सिपाहियों की बंदूकों से नहीं, न्याय से आएगी बस्तर में शांति

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छत्तीसगढ़ के बीजापुर में 22 सिपाहियों की मौत हुई है। सिपाही गरीब का बेटा है। वह बंदूकधारी मजदूर है जो अपने बच्चों का पेट पालने के लिए बंदूक टांग कर नेताओं की योजना के अनुसार गरीब जनता को मारने के लिए गाँव में भेज दिया जाता है। जहां नक्सलवादी जनता की सहानुभूति से लैस होकर इन सिपाहियों को मारते हैं। इस सप्ताह घटी यह घटना कोई पहली बार नहीं है यह सब लम्बे समय से हो रहा है।

अगर आप ऐसा मानते हैं कि अशांति के लिए सिर्फ माओवादी दोषी हैं और अगर माओवादी ना होते तो देश में बस शांति ही शांति होती। इल्जाम यह भी लगाया जाता है कि माओवादी विकास नहीं करने देते। तो आप जरा ध्यान दीजिये कि जहां माओवादी नहीं हैं क्या वहां शांति है। क्या वहाँ भ्रष्टाचार समाप्त हो गया, क्या वहाँ विकास हो गया है?

जिन देशों में माओवादी नहीं हैं क्या वहाँ हिंसा नहीं है। अफ्रीका, लैटिन अमेरिकी देश, फिलीपीन्स तथा दुनिया के और भी बहुत सारे देश हैं जहां माओवादी नहीं हैं। लेकिन इन देशों में आदिवासी नेताओं सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, सोनी सोरी और लिंगा कोड़ोपी जैसे आदिवासी कार्यकर्ताओं को जेलों में डाला जा रहा है मार डाला जा रहा है। और यह काम सरकारें और कम्पनियां दोनों मिलकर करती हैं। ज्यादातर मामलों में सामाजिक कार्यकर्ताओं के क़त्ल में पुलिस शामिल रहती है।

भारत में भी यही हालत है। जो लोग आदिवासियों के मानवाधिकारों के हनन के मुद्दे उठाते हैं। विकास के गलत माडल और पर्यावरण तथा आदिवासियों की आजीविका और जल जंगल जमीन के मुद्दे उठाते हैं उन्हें जेल में डाल दिया जाता है।

मैं पिछले दो सालों से अडानी द्वारा छत्तीसगढ़ में अवैध रूप से खदान हड़पने और बीस हजार पेड़ काटने के बारे में लिख रहा हूँ। आदिवासियों ने इसके खिलाफ आन्दोलन किया जिससे सरकर को मजबूर होकर अडानी को फिलहाल रोक देना पड़ा। लेकिन इस आन्दोलन में शामिल चार आदिवासी नौजवानों पोदिया, लच्छू, गुड्डी और भीमा को पुलिस ने क़त्ल कर दिया। इन लोगों को घर से उठा-उठा कर ले जाकर गोली से उड़ाया गया। इसके अलावा इस आन्दोलन की आदिवासी महिला कार्यकर्ता हिडमें को अभी एक महीने पहले ही जेल में डाल दिया गया है और उस पर यूएपीए लगा दिया गया है ताकि दस साल तक उसे जमानत भी ना मिल सके।

छत्तीसगढ़ के मुख्य मंत्री ने घोषणा की है कि वह इस बार आखिरी युद्ध लड़ेंगे और माओवाद को समाप्त कर देंगे। हमने इस तरह की घोषणाएं कई बार सुनी हैं। इसलिए ऐसी घोषणाओं से हमें उत्साह नहीं होता बल्कि डर बढ़ता है कि अब माओवाद और बढ़ जायेगा। क्योंकि असल में होगा क्या? मुख्यमंत्री की घोषणा के बाद पुलिस के एसपी के ऊपर कुछ बहादुरी दिखाने का दबाव पड़ेगा। माओवादी तो उसे मिलेंगे नहीं। तो उसके सिपाही जाकर निर्दोष आदिवासियों को मारेंगे, सिपाही आदिवासी महिलाओं से बलात्कार करेंगे, हम जैसे सामाजिक कार्यकर्ता इसके विरोध में बोलेंगे आप हमें माओवादी समर्थक कहेंगे। फिर कुछ दिन बाद सब शांत हो जाएगा।

माओवाद को समाप्त करने का यह रास्ता है ही नहीं। माओवादी को आदिवासी से ताकत और समर्थन मिलता है। आप आदिवासी पर जितना ज्यादा जुल्म करेंगे वह उतना ज्यादा माओवादी को अपना दोस्त समझेगा। आप आदिवासी को सम्मान दीजिये, उसकी बात सुनिए, उसके साथ अन्याय हो तो उसे न्याय दीजिये।

