के लोग धुलेंडी के रंग में रंग जाते।
विस्थापित हो कर शहरी भारत में बसा तो बंबइया फिल्मों के ज़रिए भी बड़े परदे पर गांवों के दर्शन होते रहे। देहाती भारत के साथ एक नए ढंग के रोमांस ने मुझमें जन्म लिया। कृत्रिम ही सही, गांव के साथ नाता ताज़ा होता रहा। जी करने लगा, ‘जीवन यात्रा का अंतिम पड़ाव यहीं हो जाए. मां का अंतिम पड़ाव भी तो पुरखों के मकान में ही हुआ था।’ मैं लालची बनने लगा। मैं स्मृतियों का बंदी बनने लगा.
एक दिन!
इसी लालच ने मुझे स्मृतियों की गोद में धकेल दिया। स्मृतियों की डोर थामे मैं बसवा पहुंच गया। बेशक, इस सदी के बसवा का चेहरा बदला है; कच्चे रास्ते पक्के बने हैं; रेलवे स्टेशन का कायाकल्प हो गया है; अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल गए हैं; बिजली आ गई है और जल विहीन नल बिछ गये हैं। बराये नाम, सप्ताह में एक-दो दिन पानी आता है और वह भी आधा-पौन घंटे बिन बताये। गवंई उपभोक्ता जल-अतिथि का दिन-रात इंतज़ार करते रहते हैं। वैसे ‘वाटर टैंकरों’ से काम चलाते हैं। दूसरे शहर से आते हैं, मनमाने दाम वसूलते हैं। इसे देख कर मुझे अपनी दिल्ली की मयूर विहार की बस्ती के दृश्य आंखों में तैरने लगे; चिल्ला गांव के सामने खड़े टैंकर से पानी लेने लिए लोगों की कतार लगी हुई है घंटों से; इस कतार की पहचान घरेलू सहायक-सहायिकाओं से है; फ्लैटों के मध्यवर्गीय बाशिंदे शामिल नहीं है। लेकिन, बसवा की कतार और राजधानी दिल्ली की कतार, दोनों कतारों में क्या अंतर् रह गया है, इस सवाल से मैं ज़रूर आतंकित हूं।
अब तो यहां घरों में पश्चिमी शैली के कमोड भी पहुंच गए हैं। लेकिन, पानी के अभाव में उपभोक्ता की प्रतीक्षा में रहते हैं। गटर और नालियों की व्यवस्था नहीं है। सो, कीचड़ के जहां-तहां दर्शन होते रहते हैं। दो-तीन कस्बाई माल भी हो गये हैं। आधुनिक उपभोक्ता जन्म ले रहा है। कॉलेज भी शुरू होने जा रहा है। तकनीकी शिक्षा की संस्था भी है। तीन चार बैंक शाखाएं हैं। अस्पताल का भी कायाकल्प हो गया है। अब तो मुख्य इलाकों में केमिस्ट की दुकानें भी दिखाई दे रही हैं। विगत सदी के बसवा में अंग्रेजी दवाइयों की दुकान का नामोनिशान नहीं था। मोहल्ले का वैद्य ही सब कुछ हुआ करता था। अब अंग्रेजी दवा विक्रेताओं और डाक्टरों ने वैद्य-संस्कृति को विस्थापित कर दिया है। कोविड काल में भी मैं सपरिवार आया था। तब किसी के मुख पर ‘मास्क’ नहीं था। सभी खुले चेहरे को लिए खेतों में घूम रहे थे, चबूतरों पर बतिया रहे थे। नतीजों से बेखबर। हम दिल्लीवासी आश्चर्यचकित थे।
