नव-उदारवाद नव-फासीवाद की जमीन तैयार करता है

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एडम स्मिथ, कीन्स और अमर्त्य सेन द्वारा सामाजिक नैतिकता से नियंत्रित बाजार व्यवस्था की जगह अब असामाजिक नवउदारवादी व्यवस्था ने ले लिया है। वैसे तो एकाधिकार पूंजीवाद के दौर में पूंजी और सरकार के बीच रिश्ता सभी देशों की विशेषता है।

लेकिन यह नव फासीवादी देशों में दो लोगों के गठजोड़, शीर्ष पूंजीपति और सत्ता शीर्ष के गठजोड़ के रूप में प्रकट होता है जैसे हम अमेरिका में ट्रंप मस्क की जोड़ी के रुप में देख रहे हैं या भारत में अदानी मोदी की जोड़ी के रूप में देख रहे हैं।

युद्ध पूर्व जापान में जयबत्सु या दक्षिण कोरिया में चैबोल के उदय के रूप में देखते हैं। दरअसल यह किसी एक देश की विशेषता नहीं है बल्कि नवफासीवाद के प्रभुत्व का मामला है। एकाधिकारी पूंजी चाहती है कि सरकार न सिर्फ उसके हितों को बढ़ावा दे बल्कि उसे ही राष्ट्रीय हित के रूप में प्रोजेक्ट करे। अगर वह ऐसा नहीं करती है तो उसे व्यापार विरोधी ही नहीं राष्ट्रविरोधी घोषित किया जाय।

बजट की आलोचना करते हुए प्रभात पटनायक कहते हैं कि यह स्वतंत्र भारत का सबसे सनक भरा बजट है। वे बताते हैं कि सरकार ने जितना पैसा मध्यवर्ग के हाथ में दिया है उससे अर्थव्यवस्था में गति पैदा होने वाली नहीं है, क्योंकि उससे अधिक तो सरकार ने सरकारी खर्च में कटौती कर दिया है। वे कहते हैं कि देश के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों पर अगर केवल दो प्रतिशत का संपत्ति कर लगा दिया जाय तो जनता की सारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है।

उन्होंने कहा कि उन्नत देशों में भारी उत्तराधिकार कर लगाया जाता है। यह जापान में 55% तो ब्रिटेन में 40% तक है। लेकिन भारत में इसे समाप्त ही कर दिया गया। उनका कहना है कि भारत में जिस कर का वे सुझाव दे रहे हैं, वह बर्नी सैंडर्स द्वारा अमेरिका के लिए दिए गए सुझाव से बहुत कम है।

वे बताते हैं कि नव-उदारवाद नव-फासीवाद की जमीन तैयार करता है। उसका एक तरीका तो यह है कि वह मजदूरों को बेरोजगार बनाता है, दूसरे बड़े पैमाने पर निजीकरण करके वह मजदूरों की ताकत को कमजोर करता है, जिससे फासीवादी ताकतों को प्रश्रय मिलता है।

दूसरा, बढ़ती असमानता के कारण नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में अतिउत्पादन का संकट एकाधिकार पूंजी के आधिपत्य को खतरे में डालता है, इसलिए यह भौतिक जीवन के मुद्दों से हटाकर एक असहाय अल्पसंख्यक को “अन्य” बनाने की दिशा में चर्चा को बदलने के लिए नव-फासीवादियों के साथ गठबंधन करता है। इसलिए, जब हम नव-उदारवाद और नव-फासीवाद के बीच अंतर करते हैं तब उनके अंतर्संबंधों के बारे में भी हमें स्पष्ट होना चाहिए।

न्यूयॉर्क की एक अदालत में न्याय विभाग द्वारा अडानी पर अभियोग लगाए जाने और उनके भतीजे सागर अडानी के परिसरों पर एफबीआई द्वारा की गई छापेमारी के संबंध में, “क्रोनी” पूंजीवाद के अभिन्न अंग के रूप में कदाचार को किस हद तक अनुमति दी जा सकती है? हालांकि ट्रंप ने अभी उस कानून को ही खत्म करने का ऐलान कर दिया है।

जो बिडेन ने अपने विदाई भाषण में “अत्यधिक धनी लोगों के कुलीनतंत्र” के वर्चस्व के खिलाफ चेतावनी दी। बिडेन एक मामूली सोशल डेमोक्रेट भी नहीं हैं!