लेकिन आपका पूरा प्रशासन आपकी सरकार आपके कोर्ट आदिवासी के खिलाफ काम करते हैं।

सलवा जुडूम में आदिवासियों के साढ़े छह सौ गाँव पुलिस ने जलाये। हजारों महिलाओं से सिपाहियों ने बलात्कार किये। हजारों निर्दोष आदिवासियों को माओवादी कह कर जेलों में ठूंस दिया गया। बारह साल तक की आदिवासी लड़कियों के साथ पुलिस ने बलात्कार उनके स्तनों को और गुप्तांगों को बिजली के तारों से जला कर जेलों में डाला गया। यह सब मैंने उजागर किया तब मेरे समर्थन में जेलर वर्षा डोंगरे ने लिखा और कहा कि हिमांशु कुमार ठीक कह रहे हैं मैंने भी जेल में ऐसी आदिवासी लड़कियां देखी थीं और मैं यह देख कर काँप गई थी। उसके बाद सरकार ने आदिवासियों को न्याय देने और अपराधी पुलिस वालों को सजा देने की बजाय जेलर वर्षा डोंगरे को ही सस्पेंड कर दिया।

जब हम आदिवासियों के ऊपर होने वाले सरकारी जुल्मों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गये तो सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम को गैर संवैधानिक घोषित किया और छत्तीसगढ़ सरकार को आदेश दिया कि सभी गाँव को बसाओ, दोषी पुलिस वालों के खिलाफ रिपोर्ट लिखो और आदिवासियों को मुआवजा दो। लेकिन भाजपा सरकार ने एक भी आदेश नहीं माना। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद हमारी संस्था के आदिवासी कार्यकर्ताओं ने चालीस गावों को फिर से बसा दिया और पुलिस के अपराधों की पांच सौ उन्नीस रिपोर्टें कलेक्टर, एसपी और सुप्रीम कोर्ट को दी। लेकिन बदले में सरकार ने हमारे आश्रम पर बुलडोजर चला दिया मेरे कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया और मेरी हत्या की कोशिश की और अंत में जिस रात मुझे पुलिस द्वारा मारा जाना था मुझे छत्तीसगढ़ छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।

भारत के संविधान में आदिवासियों को पांचवी अनुसूची में विशेष अधिकार दिए गये हैं। संविधान ने भारत के राष्ट्रपति को आदिवासियों का संरक्षक नियुक्त किया है। राष्ट्रपति जब चाहे बिना सरकार से पूछे आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए सीधे कार्यवाही कर सकता है। लेकिन चाहे आदिवासियों के साढ़े छह सौ गाँव जला दिए गए हों, चाहे सिपाहियों ने हजारों आदिवासी महिलाओं से बलात्कार किये हों, आज तक राष्ट्रपति ने आदिवासियों के पक्ष में एक बार भी अपने उस अधिकार का प्रयोग नहीं किया। बल्कि जब दंतेवाड़ा के एसपी अंकित गर्ग ने आदिवासी मानवाधिकार कार्यकर्ता सोनी सोरी के गुप्तांगों में पत्थर भर दिए तब भारत के राष्ट्रपति ने उसे वीरता पुरस्कार दिया और छत्तीसगढ़ शासन ने उसे तरक्की दी और आज भी कांग्रेस शासन ने उसके खिलाफ कोई भी कार्यवाही नहीं की है।

जहां अन्याय है वहाँ शांति नहीं हो सकती। सिपाहियों की बंदूक के दम पर आप बस्तर में कभी शांति नहीं ला सकते। बस्तर ही क्यों यह दुनिया भर की कहानी है। दुनिया का हर युद्ध शांति के लिए लड़ा जाता है। हम सोचते हैं युद्ध के बाद शांति आ जायेगी। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता। आप सोचते हैं आप बस्तर में सीआरपीएफ की कुछ और बटालियन तैनात कर देंगे और उससे शांति आ जायेगी। तो आप गलती पर हैं। माओवाद विकास के गलत माडल, सरकारी जुल्म और अन्याय से बढ़ रहा है। आप न्याय दीजिये शांति आ जायेगी।

लेकिन आपकी सरकारें तो न्याय की बात करने वालों को ही जेल में डालती हैं। आज आप अमित शाह के साथ मिल कर बस्तर में शान्ति की योजना बना रहे हैं। यह वही अमित शाह हैं जिसने सुधा भारद्वाज को जेल में डाला जिन्होनें सारी ज़िन्दगी गरीब मजदूरों की सेवा में गुजारी, इसने फादर स्टेन स्वामी को जेल में डाला हुआ है जिन्होंने चार हजार निर्दोष आदिवासियों की सूची प्रकशित की जो झारखंड की जेलों में बंद हैं।