अब तो बसवावासी अपने बच्चों को डाक्टरी पढ़ाने के लिए चीन तक भेज रहे हैं। भारत के अन्य शहरों में तो जा ही रहे हैं। मकानों पर टीवी की डिस्क चमक रही है। मोबाइल या स्मार्ट फोन सखा-सहेली बनते जा रहे हैं। हथेलिया से चिपके रहते हैं। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में अध्ययनरत हैं, दिन-रात। वर्तमान पीढ़ी रेडियो, ट्रांजिस्टर से अपरिचित है। अलबत्ता, जयपुर और अलवर से कुछ अखबार जरूर पहुंच जाते हैं। अब किशोरियां साइकिल से स्कूटी पर पहुंच गई हैं। छोटी मोटी सौंदर्य प्रसाधन की दुकानें भी हैं। किशोरों की नई शान मोटर बाइक हैं। इन बाईकों के शोर से संकरी गलियां थर्राने लगती हैं। बच्चों की किलकारियां सांसत में रहती हैं। गिल्ली डंडा, सतोलिया, लुकाछिपी जैसे खेल अदृश्य हैं। ई रिक्शा चलने लगे हैं। बैलगाड़ियां लुप्त होने लगी हैं। फ़ास्ट फ़ूड की थड़ियां उग आई हैं। बाजार में मीट शॉप भी खुल गई हैं। तब के बसवा में ऐसा कुछ नहीं था।
बिजली से घर जगमगा रहे हैं। मुझे रौशनी देने वाले साथी दिए, लालटेनें इतिहास में लगभग समा चुके हैं। बल्ब और ट्यूब लाइटें नए साथी बन चुके हैं। अब दुनिया, मेरे गांववालों के लिए एक विशाल गांव में बदल गई है। पल -पल की घटनाएं छन-छन कर पहुंच रही हैं। मेरे कस्बानुमा गांव की आबादीअब 15हजार से ऊपर है। नगरपालिका है। हर मोहल्ले में राजनीतिक गतिविधियां उछलने लगी हैं। कांग्रेस और भाजपा, दो पहलवान डटे रहते हैं अखाड़े में। ऊंची जातियों और नवोदित कस्बाई मध्य वर्ग में हिंदुत्व और भाजपा के प्रति रुझान है, जबकि पिछड़ों और मीणाओं की ढाणियों ने कांग्रेस का हाथ थाम रखा है। ढाणियों के युवक-युवती शिक्षक और अधिकारी बन रहे हैं। आधुनिकीकरण की बयारें बह रही हैं।
खण्डहर में परिवर्तित मकान में पुरखों और मेरे बचपन -किशोर अवस्था की स्मृतियां अब भी हरी-भरी हैं। लेकिन, समय किसी को साबुत नहीं छोड़ता है। कोई काल, वस्तु, स्थितियां साथ नहीं रहते हैं अनवरत। आमंत्रण देने लगती हैं विदाई की घड़ियां। मैंने भी ऐसा महसूस किया। खण्डहर को विदाई दी जाए। इसे बेच कर प्राप्त राशि से हाई स्कूल में कक्ष का निर्माण करा दिया जाए। वार्षिक पुरस्कार भी शुरू किया जा सकता है। सारांश में, रचनात्मक कार्यों में राशि को नियोजित की जानी चाहिए। परिवार के सदस्य भी यही चाहते थे। सो, वांछित क्रेता की तलाश शुरू की।
कुछ दौड़-धूप के बाद एक खरीदार सामने आये- अनुसूचित जनजाति समाज के एक शिक्षित युवक। उनका परिवार बसवा से कुछ किलोमीटर के फासले पर एक ढाणी (पांच घरों का गांव) में रहता है। अब वह चाहता है कि बसवा की बसाहट की मुख्यधारा में शामिल हो जाये। युवक की शिक्षा -दीक्षा भी बसवा-हाई स्कूल में ही हुई थी। एक स्थानीय शिक्षक ने उन्हें मुझसे मिलने की सलाह दी थी पिछले वर्ष। चालीस के आस-पास। बेहद नेक इंसान। उन्होंने खुद दौड़-धूप की।