अमेरिका में जनमत हमेशा से ही “प्रतिस्पर्धा” के पक्ष में रहा है, जो कई कानूनों और न्यायिक घोषणाओं में परिलक्षित होता है। साथ ही, पूंजीवाद का अटल तर्क पूंजी के केंद्रीकरण और “मुक्त प्रतिस्पर्धा” से एकाधिकार के निर्माण की ओर रहा है। एकाधिकार पूंजीवाद अनिवार्य रूप से “क्रोनी पूंजीवाद” को जन्म देता है (जो निश्चित रूप से नव-फासीवाद के तहत अपने चरम पर पहुंचता है)।

अडानी का मामला सिर्फ़ एक नैतिक रूप से घिनौना मामला नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा मामला है जो अन्यथा दोषरहित पूंजीवाद में घटित होता है; यह एक उदाहरण है, हालांकि शायद एक चरम उदाहरण है, जो नवउदारवाद के तहत होता है जो एकाधिकार पूंजी के अनियंत्रित शासन की अनुमति देता है, और विशेष रूप से नव-फासीवाद के तहत जिसके लिए नवउदारवाद जमीन तैयार करता है।

ऐसे मामलों को रोकना केवल आर्थिक व्यवस्था को बदलकर और नवउदारवाद से परे एक व्यवस्था लाकर ही संभव है। अदानी पर अमेरिका में अभियोग के बाद कई अस्वीकृतियां और पुनर्विचार हुए हैं। केन्या सरकार ने अडानी समूह के साथ अपने सौदे रद्द कर दिए हैं; बांग्लादेश की अंतरिम सरकार अपने अनुबंध की समीक्षा कर रही है; फ्रांसीसी ऊर्जा दिग्गज टोटल एनर्जीज ने कहा है कि जब तक आरोप गलत साबित नहीं हो जाता, तब तक वह निवेश रोक देगी; और श्रीलंका सरकार ने बिजली खरीद समझौते को रद्द कर दिया है। क्या ये कार्रवाइयां यह संकेत देती हैं कि बाजार की ताकतें संदिग्ध क्रोनी पूंजीवाद के खिलाफ हैं?

इन प्रतिक्रियाओं से हमें यह सोचने में गुमराह नहीं होना चाहिए कि एकाधिकार पूंजीवाद के तहत “बाजार की ताकतें” किसी तरह “स्वच्छ पूंजीवाद” ला सकती हैं। भले ही अडानी साम्राज्य ढह जाए, लेकिन जब तक नवउदारवाद और उसका अंतिम परिणाम, यानी नव-फासीवाद कायम है, तब तक कोई और साम्राज्य क्रोनी पूंजीवाद की अभिव्यक्ति के रूप में उभरेगा।

ऐसा कहने का मतलब यह नहीं है कि पूंजीवाद के खेल के घोषित नियमों का उल्लंघन करने वाले क्रोनी पूंजीवाद को बर्दाश्त किया जाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि क्रोनी पूंजीवाद, यहां तक ​​कि इसके सबसे निर्लज्ज रूप में भी, तब तक काबू नहीं पाया जा सकता जब तक कि हम एकाधिकार पूंजीवाद और नवउदारवादी शासन के रूप में इसके आधिपत्य की वर्तमान अभिव्यक्ति से आगे नहीं निकल जाते। 

(प्रो. प्रभात पटनायक के अंग्रेजी आलेख का अनुवाद लाल बहादुर सिंह ने किया है)

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