मुझे दस साल छत्तीसगढ़ से बाहर रहने के लिए मजबूर किया गया। पिछले साल मैं दंतेवाड़ा गया और वहाँ नौ महीना रहा। मेरे साथी कोपा कुंजाम ने मुझे अपने गाँव में मिलने के लिए बुलाया तो वहां पूरा दंतेवाड़ा प्रशासन मुझे रोकने के लिए पहुँच गया। आखिर में मेरे मकान मालिक ने मुझे मकान खाली करने के लिए कहा। अब मेरे पास दंतेवाड़ा में रहने के लिए कोई जगह नहीं है। दंतेवाड़ा के एसपी ने सोनी सोरी से कहा हिमांशु को हमने भगाया है।

मेरे पिता ने गांधीजी के साथ काम किया था। मैं और मेरी पत्नी अपनी शादी के बीस दिन बाद 1992 में दंतेवाड़ा आ गये थे और गाँव में कुटिया बना कर रहना शुरू किया था। विनोबा भावे की मानसपुत्री और इंदिरा गांधी की प्रिय मित्र निर्मला देशपांडे ने मुझे बस्तर जाने के लिए प्रेरित किया था और कहा था कि हिंसाग्रस्त इलाके में गांधी की अहिंसा की शक्ति को साबित करो।

मैंने सारा जीवन वही काम किया। लेकिन अभी हाल ही में एनआईए ने सात घंटे सोनी सोरी से पूछ ताछ की और कहा कि हम हिमांशु को नहीं छोड़ेंगे। मैं इन्तजार में हूँ कि अमित शाह और मोदी मुझे कब जेल में डालते हैं। हो सकता है इस बार मैं छत्तीसगढ़ आऊँ तो छत्तीसगढ़ पुलिस ही मुझे जेल में डाल दे।

अगर सरकार सोचती है कि न्याय की मांग करने वाले यह सामाजिक कार्यकर्ता ही सबसे बड़े दुश्मन हैं और इन्हें जेल में डाल दो तो सब समस्या दूर हो जायेगी तो ऐसा करके देख लीजिये।

मैं आज भी दावा करता हूँ कि अगर सरकार सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेलों से रिहा कर दे। आदिवासी नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से बात करके आदिवासी इलाके में न्याय और विकास के काम करे तो निर्दोष सिपाहियों की मौत रुक सकती है।

हमने जब बस्तर में चालीस उजड़े हुए गाँव को बसाया था तब छह महीने तक उस इलाके में एक भी पुलिस वाले को नहीं मारा गया था। मैंने यह बात दंतेवाड़ा के तत्कालीन एसपी राहुल शर्मा से कही थी। लेकिन उनके मन में हमारे तरीके का कोई सम्मान नहीं था, उन्होंने हमारे आश्रम पर बुलडोजर चलवा दिया और सिंगारम में उन्नीस आदिवासियों को लाइन में खड़ा करके गोली से उड़वा दिया।

आज राहुल शर्मा इस दुनिया में नहीं हैं, उन्होंने अपनी रिवाल्वर से खुद को गोली मार ली, इस मामले में सरकार ने मारे गये लोगों को गुपचुप एक-एक लाख रूपये दे दिए, मामला आज भी कोर्ट में है,किसी को कोई सजा नहीं मिली, बारह साल गुजर चुके हैं।

मेरे छत्तीसगढ़ छोड़ने के तीन महीने बाद सीआरपीएफ के छियत्तर जवानों को मार डाला गया था, उस समय बीसएफ के रिटायर्ड डीजी राम मोहन की अध्यक्षता में एक जांच कमीशन बनाया गया था। आज तक सरकार की हिम्मत नहीं हुई है कि उस रिपोर्ट को जारी कर सके।

क्योंकि जवानों के मारे जाने में सारा और पूरा दोष सरकारों का है। अमित शाह जैसे पूंजीपतियों के दलाल जिनके इशारे पर आदिवासियों को उनकी जमीनों से उजाड़ा जा रहा है। जो आदिवासियों की आवाज उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को तेजी से जेलों में डाल रहे हैं। अगर छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार उनके निर्देशन में उनकी योजना से चलेगी तो मुझे डरते हुए कहना पड़ रहा है कि हालत और भी बिगड़ेगी।

खैर सरकारों को सिपाहियों की मौत से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। सरकार को तो इन्वेस्टमेंट, पूंजीपतियों की कृपा और उसमें मिलने वाले कमीशन के कम होने से फर्क पड़ता है।

लेकिन हमें किसान के बेटे सिपाही की मौत से दुःख होता है और गहरा फ़र्क पड़ता है इसलिए हम शांति की सच्ची कोशिश करते रहेंगे और न्याय के लिए अपनी आवाज उठाते रहेंगे फिर चाहे हमें एनआईए जेल में डाले या छत्तीसगढ़ पुलिस।

  (हिमांशु कुमार गांधीवादी कार्यकर्ता हैं और सालों तक छत्तीसगढ़ में रहकर सामाजिक काम किए हैं।)

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