Wednesday, April 24, 2024

अब तक का सबसे बड़ा मानवीय संकट है एनआरसी: फैक्ट फाइंडिंग टीम

नई दिल्ली। मेरा नाम 1951 से एनआरसी रजिस्टर में है लेकिन अब मैं डी वोटर यानी डाउटफुल या संदेहास्पद वोटर हो गया हूं। इस बार मेरा पूरा परिवार एनआरसी से अलग हो गया है। मेरे परिवार में 8 लोग हैं जो इस काम के सिलसिले में बरपेटा से गोलपाड़ा आए हैं। और अब मेरा केस फारेन ट्रिब्यूनल में विचाराधीन है।

……फजल हक, 71 वर्ष, बरविता, बरपेटा

1979 के चुनाव में मैंने अपना वोट दिया था। लेकिन 2002 में मुझे संदेहास्पद वोटर करार दे दिया गया। मैंने फोरेन ट्रिब्यूनल से संपर्क कर उसे सभी पेपर दिखाए लेकिन अभी भी मेरा नाम एनआरसी में नहीं है। मेरे परिवार में कुल 22 सदस्य हैं जिनमें 14 लोगों को एनआरसी से बाहर कर दिया गया है। मेरे पिता को भी एनआरसी से बाहर रखा गया है जिन्हें 1955 में पासपोर्ट जारी किया गया था।

…..प्रदीप कुमार साहा, 49 वर्ष, रत्तोनपट्टी, खारूपेटिया, दरांग

200 लोगों के लिए वहां केवल दो शौचालय है और वो भी साफ नहीं है। डिटेंशन सेंटर के भीतर जीवन जानवरों से भी बदतर है। मैं अब डिटेंशन सेंटर में जाने के बजाय खुदकुशी करना पसंद करूंगा।

…….डिटेंशन सेंटर से जमानत पर लौटे गोलपाड़ा जिले के बस्सु अली

यह असम में चल रहे एनआरसी प्रकरण की मौजूदा तस्वीर है। जहां तकरीबन 19 लाख से ज्यादा लोगों को स्टेटलेस यानी राज्यविहीन घोषित कर दिया गया है। यानी उनका अपना कोई देश नहीं है। और अब उन्हें डिटेंशन सेंटर में कैद करने की तैयारी शुरू हो गयी है। इस आंकड़े में मुसलमानों से ज्यादा हिंदू हैं। यह रिपोर्ट असम के दौरे से लौटी एक फैक्ट फाइंडिंग टीम ने दी है। दिल्ली से गए इस प्रतिनिधिमंडल ने 5 सितंबर से लेकर 8 सितंबर तक राज्य के विभिन्न हिस्सों का दौरा किया और लोगों से मिलकर उनकी राय जानी। लौटने के बाद कल प्रेस क्लब में टीम ने यह रिपोर्ट जारी की। इस मौके पर उसने इसे दुनिया का सबसे बड़ा मानवीय संकट करार दिया। जिसमें 19 लाख लोग न केवल बेघर-बार होंगे बल्कि इस धरती पर उनका कोई अपना देश तक नहीं होगा। टीम में वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत टंडन, सोशल एक्टिविस्ट नदीम खान, जर्नलिस्ट संजय कुमार और जर्नलिस्ट एवं आथर अफरोज आलम साहिल शामिल थे।

हालांकि एनआरसी से निकाले गए लोगों के पास अभी फारेन ट्रिब्यूनल यानी एफटी के सामने अपना पक्ष पेश करने का मौका है। लेकिन टीम का कहना है कि ट्रिब्यूनल को जिस तरह से बनाया गया है और उसे जिस तरह से चलाया जा रहा है उससे किसी न्याय की उम्मीद करना ही बेमानी है। रिपोर्ट की मानें तो ट्रिब्यूनल स्वतंत्र न्यायिक संस्था के तौर पर काम करने की जगह राज्य सरकार के राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर काम कर रहे हैं। ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष की नियुक्ति राज्य सरकार के हाथ में है। साथ ही उनका प्रमोशन और एक्टेंशन भी वही करती है। लिहाजा इस बात से समझा जा सकता है कि वह कितना स्वतंत्र होगी। जिसका नतीजा यह है कि वह ज्यादा से ज्यादा लोगों को विदेशी घोषित करने में अपनी रुचि दिखाता है।