दशकों पुराने मकान के दस्तावेज़ हासिल किये। पुरखों की ज़मीन थी। दशकों से लावारिस की दशा में जी रही थी। अतिक्रमण होना ही था। सो, आस-पड़ोस ने मौक़े का फ़ायदा उठाया। अतिक्रमण हुआ। दिल्ली में भी होता है। दिल्ली उच्च न्यायलय को आवंटित भूमि पर एक राजनैतिक दल ने ही अतिक्रमण कर डाला। देश की आला अदालत के आदेश के बाद अब उस दल को अपना अतिक्रमण हटाना पड़ेगा। जब देश की राजधानी दिल्ली में अतिक्रमण-संस्कृति है तो बसवा में यह क्यों नहीं फ़ैल सकती।
नगरों में अतिक्रमण को हटाने के लिए बुलडोज़र चलाने पड़ते हैं। बसवा में भी ऐसा ही करना पड़ा। युवक ने बुलडोज़र का सहारा लिया; अतिक्रमण को तोड़ा गया; खण्डहर में तब्दील मकान को गिराया गया; ज़मीन को समतल किया गया; इसके साथ ही एक बारगी में हमारे कोठे-बाड़े स्मृतियों में परिवर्तित हो गए। इन क्षणों में मैं भी घटनास्थल पर मौज़ूद था। साथ में जीवन साथी मधु भी थीं। हम दोनों के लिए अव्यक्त मार्मिक घड़ी थी। जहां मैं बड़ा हुआ था, प्राथमिकी शिक्षा प्राप्त की थी, आंगन में खड़े नीम पर चढ़ता-उतरता और पकी निम्बोली बीन कर खाता, उसकी शाखों से लटकते झूले में झूलता, गांववालों को गणेश चतुर्थी की पूजा कराता और सीधा बटोरता, वे सभी दृश्य तैरने लगे आंखों में।
कैसे भूलता 1981 के उन पलों को जब मां ने इसी घर में अंतिम हिचकी ली और नश्वर देह से विदा ली थी। इसी मकान के आंगन में बारवें दिन का संस्कार किया था; छह ब्राह्मणियों और छह दलित स्त्रियों को आमने-सामने पंगत में बैठा कर भोजन कराया था। ये स्त्रियां उन परिवारों की थीं जिनका नित्य कर्म ऊंची जातियों के मल को अपने टोकरे में समेट कर गांव बाहर फेंकना होता था। मुझे याद है, बचपन में मैं कभी उनसे छू जाता तो मुझे तुरंत स्नान के आदेश दिये जाते थे। लेकिन, कड़े विरोध का सामना करते हुए मैं मिश्रित पंगत जमा सका था। उन्हें खीर-पूरी परोस सका था। दान-दक्षिणा दे सका था। अब जब बुलडोज़र चल रहा है तब उन स्मृतियों का झुण्ड स्मृति -पटल पर उतर रहा है। ऐसी ही भावुक दशा मधु की भी है। वह भी साथ थीं जब कर्मकांड से मां की विदाई की जा रही थी। सब कुछ शांतिपूर्वक निपट जाएगा, हम दोनों ने सोचा था। पर कल्पना से परे, विपरीत ही होने लगा।
बुलडोज़र नाटक का पटाक्षेप अभी शेष था। अभी असली अतिक्रमण पर बुलडोज़र चलना शेष था। यह नितान्त भिन्न किस्म का अतिक्रमण और बुलडोज़र था, जोकि मशीनी बुलडोज़र और मूर्त अतिक्रमण से अधिक खतरनाक़ था। यह अतिक्रमण ताज़ा नहीं, सदियों पुराना है, जिस पर बुलडोज़र चलाना आसान नहीं है। मैं देखता हूं, मोहल्ले के प्रौढ़ ब्राह्मण पुरुषों और महिलाओं की त्यौरियां चढ़ी हुई हैं। चेहरे तने हुए हैं। कानाफूसी चल रही हैं। अंत में हार कर कुछ लोग मेरे पास आते हैं और कुछ नाराज़गी -कुछ आक्रोश से कहते हैं,” जोशी जी, आप समझदार हैं। जाने-माने पत्रकार हैं। फिर आपने ब्राह्मण समाज के साथ ऐसा अन्याय क्यों किया है?”. “मैं समझा नहीं कैसा अन्याय?”. मैंने पूछा। “ पुरखों का मकान बेचना ही था तो हम ब्राह्मणों को बेच देते। हम भी पूरा दाम दे देते। बक्षियों का मोहल्ला ब्राह्मणों का है।”
