साख ख़तरे में है। बीजेपी ही नहीं, आरएसएस की भी साख। महाराष्ट्र में 10 नवंबर को देवेंद्र फडनवीस ने संख्या बल नहीं होने की बात कही थी। तब वह नैतिक थी और इसे अच्छे चाल-चलन वाली बीजेपी नेता के व्यवहार के तौर पर देखा गया। मगर, अब जब 30 नवंबर को या इससे पहले सुप्रीम कोर्ट जो भी तिथि तय कर दे, अगर देवेंद्र फडनवीस ऐसा ही कहते हैं यानी कि सरकार बनाने के लिए उनके पास संख्या बल नहीं है तो इसे अच्छे चाल-चलन वाली बीजेपी नेता का व्यवहार नहीं समझा जाएगा। बल्कि बीजेपी की धूर्त व कपट नीति का विफल होना माना जाएगा। हर हाल में यह सत्ता हथियाने की कोशिश की हार होगी। बट्टा सिर्फ बीजेपी की साख को नहीं लगेगा, बल्कि आरएसएस की भी साख गिरेगी, जिसकी भूमिका इस पूरे दौर में किसी न किसी रूप में रही है।
उद्धव ने ठुकरायी संघ की मध्यस्थता
आरएसएस ने समय-समय पर बीजेपी-शिवसेना के बीच गतिरोध को दूर करने की कोशिश की। ताज़ा कोशिश का सबूत उद्धव ठाकरे का वह बयान है जिसमें उन्होंने 24 नवंबर को विधायकों को संबोधित करते हुए कहा कि संघ ने उनसे सम्पर्क किया था लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। निश्चित रूप से आरएसएस उस गठबंधन के बनने से चिंतित है जिसमें एनसीपी और कांग्रेस के साथ शिवसेना शामिल हो रही है। उद्धव की बात से यह भी पता चलता है कि बीजेपी खेमे में बहुमत का विश्वास नहीं है और वह किस कदर बेचैन है।
महाराष्ट्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय है। लिहाजा राजनीतिक सत्ता मनोनुकूल ना हो, यह संघ कभी नहीं चाहेगा। इसी लिहाज से वह शिवसेना और बीजेपी के बीच खटास दूर करने की कोशिशों में भी जुटा रहा है। संघ नेताओं से बीजेपी और शिवसेना की मुलाकातें होती रही हैं लेकिन इसे गैर राजनीतिक कहा जाता रहा है। फिर भी खुद संघ प्रमुख के बयानों में शिवसेना-बीजेपी में तनातनी से खटास पैदा हुई है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 19 नवंबर को नागपुर में एक समारोह के दौरान सांकेतिक तौर पर अपनी इस चिंता को प्रकट किया था,
“सब जानते हैं प्रकृति को नष्ट करने से हम भी नष्ट हो जाएंगे, लेकिन प्रकृति को नष्ट करने का क्रम रुका नहीं है। सभी जानते हैं कि आपस में झगड़ा करने से एक पक्ष नहीं बल्कि दोनों को हानि होती है लेकिन झगड़े फिर भी नहीं रुके।“
मोहन भागवत ने अपनी
बात को और अधिक साफ करते हुए कहा था,
“सब जानते हैं कि स्वार्थ मनुष्य का
अवगुण है, लेकिन बहुत कम लोग हैं जो स्वार्थ को
छोड़ते हैं, चाहे बात देश की हो या फिर व्यक्तियों
की।”
पहले शिवसेना ने मांगी थी संघ से मध्यस्थता
ऐसा नहीं है कि मोहन भागवत का यह बयान अचानक आया हो। इससे पहले भी बीजेपी-शिवसेना के बीच विवाद को दूर करने की कोशिश देखी गयी थी। शिवसेना के एक नेता ने 3 नवंबर को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को पत्र लिखकर उनसे बीजेपी-शिवसेना के बीच गतिरोध दूर करने के लिए हस्तक्षेप की मांग की थी। नितिन गडकरी की भी मध्यस्थता मांगी गयी। चिट्ठी का असर ये हुआ कि दो दिन बाद देवेंद्र फडनवीस नागपुर पहुंच गये और मोहन भागवत समेत संघ नेताओं से मुलाकात की।
मसला सरकार में 50-50 फीसदी हिस्सेदारी का था और दावा मुख्यमंत्री पद को लेकर था। लिहाजा समझाने की बात शिवसेना से ज्यादा बीजेपी को थी। 8 नवंबर को देवेंद्र फडनवीस ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इससे पहले उन्होंने दिल्ली में अमित शाह और नितिन गडकरी से भेंट की। फिर अमित शाह के हवाले से देवेंद्र ने मुख्यमंत्री पद की हिस्सेदारी शिवसेना से किए जाने के किसी वादे से इनकार कर दिया। यह सुनकर उद्धव ठाकरे उबल पड़े। उन्होंने इसे अपने को झूठा बताने और बाला साहब ठाकरे के कमरे में झूठ बोलने के तौर पर देखा। बात और भी बिगड़ गयी।
इस बीच 9 नवंबर को राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने देवेंद्र फडनवीस को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। 10 नवंबर को फडनवीस ने अपने हाथ खड़े कर दिए। कहा कि आंकड़े नहीं हैं। तब राज्यपाल ने शिवसेना के लिए यही अवसर आगे बढ़ाया। शिवसेना ने 11 नवंबर को और वक्त मांगा, मगर राज्यपाल ने यह वक्त नहीं दिया। अगला मौका एनसीपी को मिला और अगले दिन यानी 12 नवंबर को सरकार नहीं बना पाने की वजह से महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया।
राष्ट्रपति शासन से शपथ ग्रहण तक बिगड़ती चली गयी बात
राष्ट्रपति शासन के बाद से शिवसेना और बीजेपी के रिश्ते और तल्ख हो गये। शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस के बीच गठबंधन की कोशिश चरम पर पहुंचने के बाद अचानक शिथिल हो गयी। फिर भी यह प्रक्रिया रुकी नहीं। कई दौर की बातचीत के बाद जब 23 नवंबर को शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की सरकार बनाने का औपचारिक एलान किया जाना था और इसके लिए दिल्ली से कांग्रेस के नेता मुम्बई पहुंच चुके थे तो ऐसा होने से पहले ही सुबह सवेरे 8 बजे देवेंद्र फडनवीस को शपथ दिला दी गयी। इसके लिए शुक्रवार-शनिवार की रात पूरी प्रक्रिया को अंजाम दिया गया। अजित पवार के रूप में डिप्टी सीएम महाराष्ट्र को मिल चुका था।
शाम होते-होते अजित पवार के दावे की हवा निकल गयी। 48 एनसीपी विधायक शरद पवार के नेतृत्व में एकजुट हो गये। अब बहुमत साबित करना बड़ी चुनौती बन गयी। यह कहना मुश्किल है कि महाराष्ट्र में बीजेपी-एनसीपी की सरकार को शपथ दिलाने की रणनीति में बीजेपी के आला नेताओं के अलावा आरएसएस का हाथ था या नहीं। मगर, जिस तरीके से कहा जाता है कि बगैर शरद पवार की मर्जी के यह काम नहीं हुआ होगा, उसी तरीके से यह भी कहा जा रहा है कि बगैर आरएसएस की मर्जी से भी यह काम नहीं हुआ होगा। अगर शरद पवार की मर्जी शामिल होगी, तो वह बात भी वक्त स्पष्ट कर देगा। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ तो समझिए कि बीजेपी-आरएसएस के मंसूबे पर पानी फिरने वाला है।
बीजेपी पर भी नहीं दिखा संघ का नियंत्रण
बीजेपी राजनीतिक दल है। उसकी सत्ता की भूख को जायज भी ठहराया जा सकता है। मगर, यही बात आरएसएस के लिए उचित नहीं ठहरायी जा सकती। जिस तरीके से नितिन गडकरी ने कहा था कि क्रिकेट और राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है। वहीं, सरकार बनाने के लिए जो कपट नीति दिखलायी गयी वह आरएसएस की प्रतिष्ठा के अनुरूप तो कतई नहीं है।
शिवसेना और बीजेपी के बीच मतभेद को नहीं सुलझा पाना इन दोनों दलों के साथ-साथ आरएसएस की भी विफलता है। हिन्दुत्ववादी संगठन अगर कमजोर होता है तो यह संघ के लिए चिन्ता का विषय है। वहीं अगर बीजेपी भी सत्ता के लिए अपने सिद्धांत से समझौता करती है तो वह भी उसके लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए। मगर, सत्ता की रणनीति भी अगर फेल हो जाए यानी सिद्धांत से समझौता करने के बावजूद मंजिल न मिले तो यह ऐसी विफलता है जिससे न सिर्फ बीजेपी की साख गिर जाती है बल्कि आरएसएस की प्रतिष्ठा को भी पूरा बट्टा लगता है। जो बात संघ के रोके न रुकी, वह बगैर संघ की भूमिका के रुक जाए तो साख तो गिरेगी ही।
(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल विभिन्न न्यूज़ चैनलों के पैनल में उन्हें बहस करते देखा जा सकता है।)
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