फारेन ट्रिब्यूनल हेड का रिपोर्ट कार्ड।

रिपोर्ट में कहा गया है कि “वे स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर रहे हैं। असम में सत्तारूढ़ पार्टी के एजेंट के तौर पर काम कर रहे हैं। जिनकी सूची में ज्यादा विदेशी हैं उनको 2 साल की नौकरी के बाद एक्सटेंशन मिल जाएगा और जिनकी सूची में नहीं हैं उनको दरकिनार कर दिया जाएगा। यह पिछले साल 19 एफटी हेड के हटाए जाने से समझा जा सकता है। उन्हें इसलिए हटाया गया क्योंकि वो अपने मैंडेट के मुताबिक काम कर रहे थे और मामलों पर स्वतंत्र रुप से फैसले ले रहे थे।”

रिपोर्ट में इससे संबंधित कई उदाहरण भी दिए गए हैं। जिससे इस बात को समझा जा सकता है।

धुबरी जिले के एफटी हेड कार्तिक राय अपने कार्यकाल में कुल 380 मामले देखे जिसमें उन्होंने 5 आवेदकों को विदेशी घोषित किया। सरकार की रिपोर्ट में उनके प्रदर्शन के आगे संतोषजनक नहीं का रिमार्क लगाया गया। साथ ही इस बात की संस्तुति की गयी कि उन्हें बर्खास्त किया जा सकता है।

जबकि उसी दौरान 2017 में धुबरी जिले के ही एफटी हेड नब कुमार बरुआ ने 321 मामलों का निपटारा किया जिसमें उन्होंने 240 को विदेशी घोषित कर दिया। उनके प्रदर्शन को सरकार ने अच्छा बताया और उन्हें बनाए रखने की संस्तुति की। इसी तरह के ढेर सारे उदाहरण उसी सूची में दिए गए हैं जिसको टीम ने पेश किया है। जिससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ट्रिब्यूनल को किस तरह से पक्षपातपूर्ण तरीके से काम करने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

मामला यहीं तक सीमित नहीं है। दरअसल ट्रिब्यूलन के गठन में ही बड़े स्तर पर कदाचार और भाई-भतीजावाद हावी हो गया है। और एफटी हेड की गुणवत्ता से भी समझौता किया गया है। पहले उसी को ट्रिब्यूनल हेड बनाया जाता था जो जज रहा हो और रिटायर हो गया हो। लेकिन बाद में इसमें बदलाव कर 10 साल तक प्रैक्टिस करने वाले वकील को भी हेड बनने की योग्यता तय कर दी गयी। बाद में इस अनुभव को 10 से घटाकर 7 साल कर दिया गया। और फिर इनमें से ज्यादातर ऐसी नियुक्तियां होनी शुरू हो गयीं जो सत्ता के तमाम उच्च पदों पर बैठे लोगों के रिश्तेदार हैं या फिर उनकी कोई अपनी पहुंच है। इस तरह से नियुक्तियों में योग्यता दूसरे दर्जे पर चली गयी।

अभी तक इस तरह से कुल 221 ट्रिब्लूनल काम कर रहे हैं। इनकी निष्पक्षता किस कदर सवालों के घेरे में इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सूबे के मुख्यमंत्री अक्सर इन ट्रिब्यूनल हेडों की बैठक लेते हैं। एक ट्रिब्यूनल हेड को 85 हजार रुपये महीने और चलने के लिए एक कार मिलती है।

कितने अन्यायपूर्ण और पक्षपात तरीके से ये ट्रिब्यूनल काम कर रहे हैं उसको एक दूसरे उदाहरण के जरिये भी समझा जा सकता है। हाल में असम असेंबली में पेश किए गए एक आंकड़े के मुताबिक 2005 से अब तक ट्रिब्यूनल के सामने कुल 461305 मामले गए जिसमें 259340 मामलों का उसने निपटारा किया। इसमें तकरीबन 103764 मामले ऐसे थे जिन्हें विदेशी घोषित कर दिया गया। लेकिन इसमें भी 57384 यानी 55 फीसदी मामलों पर एकतरफा फैसला सुनाया गया। यानी दूसरे पक्ष को सुने बगैर ही फैसला सुना दिया गया।