आपत्ति करनेवालों में अधिकांश भाजपा समर्थक थे, और कांग्रेसी भी। बहस शुरू हो गई। अपनी असहमति ज़ाहिर करते हुए मैंने कहा,”देखिए, मीणा गैर नहीं हैं। संविधान के अनुसार अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में आते हैं। शिक्षित और आधुनिक हैं। वैसे संघ और हिंदुत्ववादी तो आदिवासियों को व्यापक हिन्दू परिवार का ही हिस्सा मानता हैं। फिर दिक्कत क्या है?” नेताप्रवृत्ति से लैस एक प्रौढ़ बोले, ”सो तो ठीक है। पर ब्राह्मणों के बीच ब्राह्मण का ही आना ठीक रहता। सबकी अपनी-अपनी संस्कृति -खानपान -रीति -रिवाज़ होता है। गैर के बसने से ब्राह्मण समाज को ठेस लगेगी। आप तो हमारे ही समाज के हैं। हमारी भावनाओं को ध्यान में रखना चाहिए था।”
तर्कों का सिलसिला चल पड़ा। मैंने उन्हें बताया, ”देखिये, भारत बदल रहा है। प्रधानमंत्री मोदी जी की डिजिटल क्रांति हो रही है। मेरे तीनों बच्चों ने अंतर्जातीय विवाह किये हैं; बड़ी लड़की ने दक्षिण भारत के एक ओबीसी से, छोटी ने जाट से और बेटे ने पंजाबी भाटिया से। हमारा परिवार सूक्ष्म भारत है।” मुझे बीच में ही रोक कर एक सज्जन कहने लगे,” आप देश-विदेश घूम चुके हैं। दिल्ली में रहते हैं। हम तो इसी मोहल्ले में ही सिमटे हुए हैं। बाहर नहीं गए। आपकी बराबरी नहीं कर सकते। हमारी समझ छोटी है, आपकी फैली हुई है।” इसके बाद मैं क्या कहता। एक प्रकार से उन्होंने अपने तर्क के हथियार डाल दिए, लेकिन जाति -भूमि से टस से मस नहीं हुए। एक बुजुर्ग पिता ने बड़ी दिलचस्प बात कही, ” देखिए जोशी जी, मैंने और पत्नी ने तो विधानसभा के चुनावों में भाजपा को ही वोट दिया था, लेकिन मेरे बेटे ने कांग्रेस को दिया था।”
संयोग से उनका बाईस-तेईस वर्ष का बेटा भी वहीं कुर्सी पर बैठा हुआ था। मुझे हैरत हुई। मैं उस ब्राह्मण युवक से पूछता हूं,” आपके परिवार ने भाजपा को वोट दिया, आपने कांग्रेस को क्यों दिया?” वह बोले, ”देखिए, मेरे माता-पिता के अपने विचार हैं और मेरे अपने हैं। हम युवकों को अच्छी नौकरी चाहिए, अच्छा जीवन। मेरे दोस्त भी ऐसा ही सोचने लगे हैं। हिन्दू-मुसलमान झगड़ा नहीं चाहिए। गोदी मीडिया यही दिखा रहा है।”
बेटा जयपुर में रह कर गणित में एमए की पढ़ाई कर रहा है। कुछ बड़े लोगों ने युवक का समर्थन भी किया, अन्य ने मौन रखा। लेकिन, गोदी मीडिया से सभी नाखुश लगे। एक-दो ने पत्रकारों को लेकर अप्रिय शब्द भी कहे और भरे मन से बोले “हमने टीवी देखना बंद कर दिया है।” यह सुन कर पिता को सम्बोधित करते हुए मैंने कहा, “देखिए, यही लोकतंत्र है, यही असली हिन्दू जीवन शैली है; हमारे भारत में एक छत तले नास्तिक व आस्तिक; शैव और वैष्णव; हिन्दू और सिख एक साथ रहते आये हैं। इस सनातन जीवन शैली को बनाये रखने की आवश्यकता है। मीणा पराये नहीं, अपने ही बड़े परिवार के सदस्य हैं.” अलबत्ता, युवक के चंद नपे-तुले वाक्यों से युवा भारत की वास्तविक आकांक्षाओं के संकेत तो मिलते ही हैं।
बसवा के अनुभव शहरी अनुभव से भिन्न कहां हैं? शहरों में भी मुस्लिम समुदाय के लोगों को किराए पर फ़्लैट नहीं मिलते हैं। काफी ज़द्दोज़हद करनी पड़ती हैं। यदि वे खरीदना भी चाहें तब भी कई परेशानियां झेलनी पड़ जाती हैं। अख़बारों में ऐसी घटनाएं छपती रहती हैं। दलितों की स्थिति कम बदतर नहीं है। आधुनिक बस्तियों के अपार्टमेंटों में कितने दलित हैं, सर्वे करेंगे तो पता चल जायेगा। दिल्ली जैसे शहर में दलितों की अलग बस्तियां हैं। बसवा में आंबेडकर बस्ती मिली, तो दिल्ली में भी आम्बेडर कॉलोनी है। मुस्लिमों की अलग बस्तियां हैं। दिल्ली और बसवा में मिश्रित बस्तियां और अपार्टमेंट की अवधारणा सिरे से गायब है। जातिगत पूर्वाग्रह अपना चमत्कार दिखाता रहता है।
पिछले ही दिनों गुजरात में घटी एक घटना मीडिया की सुर्ख़ियों में थी। मुम्बई का एक गैर गुजराती परिवार गुजरात के एक शहर में बसना चाहता था। वह फ़्लैट खरीद कर रहना चाहता था। लेकिन, उसकी पृष्ठभूमि बाधक बनती रही। उसे मकान नहीं मिला। वह निराश हो गया। मीडिया ने उसकी निराशा को सुर्ख़ियों में परोस दिया। बस! स्वयंभू श्रेष्ठ जातियों के दिल-दिमागों में दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों को लेकर दिल-दिमागों में पुश्तैनी गाठें बनी रहती हैं। इतना ही नहीं, आदिवासी क्षेत्रों में बसे बाहरी समुदाय के लोग वहां के मूलनिवासियों को ‘अर्द्ध विकसित’ मानते हैं। शहरों की स्थिति तो और भी बदतर है। आदिवासियों को राष्ट्रीय अवसरों पर ‘नुमाइशी प्राणी’ के रूप में देखा जाता है। निजी अनुभव व अवलोकन के आधार पर मैं ऐसा कह रहा हूं।
मैंने सोचा था गांव-क़स्बा बदल गए होंगे। बाहरी परतों के साथ-साथ भीतरी परतें भी बदली होंगी। लेकिन, बसवा के ताज़ा अनुभवों के क्षणों में श्रीलाल शुक्ल का व्यंग्य उपन्यास ‘राग दरबारी‘ की कथावस्तु और पात्र याद आ रहे हैं। साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत छठे दशक की यह रचना आज भी प्रासंगिक उतनी ही है, जितनी तब थी। पिछले कुछ महीनों में मैंने ‘पंचायत’ और ‘गुठली लड्डू’ धारावाहिक देखे थे। दोनों में बसवा के अनुभवों का अक़्स दिखाई दे रहा था। अब तो स्थिति और भी बदतर होती जा रही है; गांव -कस्बों में निजी-सरकारी पूंजी काफी पहुंच रही है; सरकारी तंत्र का विस्तार हो रहा है; मध्ययुगीन मानसिकता को भंग करने में आधुनिक संचार माध्यम विफल रहे हैं; मध्ययुगीनता और आधुनिकता के मध्य शांतिपूर्ण सहअस्तित्व बना हुआ है। शायद, इसे ही ‘सनातनी यथार्थ’ कहते हों!
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)