आवेदनों पर फैसला।

विदेशी घोषित किए जाने के बाद उन लोगों को जहां रखा जाना है उन डिटेंशन सेंटरों की हालत और भी बदतर है। हालांकि ज्यादातर डिटेंशन सेंटर अभी निर्माणाधीन हैं। लेकिन जो कुछ पहले से बने हैं वह कतई एक इंसान के रहने के काबिल नहीं हैं। अभी तक इन मामलों में 1145 लोगों को डिटेंशन सेंटर भेजा गया है। जिसमें 1005 घोषित विदोशी हैं और 140 सजायाफ्ता विदेशी। सेंटरों की हालत के बुरे होने का ही नतीजा है कि वहां रहते 25 लोगों को अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ा। अनायास नहीं बस्सु अली कह रहे थे कि वह डिटेंशन सेंटर जाने की जगह खुदकुशी करना पसंद करेंगे।

अच्छी बात यह हुई है कि एनआरसी के आंकड़े आने के बाद मुसलमानों ने राहत की सांस ली है। बीजेपी जितनी बड़ी संख्या बना कर पेश कर रही थी वह आंकड़ा औंधे मुंह गिर गया है। 19 लाख की जो संख्या भी है उसमें आधे से ज्यादा हिंदू हैं। साथ ही अभी ट्रिब्यूनल के जरिये बहुत सारी गल्तियां दुरुस्त होने की संभावना है। बावजूद इसके मुस्लिम ही सबसे ज्यादा आशंकित भी हैं। एनआरसी से बाहर किए गए मुसलमानों के सामने एक अंधकारमय भविष्य है। जिसमें कैद से लेकर रोजाना कोर्ट के चक्कर हैं।

इस मामले में हिंदू थोड़े कम परेशान हैं क्योंकि बीजेपी ने उन्हें आश्वस्त कर रखा है कि उनकी नागरिकता बहाल की जाएगी। हालांकि अभी संसद से वह विधेयक पारित होना बाकी है। बावजूद इसके तमाम कोर्ट और कचहरियां उनका इंतजार कर रही हैं।

टीम ने नये बन रहे डिटेंशन सेंटरों का भी दौरा किया। जिसमें उसे बहुत सारे ऐसे मजदूर मिले जिनका खुद नाम एनआरसी में नहीं है। और शायद उन्हें उसी डिटेंशन सेंटर में कैद कर दिया जाए। इस तरह से यह अपने किस्म की विडंबना ही है कि वह अपने जेलखाने का खुद निर्माण कर रहे हैं। इसी तरह का एक डिटेंशन सेंटर गोलपाड़ा जिले में बन रहा है। जिसके निर्माण में 45 करोड़ रुपये का खर्च आ रहा है। और इसमें 3000 लोगों को रखा जा सकता है। इस तरह से अभी कुल 11 डिटेंशन सेंटर बनने हैं।

टीम का कहना है कि एनआरसी की पूरी कवायद ने पूरे आसामी समाज को अंदर तक झकझोर दिया है। इसके दिए घावों को भरने में कई पीढ़ियां लग जाएंगी। लोगों में बड़े स्तर पर भय है। और पूरा आसामी समाज डरा हुआ है। प्रतिनिधिमंडल की अगुआई करने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत टंडन ने कहा कि जिस देश का संविधान “वी दि पीपुल” के साथ जनता को प्राथमिकता में नंबर एक पर रखता है उसको पहली बार भूगोल के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश की जा रही है। जो न केवल उसकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत के खिलाफ है। बल्कि परंपरागत मानवीय मूल्यों और आधुनिक मानवाधिकारों की भी कसौटी पर कहीं खरा नहीं उतरता है। दूसरे सदस्य और एक्टिविस्ट नदीम खान ने इसे सरकार द्वारा किया गया एक ऐसा अन्याय बताया जिसकी कोई भरपाई नहीं है।

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles